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24.7.21

भीष्म उठ निर्णय सुनाओ


द्रौपदी के चीर की तुम चीख सुनते क्यों नहीं,

विदुर की तुम न्यायसंगत सीख सुनते क्यों नहीं,

पाण्डवों का धर्मसंकट, जब मुखर होकर बह रहा,

यह तुम्हारा कुल कराहे, घाव गहरे सह रहा,

धर्म की कोई अघोषित व्यंजना मत बुदबुदाओ,

भीष्म उठ निर्णय सुनाओ ।

 

राज्य पर निष्ठा तुम्हारी, ध्येय दुर्योधन नहीं,

सत्य का उद्घोष ही व्रत, और प्रायोजन नहीं,

राज्य से बढ़ व्यक्ति रक्षा, कौन तुमसे क्या कहे,

अंध बन क्यों बुद्धि बैठी, संग अंधों यदि रहे,

व्यर्थ की अनुशीलना में आत्म अपना मत तपाओ,

भीष्म उठ निर्णय सुनाओ ।

 

हर समय खटका सभी को, यूँ तुम्हारा मौन रहना,

वेदना की पूर्णता हो और तुम्हारा कुछ न कहना,

कौन सा तुम लौह पाले इस हृदय में जी रहे,

किस विरह का विष निरन्तर साधनारत पी रहे,

मर्म जो कौरव न समझे, मानसिक क्रन्दन बताओ,

भीष्म उठ निर्णय सुनाओ ।

 

महाभारत के समर का आदि तुम आरोह तुम,

और अपनी ही बतायी मृत्यु के अवरोह तुम,

भीष्म ली तुमने प्रतिज्ञा, भीष्मसम मरना चुना,

व्यक्तिगत कुछ भी नहीं तो क्यों जटिल जीवन बुना,

चुप रहे क्यों, चाहते जब लोग भीषणता दिखाओ,

भीष्म उठ निर्णय सुनाओ ।

 

ध्वंस की रचना समेटे तुम प्रथम सेनाप्रमुख,

कृष्ण को भी शस्त्र धर लेने का तुमने दिया दुख,

कौन तुमको टाल सकता, थे तुम्हीं सबसे बड़े,

ईर्ष्यायें रुद्ध होती, बीच यदि रहते खड़े,

सृजन हो फिर नया भारत, व्यास को फिर से बुलाओ,

भीष्म उठ निर्णय सुनाओ ।


(बहुत पहले मानसिक हलचल पर लिखी थी। भीष्म के प्रसंग पर पुनः प्रस्तुत कर रहा हूँ)

भीष्म प्रतिज्ञा करते हुये देवव्रत  (चित्र साभार - https://ritsin.com/ )


22.7.21

भीष्म के प्रश्न

 

महाभारत के पात्रों में संभवतः भीष्म का चरित्र सर्वाधिक जटिल रहा होगा। जिस तरह की घटनायें उनकी चार पीढ़ियों लम्बे और पूरे जीवन काल में आयीं, उतना वैविध्य और वैचित्र्य कहीं और देखने को नहीं मिलेगा। वैसे तो महाभारत का पूरा कथाखण्ड अत्यधिक रोचक और प्रवाहपूर्ण है, पर उस पर भी शिलाखण्ड से खड़े और सब देख रहे भीष्म विशिष्ट हो जाते हैं।


हमारा जीवन यदि सामान्य भी हो, तो भी कई ऐसे प्रश्न रहते हैं जिनका उत्तर हमें जीवन भर कचोटता है। स्वाभाविक है कि भीष्म के इतने दीर्घजीवन में भी प्रश्न होंगे जिनके उत्तर उन्होंने स्वयं ही ढूढ़े होंगे और उन पर लिये निर्णयों पर मनन किया भी होगा। फिर भीष्म से प्रश्न क्यों?


महाभारत के जानकारों का भीष्म से सबसे बड़ा प्रश्न यह रहता है कि यदि वह ठान लेते तो महाभारत टाला जा सकता था।


गुरुचरणदास की पुस्तक “डिफिकल्टी आफ बीइंग गुड” में पढ़ा था कि महाभारत के तीन कारण हैं। शान्तनु का काम, दुर्योधन की ईर्ष्या और द्रौपदी का क्रोध। शान्तनु का काम भीष्म-प्रतिज्ञा का कारण बना। दुर्योधन की ईर्ष्या पाण्डवों को पाँच गाँव भी न दे सकी। द्रौपदी का क्रोध विनाश पत्र के ऊपर अन्तिम हस्ताक्षर था।


यदि ऐसा था तो सारे प्रश्न भीष्म से क्यों? मेरा फिर भी यह मानना है कि भीष्म युद्ध रोक सकते थे।


आठ वसुओं में बड़े, पत्नियों के मनोविनोद में वशिष्ठ की गाय नन्दिनी की चोरी, मनुष्य योनि में जन्म लेने के लिये वशिष्ठ का श्राप, अनुनय विनय और पश्चाताप, शेष सात को शीघ्र ही मुक्ति पर भीष्म को पूर्ण जीवन के भोग का आदेश। इस पूर्वकथा के बाद प्रारम्भ हुआ शेष महाभारत और भीष्म का वृत्तान्त। माँ गंगा ७ पूर्वपुत्रों को जन्म लेते ही गंगा में प्रवाहित कर मुक्त कर देती है। आठवें में शान्तनु से रहा नहीं जाता, भीष्म बच जाते हैं पर माँ चली जाती है।


एक दुर्धर्ष योद्धा और धर्म के विशेषज्ञ के रूप भीष्म बड़े होते हैं। सारे राज्य को यह आस रहती है कि अगले महाराज अपने प्रताप से राज्य विस्तारित करेंगे और धर्मध्वजा फहरायेंगे। यहाँ तक की यात्रा को यदि प्रारब्ध मान लें तो इसके बाद प्रारम्भ होती है भीष्म की निर्णय यात्रा। प्रश्न इस पर उठते हैं। अधिक चर्चा न कर बस प्रश्न लक्षित करूँगा।


  1. पिता शान्तनु का विवाह नियत करने भीष्म सत्यवती के यहाँ जाते हैं। सत्यवती के पिता की आशंका के लिये पहले राज्य न लेने का प्रण लिया और आगामी पीढ़ी में कोई संघर्ष न हो, इसके लिये विवाह न करने की भीष्म प्रतिज्ञा भी ले डाली। भला कौन पिता अपने समर्थवान पुत्र से अपने काम के लिये इस प्रकार के त्याग की अपेक्षा करता है? पूर्व में दशरथ मात्र ऐसे पिता हुये जिनके ऊपर अयोध्यावासी, लक्ष्मण और एक स्थान पर राम द्वारा भी यह आक्षेप लगा कि उन्होंने अपने काम के लिये अपने सर्वसमर्थ, आज्ञाकारी और योग्य पुत्र की तिलांजलि दे दी।
  2. अपने सौतेले भाईयों के विवाह के लिये काशी नरेश की तीन पुत्रियों का अपहरण किया जबकि अम्बा ने कह दिया था कि वह शाल्व को पति मान चुकी है। अपना जीवन त्याग कर वही अगले जन्म में शिखण्डी बनी और भीष्म की पराजय और मृत्यु का कारण भी।
  3. जब विचित्रवीर्य सन्तान उत्पन्न न कर सके तो नियोग के लिये सबसे पहले भीष्म को कहा गया। तब भी भीष्म ने मना कर दिया। अन्ततः माँ सत्यवती ने अपनी पूर्वप्रसंग से उत्पन्न पराशर के पुत्र वेदव्यास को इस कार्य के लिये आदेशित किया। कुरूप और कृष्ण वर्ण के व्यास के सामने एक रानी अपनी आँख भी न खोल सकी और अंधे पुत्र धृतराष्ट्र को जन्म देती है। दूसरी भय से पीली पड़ जाती है और नपुंसक पुत्र पांडु की माँ बनती है।
  4. धृतराष्ट्र के लिये गांधारी का चयन किया पर उसे पति के अंधेपन के तथ्य से अनिभिज्ञ रखा। जिससे विक्षुब्ध हो उसने जीवन भर के लिये अपनी आँखों पर पट्टी बाँध ली। नपुंसकता के तथ्य को जानते हुये भी पांडु से कुंती और माद्री का विवाह कराया। पांडव तो नियोग से उत्पन्न हो गये पर पांडु के प्राण माद्री के कारण चले गये।
  5. द्रौपदी के चीरहरण के समय शान्त रहे। विदुर के द्वारा कठोर स्वर उठाने के बाद भी धर्म के बारे में कोई भीरु सा ज्ञान उड़ेल कर सर झुकाये बैठे रहे। क्या उस समय भीष्म की एक हुंकार सारा दुष्कृत्य रोक न देती?
  6. महाभारत होने दिया। कृष्ण के पाँच गाँव के प्रस्ताव पर भी दुर्योधन की हठधर्मिता को सहन कर लिया। न्याय, धर्म और नीति के किस पड़ले पर यह प्रस्ताव अनुचित था?
  7. प्रथम सेनापति बन गये। यद्यपि दुर्योधन कर्ण को सेनापति बनाना चाहता था पर वृद्ध होने के कारण इनसे पूछने गया। वय ९० के ऊपर होने पर भी अपने पौत्रों से युद्ध को तत्पर हो गये। चाहते तो अपने आप को निवृत्त भी कर सकते थे।
  8. अपने प्रिय पाण्डवों से लड़े पर अर्धमना हो। दुर्योधन सदा ही यह कह कर उकसाता रहा कि आप अर्जुन को अधिक चाहते हैं। अर्जुन भी अपने पितामह पर प्रहार न कर सका। दस दिन तक युद्ध खिंचा। भीष्म और अर्जुन, दोनों ही ने अपना क्रोध और क्षोभ शेष शत्रु सेना पर निकाला।
  9. महाभारत के कई पात्र समय आने पर मुख्य मंच से निकल कर नेपथ्य पर चले गये पर भीष्म टिके रहे। अपनी प्रतिज्ञा का दंश झेलते रहे, अपने प्रथम निर्णय का भार उठाये जीते रहे।


यद्यपि मूल महाभारत नहीं पढ़ी है पर नरेन्द्र कोहली की श्रृंखला और अन्य लेखकों के कई पात्रों पर लिखी हुयी पुस्तकें पढ़ी हैं। भीष्म को मानवीय दृष्टिकोण से समझना दुरूह है। पता नहीं कौन सा लौह भरा था उस हृदय में? भीष्म कुरुवृद्ध थे और एक परिवार में एक वृद्ध की इच्छा रहती है कि सब मिल जुल कर रहें। अन्य वृद्ध तो विवशता में या संतानों के हठ में निराश हो जाते हैं पर भीष्म में कौन सी विवशता और कौन सा नैराश्य?


आजकल समाज के वृद्ध तो समाज जोड़ने के स्थान पर स्वार्थ के लिये समाज को तोड़ने में तत्पर हैं। अंग्रेजों से हम कुछ सीखे न सीखे, यह घृणित और कुटिल चाल अवश्य सीख चुके है। पर भीष्म तो कुल का, समाज का, राज्य का, धर्म का, सबका ही हित चाहते थे, तब उनके सामने कौन सी विवशता थी जिसने महाभारत सा सर्वविनाशक युद्ध हो जाने दिया?


प्रश्न अनुत्तरित हैं।




2.2.11

विदुर स्वर

महाभारत का एक दृश्य जो कभी पीछा नहीं छोड़ता है, एक दृश्य जिस पर किसी भी विवेकपूर्ण व्यक्ति को क्रोध आना स्वाभाविक है, एक दृश्य जिसने घटनाचक्र को घनीभूत कर दिया विनाशान्त की दिशा में, एक दृश्य जिसका स्पष्टीकरण सामाजिक अटपटेपन की पराकाष्ठा है, कितना कुछ सोचने को विवश कर देता है वह दृश्य।

राजदरबार जहाँ निर्णय लिये जाते थे गम्भीर विषयों पर, बुद्धि, अनुभव, ज्ञान और शास्त्रों के आधार पर, एक परम-भाग्यवादी खेल चौपड़ के लिये एकत्र किया गया था। विशुद्ध मनोरंजन ही था वह प्रदर्शन जिसमें किसी सांस्कृतिक योग्यता की आवश्यकता न थी, भाग लेने वालों के लिये। आमने सामने बैठे थे भाई, राज परिवार से, जिन्हें समझ न थी कि वह किसके भविष्य का दाँव खेल रहे हैं क्योंकि योग्यता तो जीत का मानक थी ही नहीं। जिस गम्भीरता और तन्मयता से वह खेल खेला गया, राजदरबारों की आत्मा रोती होगी अपने अस्तित्व पर।

जीत-हार के उबड़खाबड़ रास्तों से चलकर बढ़ता घटनाक्रम जहाँ एक ओर प्रतिभागियों का भविष्य-निष्कर्ष गढ़ता गया, वहीं दूसरी ओर दुर्भाग्य की आशंका से उपस्थित वयोवृद्धों दर्शकों का हृदय-संचार अव्यवस्थित करता गया। सहसा विवेकहीनता का चरम आता है, अप्रत्याशित, द्रौपदी को युधिष्ठिर द्वारा हार जाना और दुर्योधन का द्रौपदी को राजदरबार लाये जाने का आदेश।

मौन-व्याप्त वातावरण, मानसिक स्तब्धता, एक मदत्त को छोड़ सब किंकर्तव्यविमूढ़, पाण्डवों के अपमान की पराकाष्ठा, भीम का उबलता रक्त, न जाने क्या होगा अब? सर पर हाथ धर बैठे राजदरबार के सब पुरोधा। सिंहासन पर बैठा नेतृत्व अपनी अंधविवशता को सार्थक करता हुआ।

एक स्वर उठता है, विदुर का, दासी-पुत्र विदुर का, पराक्रमियों के सुप्त और मर्यादित रक्त से विलग। यदि यह स्वर न उठता उस समय, महाभारत का यह अध्याय अपना मान न रख पाता, इतिहास के आधारों में, निर्भीकता को भी आनुवांशिक आधार मिल जाता। सत्यमेव जयते से सम्बन्धित पृष्ठों को शास्त्रों से हटा दिया जाता दुर्योधन-वंशजों के द्वारा। ऐसे स्वर जब भी उठते हैं, निष्कर्ष भले ही न निकलें पर आस अवश्य बँध जाती है कोटि कोटि सद्हृदयों की। सबको यही लगता है कि भगवान करे, सबके सद्भावों की सम्मिलित शक्ति मिल जाये उस स्वर को।

विदुर का क्या अपनी मर्यादा ज्ञात नहीं थी? क्या विदुर को भान नहीं था कि दुर्योधन उनका अहित कर सकता है? क्या विदुर को यह ज्ञान नहीं था कि उनका क्रम राजदरबार में कई अग्रजों के पश्चात आता है? जहाँ सब के सब, राजनिष्ठा की स्वरलहरी में स्वयं को खो देने के उपक्रम में व्यस्त दिख रहे थे, यदि विदुर कुछ भी न कहते तब भी इतिहास उनसे कभी कोई प्रश्न न पूछता, उनके मौन के बारे में। इतिहास के अध्याय, शीर्षस्थ को दोषी घोषित कर अगली घटना की विवेचना में व्यस्त हो जाते।

ज्ञान यदि साहसविहीन हो तो ज्ञानी और निर्जीव पुस्तक में कोई भेद नहीं।

महाभारत के इस दृश्य का महत-दुख, विदुर के स्पष्ट स्वर से कम हो जाता है। हर समय बस यही लगता है कि हाथ से नियन्त्रण खोती परिस्थितियों को कोई विदुर-स्वर मिल जाये। यह स्वर समाज के सब वर्गों का संबल हो और सभी इस हेतु सबल हों।

इतिहास आज आस छोड़ चुका है, अपने अस्तित्व पर अश्रु बहाने का मन बना चुका है। अब तक तो भीष्म ही निर्णय लेने से कतरा रहे थे, सुना है, विदुर भी अब रिटायर हो चुके हैं।