16.10.21

राम का निर्णय(संवेदना)

 

राम वन को चल दिये। नगरवासी उनके साथ रहने का निश्चय कर पीछे चलने लगे। राम ने आगामी रात्रि में ही सबको सोता हुआ छोड़कर चुपचाप अपनी यात्रा में बढ़ जाने का निश्चय किया। श्रृंगवेरपुर में मित्र निषादराज से भेंट करने के बाद राम प्रयागराज में मुनि भरद्वाज के आश्रम में गये और उनके सुझाने पर चित्रकूट में आकर रहने लगे।


इघर अयोध्या में अतिशय मानसिक पीड़ा और आत्मग्लानि के बोध से भरे राज दशरथ का माँ कौशल्या के महल में ही देहावसान हो गया। भरत को कैकेय से यथाशीघ्र बुलाया जाना, पिता की सकारण मृत्यु और भैया राम का वनगमन, स्वयं को दोनों का कारण मानना, अतीव लज्जा और क्रोध के भाव से अपनी माँ को धिक्कारना, भैया राम को लाने के लिये चित्रकूट के लिये सेना सहित प्रयाण करना, कथा का गतिक्रम चलता रहता है।


इस बीच राम के द्वारा लिये हुये वनगमन के निर्णय के बारे में पक्ष और प्रतिपक्ष के तर्क अवसान पा जाते हैं। सब शोकमना हो स्वीकार ही कर लेते हैं कि राम ने उचित किया। चित्रकूट प्रवास के प्रथम दिन राम पिता दशरथ को लेकर तनिक व्याकुल होते हैं और लक्ष्मण से आग्रह करते हैं कि वह वापस अयोध्या जायें और पिता का ध्यान रखें। विचार श्रृंखला के क्रम में यह बात उठती है कि किस प्रकार पिता परवश होते हैं और अपने आज्ञाकारी पुत्र के वनगमन के वर को स्वीकार कर लेते हैं। पिता की यह मनःस्थिति लक्ष्मण को उनकी सहायता हेतु वापस लौट जाने के लिये कही जाती है। यद्यपि लक्ष्मण सविनय मना कर देते हैं पर राम के हृदय की पीड़ा और अन्याय का निहित भाव राम के विलाप से व्यक्त होता है।


चित्रकूट से चलने के बाद एक अन्य प्रकरण में जब राक्षस विराध ने सीता को उठा लिया था तब सीता को भय से काँपते हुये देख राम की पीड़ा पुनः छलकी। उन्हें अकारण ही दुख देने के कैकेयी के मन्तव्य को कहते हुये तब राम कहते हैं। वन में हमारे लिये जिस दुख की प्राप्ति कैकेयी को अभीष्ट थी, वह आज दिख रहा है। संभवतः तभी वह मात्र भरत के लिये राज्य पाकर संतुष्ट नहीं हुयी। समस्त प्राणियों का प्रिय होने पर भी मुझको वन भेज दिया, लगता है माँ कैकेयी का मनोरथ आज सफल हुआ। राज्य के अपहरण और पिता की मृत्यु से मुझे उतना कष्ट नहीं हुआ जितना विदेहनन्दिनी को राक्षस के स्पर्श करने से हुआ। कैकेयी के कृत्य से राम दुखी थे, क्षुब्ध भी पर अपने वनगमन के निर्णय पर उनको कभी संशय नहीं रहा।


राम जानते थे कि धर्म का पालन सरल नहीं होता है। सरल विकल्प भी थे पर उन्होंने वन जाना सहर्ष स्वीकार कर लिया। यह अत्यन्त कठिन विकल्प था। परिवार का बिखराव, पिता का देहान्त, दो भाइयों का वन में भ्रमण, जनककुमारी को वन के कष्ट, भरत का अग्रज की भाँति ही तापस वेष में ग्राम से ही राज्य का संचालन, नगरवासियों का अपार दुख, विकल्प अत्यन्त कठिन था। मात्र कैकेयी और उसकी दासी प्रसन्न थी। वह सीमित प्रसन्नता भी पुत्र भरत का स्नेह खोकर दुख में बदल गयी। सरल विकल्प होता कि लक्ष्मण की मन्त्रणानुसार राम राज्य का अधिग्रहण कर लेते तो कैकेयी को छोड़ कर सब प्रसन्न रहते।


इतने लोगों को कष्ट देने का विकल्प राम ने क्यों चुना? यद्यपि राम स्वयं ही वन जाकर समस्या का निदान करते हुये प्रतीत हुये, पर उन्हें इस बात का भान तो था कि किस प्रकार सब अस्तव्यस्त हो जायेगा। यद्यपि राजपरिवार के स्थायित्व पर पहला कठोर प्रहार माँ कैकेयी का था पर क्या राम शेष अस्तव्यतता रोक सकते थे। क्या सत्य का मार्ग परिवार, समाज, नगर आदि के कष्टों से भी बढ़कर था?


व्यवहारिकता के परिप्रेक्ष्य में लक्ष्मण के विचार अत्यन्त तर्कसंगत लगते हैं। गुरु वशिष्ठ का सीता को युवराज्ञी बनाने के लिये धर्मसम्मत व्याख्या करना, पिता को स्वयं को कारागार में डाल देने को प्रस्तुत होना, माँ कौशल्या का वन न जाने की प्रत्याज्ञा देना, इन सबके ऊपर राम ने वनगमन को चुना। पिता को न कभी दोषमुक्त किया, न कभी अपने वनगमन का दोष ही दिया।


प्रयास और प्रभाव की दृष्टि से पुरुषार्थों में काम तात्कालिकता का द्योतक है, अर्थ का क्षेत्र तनिक बड़ा होता है, धर्म का कालखण्ड विस्तृत होता है और मोक्ष का अपरिमित। राम ने काम और अर्थ की तुलना में धर्म को चुना। दीर्घकालिक दृष्टि और सैद्धान्तिक आग्रह के मार्ग में यदि कष्ट आये तो राम ने सहे।


भरत के चित्रकूट आगमन पर वनगमन पर एक बार पुनः विस्तृत चर्चा हुयी। भरत, वशिष्ठ, जाबालि ने अपने विचारों को प्रस्तुत किया पर राम ने सबका शमन किया और पिता की आज्ञा को ही सर्वोपरि मानने का ही निश्चय किया। पिता की परवशता, अयोध्या का कल्याण, कुलपरम्परा, नास्तिकता के सिद्धान्त और धर्म के व्यवहारिक पक्ष को अस्वीकार करते हुये राम अपने निर्णय पर दृढ़ रहे। समस्त अयोध्या की प्रार्थना और करुणामयी आग्रह पर भी राम विचलित नहीं हुये। अन्ततः भरत का मान रखते हुये उन्होंने अपनी खड़ाऊँ दे दी जिन्हें भरत ने प्रतीक बनाकर तापस वेष में ही चौदह वर्ष तक शासन किया।


राम के वनगमन का प्रकरण और सम्बन्धित संवाद राम के वैशिष्ट्य और प्रखर निर्णय प्रक्रिया को व्याख्यायित करते हैं। वर्तमान में राम सर्वपूजनीय हैं पर उस समय की कल्पना कीजिये कि १८ वर्ष का एक युवा राजकुमार जो कि अपनी सामर्थ्य ताड़का वध और शिवधनुष भंग कर स्थापित कर चुका था, सहसा सब त्यागकर वन चला जाता है। उस काल के जनों में राम का सम्मान कितना बढ़ गया होगा? कालान्तर में राक्षस उन्मूलन, संगठनशक्ति और रावणवध के पश्चात उनका राजा बनना सबके लिये अत्यन्त उत्साह और हर्ष का विषय होगा। रामराज्य के उत्कर्ष और राम के व्यक्तित्व से संलग्न इतिहास ने ही वाल्मीकि को प्रेरित किया होगा कि वह राम का चरित्र आने वाली पीढ़ियों के लिये संरक्षित करें।


राम को वाल्मीकि ने एक संवेदित राजकुमार के रूप में प्रस्तुत किया है जिसने अपने निर्णयों से अपना उत्कृष्ट उत्कर्ष गढ़ा। ऐसा उदाहरण प्रस्तुत किया जो असामान्य था। जब केवल वनगमन के निर्णय पर ही अध्याय लिखे जा सकते हैं तो राम का सम्पूर्ण चरित्र कितना अनुकरणीय होगा, उसकी कल्पना करना कठिन है। मेरे राम मुझे शक्ति दें कि उनके वनगमन से आज भी जो दुख मेरे मन में व्याप्त है, उसका निवारण कर सकूँ। जय श्री राम।

3 comments:

  1. श्रीराम पर एक संक्षिप्त किन्तु मग्र चिन्तन।

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  2. वाल्मीकि और कालांतर में तुलसी के प्रति आदर की कोई सीमा नहीं. आखिर राम - जिनके आदर्श का हम पग पग पर हवाला देते हैं, इन संतों ने ही तो सृजित किए! जय हो!

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