12.10.21

राम का निर्णय (वचन या आज्ञा)


गुरु वशिष्ठ, पिता दशरथ और सब माताओं को वहाँ एकत्र देख राम ने हाथ जोड़कर प्रणाम करते हुये कक्ष में प्रवेश किया। पीछे सीता और अन्त में लक्ष्मण भी सबकी दृष्टि में आकर खड़े हो गये। राम को इस प्रकार नत भाव से आता देख राजा दशरथ व्याकुल हो उठे। राम की ओर दौड़े पर राम तक पहुँच पाने के पहले ही मूर्च्छित होकर गिर गये। यह देख राम शीघ्रता से पिता के पास पहुँचे हैं और सहारा दिया। लक्ष्मण ने भी हाथ बढ़ाया और सीता भी निकट आ गयीं। उपस्थित सभी लोग यह दृश्य देखकर “हा राम हा राम” बोल कर चीत्कार कर उठे। करुण वातावरण और पिता की यह स्थिति देख राम की आँखों में अश्रु उमड़ आये। लक्ष्मण और सीता के साथ राम ने पिता को दोनों हाथों से उठाया और शैय्या पर लिटाया। प्रतीक्षा के कुछ क्षणों बाद जब दशरथ को चेत आया, राम ने हाथ जोड़कर पिता से कहा।


पिताजी, मुझे दण्डकारण्य जाने की आज्ञा दीजिये। अनुज लक्ष्मण को भी अनुमति दीजिये और यह स्वीकार कीजिये कि सीता भी मेरे साथ वन जायें। मैंने चेष्टा अवश्य की पर ये दोनों यहाँ नहीं रुकना चाह रहे हैं। जैसे ब्रह्माजी ने अपने पुत्र सनकादिक मुनियों को वन जाने की आज्ञा दी थी, वैसे आप हम सबको प्रस्थान करने की आज्ञा दीजिये।


दशरथ स्तब्ध थे। एक पुत्र के जाने का शोक उनसे सम्हाला नहीं जा रहा था। प्रातः से ही लज्जा के कारण उनके मुख से एक भी शब्द नहीं निकल पा रहा था। “हा राम” के अतिरिक्त सारे शब्द अश्रु बन कर बह रहे थे। शोक संतप्त राजा कक्ष में बैठे प्रातः से बस यही मना रहे थे कि कोई चमत्कार हो जाये और राम का वन जाना रुक जाये। अब आँखों के सम्मुख सीता और लक्ष्मण भी वन जाने को प्रस्तुत खड़े हैं। सीता वन में कैसे रहेगी? क्या हो गया है राम को? निराशा की इस पराकाष्ठा में राम के प्रति उनके प्रथम शब्द निकलते हैं। यद्यपि शब्द आज्ञा से थे पर उसमें स्वर प्रार्थना सा था।


हे रघुनन्दन, मैं कैकेयी को दिये गये वर के कारण मोह में पड़ गया हूँ। मुझे कारागार में डालकर तुम स्वयं ही अयोध्या के राजा बन जाओ।


राम आज्ञा की प्रतीक्षा कर रहे थे और आशा कर रहे थे कि अपना शोकयुक्त मौन छोड़ पिता दशरथ कुछ कहें। पिता अपनी आत्मग्लानि से निकलें और अपने राम के निर्णय का सम्मान करें। यद्यपि मन में राम ने यह निश्चय कर लिया था कि यदि राजा कुछ नहीं कहते हैं तो “मौनं स्वीकृति लक्षणं” का संकेत ग्रहण करते हुये वह पिता की परिक्रमा कर वन को चले जायेंगे। पिता ने साहस किया या उनका शोक घनीभूत हो शब्द पा गया, पर यह कौन सी आज्ञा है? पिता सबके सम्मुख यह क्या कह रहे हैं? पिता यह क्या आज्ञा दे रहे हैं?


वनगमन का पूर्ण आधार पिता की आज्ञा का अनुपालना थी। यह तर्क कौशल्या और लक्ष्मण से हुये संवादों में बारम्बार व्यक्त भी हुआ था। पिता यह कौन सा आग्रह कर रहे हैं, स्वयं को कारागार में डाल देने का? आत्मग्लानिजनित दैन्यता का दूसरा स्वरूप पिता दशरथ द्वारा व्यक्त था। गत रात्रि से शोक लहर में बहते हुये पिता दशरथ अभी तक सामान्य नहीं हो पाये हैं। राम बिना कुछ अधिक बोले शीघ्रातिशीघ्र वन के लिये निकल जाना चाह रहे थे। पहले माँ कौशल्या, तत्पश्चात लक्ष्मण और सीता के द्वारा विलम्ब हो चुका था, अब स्वयं पिता दशरथ यह भ्रमपूर्ण वचन बोल रहे थे।


कक्ष में सबका ध्यान राजा दशरथ की मूर्च्छा पर था, राम के आज्ञा माँगने पर था। दशरथ का यह कहना सबको अचम्भित कर गया। सबका मुख अब आश्चर्य से राम की ओर था। राम पिता की इस आज्ञा का क्या उत्तर देते हैं? राम इस प्रश्न का क्या समाधान करते हैं? पिता के जिस वचन पर राम ने अपना पूर्व निर्णय आधारित किया था, उसके विपरीत संकेतों को अब राम अपने निर्णय में कैसे समाहित करेंगे? दो विपरीत आज्ञाओं में कौन सी आज्ञा किस कारण करणीय है, कक्ष में सब जानने को उत्सुक थे। कक्ष में व्याप्त शोक के सागर में संभावना का एक अंश दिखा था, सब अपना दुख क्षणभर को भुला राम की ओर देख रहे थे। सत्य के किस स्वरूप का ग्रहण करेंगे राम? किस सिद्धान्त पर राम निष्कर्ष प्रतिपादित करेंगे? पिता के वर्तमान वचनों का मान रखेगें या दशकों पूर्व दिये वरों का मोल रहेगा? सत्य रहेगा या वचन मात्र?


राम दशरथ के कथन का मर्म समझ गये थे। कथन के पूर्व चरण में यद्यपि पिता ने उसमें कैकेयी के दिये वरों के मोह का संदर्भ दिया था किन्तु उत्तर पक्ष में पिता का राम के प्रति मोह झलक रहा था। मोह कथन के दोनों भागों में था, पूर्व में कैकेयी के प्रति, उत्तर में राम के प्रति। मोह के ये दोनों आवरण पिता की दो मनःस्थिति और तज्जनित दो आज्ञाओं के मूल कारण थे। इस भ्रम से परे राम को सत्य का वरण करना था, निर्णय लेना था।


राम ने सविनय हाथ जोड़े और पिता से कहा। पिता आप सहस्रों वर्षों तक राज्य करें, मैं अब वन में रहूँगा। चौदह वर्ष व्यतीत होने पर पुनः आपके युगल चरणों में मस्तक झुकाऊँगा। आप क्षुब्ध न हों, आप आँसू न बहायें, सरितायें मिलने पर भी समुद्र अपनी मर्यादा नहीं लाँघता। मुझे न इस राज्य की, न सुख की, न पृथ्वी की, न भोगों की, न स्वर्ग की और न जीवन की ही इच्छा है। मेरे मन में यदि कोई इच्छा है तो यही कि आप सत्यवादी रहें। आपका कोई वचन मिथ्या न हो पाये। यह बात मैं आपके सामने सत्य और शुभकर्मों की शपथ खाकर कहता हूँ। राम ने स्पष्ट शब्दों में वातावरण में व्याप्त क्षणिक अनिश्चितता को विराम दे दिया था। साथ ही विनम्रतापूर्वक पिता के वचनों का मान भी रख लिया था।


राजा दशरथ राम का मुख देखे जा रहे थे। यह विचार कि चौदह वर्ष तक वह राम का मुख नहीं देख पायेंगे, उन्हें व्याकुल किये जा रहा था। कातर भाव में दशरथ पुनः बोले। राम, मेरे साथ छल हुआ है। उस विषम परिस्थिति में भी तुमने ज्येष्ठ पुत्र का कर्तव्य निभाया है। मैं यह भी जानता हूँ कि तुम्हारा निश्चय अडिग है। मेरा एक आग्रह स्वीकार कर लो कि आज रात्रि भर विश्राम करके प्रातः वन चले जाना। मैं तुम्हें जी भर कर देख लूँ। सत्य के बन्धन में और कैकेयी के कटु वचनों की बाध्यता के बीच महाप्रतापी दशरथ की दैन्यता तुच्छ सी प्रार्थना पर आकर रुक गयी थी। राम यह तथ्य जानते थे। पिता के मन की कातरता को विश्राम देना आवश्यक था, वह दशरथ को और संकुचित होते नहीं देख सकते थे। माँ कैकेयी को राम आज ही वन जाने का वचन दे चुके थे। इस परिप्रेक्ष्य में उन्हें पिता का यह आग्रह भी वचन की अवमानना लग रहा था। अत्यन्त कोमल स्वर में राम ने कहा।


पिताजी, आपके सत्य के प्रतिपालन में मैंने तत्क्षण राज्य त्यागकर वनगमन के लिये प्रस्थान कर दिया था। शेष आज्ञायें लेने और सुहृदों को सूचित करने में यथासम्भव शीघ्रता करने में जो विलम्ब हुआ है, उसके लिये मुझे आप और माँ कैकेयी क्षमा करें। वनगमन के लिये प्रस्तुत होकर एक क्षण भी अयोध्या में रुकने का विचार करना मर्यादाओं का उल्लंघन है। मैंने आज ही वनगमन जाने का वचन दिया है, मुझे उसका पालन करने में आशीर्वाद और शक्ति दें और अपना शोक भीतर छिपा लें। मैं अपने निश्चय के विपरीत कुछ नहीं कर सकता। आपकी प्रतिज्ञा सत्य हो।


दशरथ ने राम को भींच कर हृदय से लगा लिया। राम ने सदा ही उनको सुख दिया है और अपना नाम सार्थक किया है। दशरथ के अश्रु अनवरत बहे जा रहे थे। हृदय को अद्भुत सी शान्ति दे रहा था राम का स्पर्श। कैकेयी की कुटिल अग्नि में दग्ध दशरथ का हृदय राम के आचरण से शीतल हो गया था। शोक में था पर स्वीकार कर शान्त हो गया था। दशरथ को समय की सुध न रही, इस शान्ति में वह कब अचेत हो गये, उन्हें किसी की सुध न रही।

1 comment:

  1. शानदार लेखन! मैं पूरी तरह सहमत नहीं पर इस विषय पर सहमति असहमतियों का कोई खास महत्व नहीं है.
    Simply outstanding writing!

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