26.7.14

यादें

हैं अभी तक शेष यादें 

सोचता सब कुछ भुला दूँ,
अग्नि यह भीषण मिटा दूँ 
किन्तु ये जीवित तृषायें,
शान्त जब सारी दिशायें,
रूप दानव सा ग्रहण कर,
चीखतीं अनगिनत यादें ।।

कभी स्थिर हो विचारा,
शमित कर दूँ वेग सारा 
किन्तु जब भी कोशिशें की,
भड़कती हैं और यादें ।।

17 comments:

  1. स्मृतियाँ ऐसी ही होती हैं....

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  2. दुखद स्मृतियाँ ऐसी ही होती है. सुंदर रचना.

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  3. इंसान साथ छोड़ दें लेकिन यादें ताउम्र साथ निभाने हेतु काफी होती हैं ....
    बहुत बढ़िया

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  4. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (27-07-2014) को "संघर्ष का कथानक:जीवन का उद्देश्य" (चर्चा मंच-1687) पर भी होगी।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  5. गजब की छंद बद्ध रचना

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  6. जैसे राख में छुपी आग
    वैसे ही मन में छुपी याद ,,,,,हवा लगते ही और तेज हो जाता है ,सुन्दर अभिव्यक्ति |
    अच्छे दिन आयेंगे !
    सावन जगाये अगन !

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  7. यादें ऐसी ही होती हैं .. बार बार लौट के आती हैं ज्यादा वेग से ...

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  8. बेहतरीन

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  9. शमन भड़काने का ही काम करता है ।

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  10. भूलना असान नहीं होता

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  11. श्रीमान आज कल लेख (गद्य) नहीं लिखते हैं । आप के ज्ञानवर्धक लेख की अपेक्षा रहती है ।

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  12. भावपूर्ण चित्रण

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  13. भूली बिसरी बातें।

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  14. दुनिया भर की यादें हमसे मिलने आती हैं। शाम ढले इस सूने घर में मेला लगता है.

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  15. ऐसी ही जिद्दी होती हैं यादें.

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