7.12.13

कल्याणी

आपदा प्रबन्धन की एक परिचर्चा में गया था। आपदा प्रबन्धन का विषय भारत के लिये गंभीर होता जा रहा है। आपदा के बाद किस तरह से जनजीवन की रक्षा की जाये, किस तरह से पूर्वसंकेतों को पढ़ा जाये और क्या तैयारी करके रखी जाये, ये परिचर्चा के प्रमुख विषय थे। परिचर्चा बड़ी रोचक थी और अन्य व्यस्ततायें होने के बाद भी वहाँ से उठकर आना संभव नहीं हुआ। कितने पहले से कितनी तैयारी करके रखी जाये, क्या संसाधन सीमित समय में जुटाये जायें, इस पर मतभिन्नता स्वाभाविक थी। मतभिन्नता इसलिये कि कुछ मानते थे कि पहले से इतनी तैयारी करके रखी जाये कि आपदा के समय कम सोचना पड़े, कुछ मानते थे कि आपदा की दृष्टि से संसाधन जुटाकर रखना संसाधनों को व्यर्थ करने जैसा होगा, क्यों न हम निर्धारित करें कि आपदा के संकेतों के अनुसार हम संसाधन जुटायें।

इस तरह की कई परिचर्चायें हुयीं। उत्तराखंड में आयी बाढ़ और उड़ीसा में आये चक्रवात, हमारी स्मृतियों में अभी तक जीवित थे। उनसे जो भी सीखने को मिला, वे आगामी आपदाओं में हमें दृढ़ रखेंगे। निश्चय ही हम अनुभव के आधार पर ही सीखते हैं और तब अधिक सीखते हैं, जब पीड़ा गहरी होती है। हमारी सामान्य बुद्धि को आश्चर्य तब अधिक होता है जब हम नये को अपनाने की व्यग्रता और मूढ़ता में सदियों पुरानी बुद्धिमत्ता को तिलांजलि दे बैठते हैं।

बात बाढ़ और सूखे की चल रही थी, वक्ता डॉ विश्वनाथ थे, कर्नाटक में आई ए एस, बागलकोट और कोलार के पूर्व डीएम। यद्यपि उनसे व्यक्तिगत भेंट नहीं हो पायी, पर उनके अनुभवों ने प्रभावित अवश्य किया। उन्होंने बागलकोट में आयी बाढ़ और कोलार में पड़ने वाले सूखे के बारे में चर्चा की। जहाँ बाढ़ जैसी आपदा चार-पाँच दिनों में ही आ जाती है हमें सोचने के लिये पर्याप्त समय नहीं मिल पाता है, वहीं सूखे जैसी आपदा हमारे सामाजिक कुप्रबन्धन के इतिहास की गाथायें भी कह सकती है। उदाहरण कोलार का लिया जा सकता है पर बात पूरे भारतीय समाज पर ही लागू होती है।

कोलार में सूखे की समस्या है, पेयजल तक की गम्भीर समस्या है, कारण कम वर्षा भी है। यहाँ तक कि कुओं का जलस्तर १२०० से १६०० फीट तक चला गया है। इतनी बोरिंग के बाद भी पानी निकले, इसकी संभावना घटती जा रही है। रेलवे ने भी वहाँ कभी कई ट्रेनों में पानी भरने की व्यवस्था कर रखी थी पर पानी की कमी के कारण उसे बहुत वर्ष पहले छोड़ देना पड़ा है। सैकड़ों गावों और नगरीय क्षेत्रों में टैंकर से पानी भेजना पड़ता है। पहले यही समस्या और गहरी और व्यापक थी।

समस्या से जूझने वाले उसके मूल में जाते हैं, उस समय से पीछे जाना प्रारम्भ करते हैं जहाँ से समस्या प्रारम्भ होती है। इतिहास में झाँकते हैं, वे कालखण्ड देखते हैं जब सूखे की समस्या नहीं थी। वे तात्कालिक कारण देखते हैं, जो समस्या के मूल में थे। साथ ही उन उपायों को देखते हैं जिससे समस्या का कारण निष्प्रभावी हो सके।

कल्याणी या पुष्करणी
डॉ विश्वनाथ ने भी वही किया, पता किया कि पहले क्या व्यवस्था थी। कोलार आज से चार सौ साल पहले मैसूर राजा के अधिकार क्षेत्र में आता था। राजाओं ने व्यापक स्तर पर पूरे क्षेत्र में कल्याणी बनवायी थीं। कल्याणी या पुष्करणी के नाम से सीढ़ीदार और पक्के तालाबों का निर्माण उन स्थानों पर किया जाता था, जहाँ स्वाभाविक रूप से जल बह कर आता था, उस जलक्षेत्र के सबसे निचले स्तर पर। हर गाँव में एक कल्याणी या पुष्करणी तो अवश्य रहती थी। अंग्रेजों के आने के पहले तक पूरे मैसूर राज्य में जल के संचय की इतनी व्यवस्था थी कि उस समय किसी ने सोचा ही नहीं होगा कि आने वाली संततियाँ मूढ़ता की सीमायें पार कर प्यासे मरने की कगार पर खड़ी होंगी।

कल्याणी का भी वही हुआ जो भारतीय शिक्षा पद्धति का हुआ। उन्हें पाश्चात्य से बदल दिया गया, इसलिये नहीं कि पाश्चात्य पद्धतियाँ श्रेष्ठ थीं, इसलिये भी नहीं कि वे वैज्ञानिक थीं, बस इसलिये कि उत्कृष्ट और स्वायत्त प्राच्य पद्धतियों को उनके मूल से मिटाकर पाश्चात्य के द्वारा अधिरोपित कर दिया जाये, इसलिये कि भारतीय अपने समृद्ध इतिहास का गौरव न कर सकें। अंग्रेजों ने लोक निर्माण विभाग बनाया और कल्याणी पर होने वाला राजकीय व्यय कम होता चला गया। जो गाँव कर सकते थे, उनकी कल्याणी जीवित रही, उनका कल्याण जीवित रहा। जो गाँव असमर्थ थे, उनकी कल्याणी रख रखाव के अभाव में सूख गयीं।

सार्वजनिक, अनुपयोगी और कीचड़ बनी कल्याणी कूड़ाघर बनती गयीं। जनसंख्या का दबाव बढ़ा और कल्याणी अतिक्रमित होती गयीं। पहले नदियाँ, फिर गर्भजल का दोहन होता रहा। जब गर्भजल का स्तर १६०० फिट के नीचे चला, जब पेयजल के लिये संघर्ष होने लगा, पेयजल टैंकर व्यवसाय बन गया, तब कल्याणी याद आयीं। डॉ विश्वनाथ ने जहाँ पर भी संभव था, श्रमदान के माध्यम से कल्याणी जीवित कीं, आसपास के अवैध निर्माणों को सप्रयास हटाया। ऐसा लगा कि कल्याणी की आत्मा कल्याण हेतु अब तक जीवित थीं, उनमें जल न जाने कहाँ से आना प्रारम्भ हो गया, सब एक ही वर्षा में लबालब भर गयीं।

शताब्दियों की उपेक्षा धीरे धीरे भरती है। कल्याणी जलप्लावित रहेंगी तो भूजल का स्तर धीरे धीरे बढ़ता रहेगा, क्षेत्र का एकत्र जल क्षेत्र में ही संचित रहेगा।

बंगलोर में ही २०० से भी अधिक झील थीं, वर्षा वर्ष में ८ माह, जल इतना गिरता है कि वह न केवल बंगलोर को वरन आसपास के कई नगरों को जल दे सके। हम इसे कुप्रबन्धन की पराकाष्ठा ही कहेंगे कि फिर भी बंगलोर में जल १०० किमी दूर बहती कावेरी नदी से पंप करके लाया जाता है, वह भी तीन स्तरों पर पंप करके। जनसंख्या ने यहाँ बसने की लालसा में झीलों को बाहर निकाल दिया, अपना भाग्य बाहर निकाल दिया, उस भविष्य के लिये जो स्वायत्तता से हमें पराश्रय की ओर लिये जा रहा है।

यह एक अच्छा संकेत है कि हम पाश्चात्य के भ्रमजाल से निकल आपनी सामर्थ्य ढूढ़ पा रहे हैं। देश के अन्य भागों से भी प्राकृतिक जलतन्त्र को जीवित करने के प्रयासों की सूचनायें मिल रही है। आशा है कल्याणी हमारी गौरवगाथा और हमारे कल्याण को पुनर्जीवित कर पायेंगी।

38 comments:

  1. पुनर्जीवित हों कल्याणी!

    सुन्दर आलेख!

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  2. हम लोग न बदले तो बहुत पछतायेंगे

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  3. उम्मीद है धनात्मक बदलाव होगा , और हम जलसंपदा रख रखाव के महत्त्व को समझेंगे .

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  4. तात्कालिक सुविधा का लोभ ,भविष्य के दुष्परिणाम से आँखें मूंद लेती है और विचारणीय नहीं रह जाता......... सुन्दर आलेख

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  5. कल्याणी के पुनरुद्धार से कितनी समस्याएं सुलझ सकती है। ऐसी ही अन्य प्राचीन व्यवस्थाओं पर नवीन शोध देश की काया पलट सकते हैं !

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  6. यह एक अच्छा संकेत है कि हम पाश्चात्य के भ्रमजाल से निकल आपनी सामर्थ्य ढूढ़ पा रहे हैं। देश के अन्य भागों से भी प्राकृतिक जलतन्त्र को जीवित करने के प्रयासों की सूचनायें मिल रही है। आशा है कल्याणी हमारी गौरवगाथा और हमारे कल्याण को पुनर्जीवित कर पायेंगी।

    आशा से आकाश थमा ....बहुत सारगर्भित आलेख है .....अपनी व्यवस्था पर विश्वास वापस ला रहा है ......हर जगह बिगड़ी हुई व्यवस्था के बीच कुछ अच्छा कार्य भी हो रहा है पढ़कर अच्छा लगा ....!!कल्याणी कल्याण करें .....!!

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  7. कल्याणी वास्तव में कल्याणकारी होती थी |
    नई पोस्ट नेता चरित्रं
    नई पोस्ट अनुभूति

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  8. राजस्‍थान में भी राजस्‍थान पत्रिका ने मुहिम चलाई थी - पुरानी बावड़ियों की सफाई की। सभी में पानी आने लगा है। नवीनता के नाम पर हम पुरातन विज्ञान को भी खो देते हैं यह दुर्भाग्‍य है।

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  9. भारत में आपदा-प्रबन्धन, परिचर्चा तक ही सीमित है. सामूहिक प्रयास की अत्यंत आवश्यकता है.

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  10. बहुत अच्छी और अनुकरणीय पहल , ऐसे प्रयास ज़रूरी हैं ........ यूँ तो कई समस्याओं का हल खोजा जा सकता है

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  11. आशा है ऐसे जल-संचय की पहल व्‍यक्ति-व्‍यक्ति स्‍तर पर ही नहीं सरकारी स्‍तर पर गम्‍भीर रूचि बनें।

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  12. पाश्चात्य के भ्रमजाल से निकलना इतना आसान नहीं क्योंकि हमारी जड़ों ने उन्हें अपनाना शुरू कर दिया है ... सोच और संस्कृति पिछले ६५ वर्षों में इतनी तेज़ी से ग्रहण की है की उसको निकालने में अगले २० वर्ष लगेंगे अगर अभी जागे तो ... अनेक समस्याओं के निवारण हमारे अपने गह्र्भ में ही छिपे हैं और वहीं से ढूँढने होंगे पाश्चात्य सभ्यता से सिर्फ कुछ कुछ बदलाव लेने होंगे ...

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  13. waah... har baar kuch sikhne milta hai aapke blog se

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  14. आसन्न संकट से कैसे बचा जाए इसकी दीक्षा बच्चों को बचपन से ही दी जानी चाहिए । आपदा कह-कर नहीं आती और ऐसे समय में बडे समझदार लोग भी धीरज खो देते हैं और परेशानी में पड जाते हैं । ऐसे वक़्त पर प्रत्युत्पन्न-मति अत्यन्त आवश्यक है । ईश्वर करे सब कुशल हों - " सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया: ॥"

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  15. ".....कल्याणी का भी वही हुआ जो भारतीय शिक्षा पद्धति का हुआ। उन्हें पाश्चात्य से बदल दिया गया, इसलिये नहीं कि पाश्चात्य पद्धतियाँ श्रेष्ठ थीं, इसलिये भी नहीं कि वे वैज्ञानिक थीं, बस इसलिये कि उत्कृष्ट और स्वायत्त प्राच्य पद्धतियों को उनके मूल से मिटाकर पाश्चात्य के द्वारा अधिरोपित कर दिया जाये, इसलिये कि भारतीय अपने समृद्ध इतिहास का गौरव न कर सकें....." ----इस सार्वभौम सत्य के साथ कल्याणी से परिचय कराने के लिये आपको धन्यवाद ।

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  16. राजस्थान में भी ऐसे प्रयोग हुये हैं और सुना था कि रालेगण सिद्धि के आसपास भी। परिणाम आश्चर्यचकित कर देने वाले तरीके से सुखद रहे। सकारात्मक विचार जब किसी एक व्यक्ति तक सीमित न रहकर सकल समाज के हो जायें तो कुछ भी संभव है। ’कल्याणी’ के बारे में जानकर उत्साह का संचार हो रहा है।

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  17. यह एक अच्छा संकेत है कि हम पाश्चात्य के भ्रमजाल से निकल आपनी सामर्थ्य ढूढ़ पा रहे हैं।
    ऐसे प्रयास जारी रहें ..

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  18. आपदा प्रबन्धन में शायद जापानी लोग हमसे ज्यादा अनुभवी हैं।
    वहाँ क्या करते हैं, कैसे निपटते हैं, इसका अध्ययन करना लाभदायक होगा।

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  19. हमने बचपन में ब्रज के चप्पे-चप्पे पर कुण्ड देखे थे, अब गिने चुने रह गए हैं वो भी अति दूषित। एक संस्था उन के पुरोद्धार के लिए प्रयत्नशील है। ऐसे प्रयास अच्छे हैं।

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  20. हम बदलेंगे - युग बदलेगा ....

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  21. शुभ संकेत!! निरंतरता बनी रहे!!

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  22. हम पाश्चात्य के भ्रमजाल से निकल आपनी सामर्थ्य ढूढ़ पा रहे हैं....बहुत शुभ संकेत है यह...

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  23. पाशचात्य ने तो भारतीय संस्कृति, बौद्धिक सम्पदा,धर्म, अन्य सभी कुछ का इतना दोहन किया कि अब हमारी हर सांस पश्चिम से आती है।

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  24. अब बदलाव केवल जरुरी ही नहीं बल्कि मज़बूरी भी है..

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  25. यह एक अच्छा संकेत है कि हम पाश्चात्य के भ्रमजाल से निकल आपनी सामर्थ्य ढूढ़ पा रहे हैं।

    ये 'पाश्चात्य भ्रमजाल' क्या है हम समझ नहीं पाये ?
    बाकी अपना घर अपने ही बल पर चलना चाहिए। अच्छा लगा जानकर कि अब आँखें खुल रहीं हैं । जीवन हो या देश रिस्क मैनेजमेंट होना ही चाहिए।
    कनाडा में जल संरक्षण नियम बहुत सख्त हैं, जबकि नदियों, झीलों और जल प्रपातों ये यह जगह भरा पड़ा है.। थाउसेंड आइलैंड नाम कि एक जगह ही है जहाँ हज़ारों झील हैं.। नदियों के पाट सागर की तरह हैं, कभी दूसरा छोर नज़र नहीं आता और दुनिया का सबसे पड़ा जलप्रपात नायग्रा यहीं है, फिर भी जल का दुरूपयोग एडमिनिस्ट्रेशन द्वारा बर्दाश्त नहीं किया जाता। पिछले साल सभी घरों को एक नोटिस भेजा गया था कोई भी पौधों को हर दिन पानी नहीं देगा, सप्ताह में सिर्फ दो दिन दिया जाएगा और हम सभी ने इसका पालन किया।
    ईश्वर करे कल्याणी कल्याण कर जाए वर्ना वॉटर वार होने के पूरे आसार हैं.।

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  26. बदलाव बहुत जरुरी है..

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  27. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज सोमवार (09-12-2013) को "हार और जीत के माइने" (चर्चा मंच : अंक-1456) पर भी है!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  28. आशा तो करना ही चाहिये बेहतरी भविष्य के लिए.

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  29. बंगलोर में ही २०० से भी अधिक झील थीं, वर्षा वर्ष में ८ माह, जल इतना गिरता है कि वह न केवल बंगलोर को वरन आसपास के कई नगरों को जल दे सके। हम इसे कुप्रबन्धन की पराकाष्ठा ही कहेंगे कि फिर भी बंगलोर में जल १०० किमी दूर बहती कावेरी नदी से पंप करके लाया जाता है, वह भी तीन स्तरों पर पंप करके। जनसंख्या ने यहाँ बसने की लालसा में झीलों को बाहर निकाल दिया, अपना भाग्य बाहर निकाल दिया, उस भविष्य के लिये जो स्वायत्तता से हमें पराश्रय की ओर लिये जा रहा है।

    पूरे कुओं बावड़ियों ,तालाबों का जाल था। लाल तालाब बुलंदशहर एक वृहद् कल्याणी था। हमारे बचपन का साक्षी हमारे बड़े होते होते हमसे रूठ गया। अब उसका कहीं कोई नामोनिशान नहीं हैं।


    राजस्थान वर्षा जल संरक्षण के स्थानीय उपायों की मिसाल हुआ करता था। अब सब इतिहास है। अब तो भवन निर्माण के समय वर्षाजल संरक्षण का प्रावधान रखना ही भविष्य के लिए एक उपाय दीखता है। सार्थक सौद्देश्य सवाल उठाये हैं इस पोस्ट ने।

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  30. कल्याणी जैसी व्यवस्था फिर से बहाल हो .... प्रयास निरंतर बना रहे .... अभी भी सचेत हो जाएँ यही कामना है ।

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  31. सारी समस्याओं के मूल में मनुष्य की विवेकहीनता है। बेंगलुरु में 300 से अधिक झीलें थीं, जिन्हें विस्तारीकरण के दानव ने लील लिया। यह सिलसिला आज भी जारी है। राजनेता, उनके गुर्गे और भू- माफिया लूट रहे हैं। मेरी दृष्टि में आपदा प्रबंधन से ज्यादा इस बात पर ध्यान होना चाहिए कि आपदा आती क्यूँ है और क्या इसे रोका जा सकता है।

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  32. काश ऐसा ही हो सके.

    रामराम.

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  33. काश कि हम समझ पाते ...

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  34. वर्षाजल संरक्षण का यह परम्परा गत रूप था जो आज रैन वाटर हार्वेस्टिंग कहा जाता है। मौज़ू सवाल दागती पोस्ट। शुक्रिया आपकी टिप्पणियों का।

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  35. इस सम्बन्ध में एक अच्छी पुस्तक है अनुराग मिश्र की "आज भी खरे है तालाब " इस पुस्तक में वे बाते बताई गयी है जो पुराने वक़्त में पानी को सहेजने में प्रयुक्त होती थी और जन-मानस में तालाबो का क्या महत्त्व था.

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  36. बस एक आशा ही है कि ऐसा कुछ हो। सच है कुछ अंग्रेजों ने हमे बर्बाद किया और रही सही कसर खुद हमने पूरी कर दी और खड़े कर दिये कंक्रिटोन के जंगल....अब तो सरकार प्रशासन और जनता सब मिलकर साथ चलें तभी कुछ बात बनेगी।

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