29.1.11

चोला माटी के हे रे

कुछ विषय ऐसे हैं जिनसे हम भागना चाहते हैं, इसलिये नहीं कि उसमें चिंतन की सम्भावना नहीं हैं या वे पूरी तरह व्यर्थ हैं। संभवतः भय इस बात का होता है कि उस पर विचार करने से हमारे उस विश्वास को चोट पहुँचेगी जिस पर हमारा पूरा का पूरा अस्तित्व टिका है। अस्तित्व स्वयं के होने का, विषय स्वयं के न होने का। जीवन की कार्य-श्रंखला जब यह मान कर तैयार हो रही हो कि हमारा अवसान होना ही नहीं है, अन्त शब्द का उच्चारण मौन उत्पन्न कर देता है, चिन्तन का मौन। यक्ष का आश्चर्य-प्रश्न, यदि कोई सोचने लगता है उस विषय पर तो उस व्यक्ति को आश्चर्य की वस्तु समझा जाता है। मूल विषयों से इस आश्चर्य-प्रश्न के संदर्भों को सरलता से भुला देता है हमारा स्मृति-तन्त्र।

पीप्ली लाइव का एक गीत 'चोला माटी के हे रे' एक ऐसा ही संदर्भ है जो हमें याद ही नहीं रहता है, उस फिल्म में प्रस्तुत भूख, गरीबी और मीडिया की उछलकूदों के सामने। फिल्म देखते समय यही स्मृति-लोप मेरे साथ भी हुआ। यदि इसका संगीत व गायिका नगीन तन्वीर के स्वर विशेष न होते तो संभवतः मैं भी इसे पुनः न सुनता, इसके बोलों को पढ़ने और समझने का प्रयत्न न करता। खड़ी बोली में न होने के कारण, अधिकांश शब्द एक बार में अर्थ नहीं स्पष्ट कर पाते हैं, बस उड़ता उड़ता सा संकेत देकर ही निकल जाते हैं।

यह चोला(शरीर) माटी का है। द्रोण जैसे गुरु, कर्ण जैसे दानी, बाली जैसे वीर और रावण जैसे अभिमानी, सब के सब यहाँ से प्रयाण कर गये। काल किसी को नहीं छोड़ता है, राजा, रंक और भिखारी, कोई भी हो, सबकी बारी आनी है। पगले, हरि का नाम स्मरण कर ले और भव सागर पार कर मुक्त हो जा।

यह दार्शनिक उच्चारण, किसी को भांग व चरस जैसा लगता है जो गरीबी, मजबूरी और अकर्मण्यता के कष्ट को भुला देता है, किसी को प्रथम प्रश्न सा लगता है जिसका उत्तर जीवन की दिशा निर्धारित करता है, किसी को कपोल-कल्पित व अनावश्यक लगता है जिसके बिना भी जीवन जीते हैं सब, किसी को बन्धनकारी लगता है जो हमें कितने ही अचिन्त्य कर्तव्यों के जाल में समेट लेता है।

भले दर्शन से अरुचि हो हमें पर प्रयाण हम सबको करना है, प्रायिकता के सिद्धान्त से जीवन उत्पत्ति के अनुयायियों को भी और ईश्वर की सत्ता के उपासकों को भी। चोला माटी का है, यह एक सत्य है हम सबके लिये। दर्शन-भिन्नता जीवन-शैली का निर्धारण कर देती है, चार्वाक से निष्काम कर्म तक सुविस्तृत फैली। कैसी भी हो जीवन शैली, इस अन्तिम तथ्य पर विचार किये बिना उसे तार्किक क्षेत्र में स्थापित कर पाना असम्भव है।

'आसमां में उड़ने वाले मिट्टी में मिल जायेगा', 'इक दिन बिक जायेगा माटी के मोल' और 'चोला माटी के हे रे', ये सब गीत हमारा चिन्तन जहाँ पर स्थित कर देना चाहते हैं, वहाँ की ऊष्णता हमें क्यों विचलित कर देती है? धर्म की वीथियों से परे निकल, अपने अन्तरतम के विस्तृत मैदानों में इसका उत्तर पाने का यत्न करना ही है हमे।

गूढ़ प्रश्नों का उत्तर वस्तुनिष्ठ नहीं होता है, हमें खोजना पड़ता है सतत, बार बार मिलान कर देखना पड़ता है अपने जीवन से, बार बार कुछ भाग बदलने पड़ते हैं उस उत्तर के।

माटी का क्या मोल है? साथ ही साथ कौन सी ऐसी मूल्यवान वस्तु है जो माटी से न निकली हो? इन दो तथ्यों के बीच जीवन को स्थापित कर पाना सरल नहीं है। माटी से आकार ले, पुनः उसी में मिल जाने का सुख जनकसुता के एकांगी आत्मविश्वास का पर्याय भी है और असहायता का विकल स्वर भी।

क्या चुनना है और क्यों चुनना है, यह आप समझें अपने जीवन के लिये, कुछ उत्तर निसन्देह बदलेंगे आपके भी। मैं तो एक बार पुनः सुनने चला यह गीत, चोला माटी के हे रे।

कौन सा रहस्य पिरोया है उस अन्तिम आकर्षण में? अनुभवों की यात्रा का परम-विश्राम।


गाना सुन लें, मैने नहीं गाया है।

26.1.11

तानपुरा और जीवन

कभी तानपुरा देखा है? किसी भी संगीत समारोह में, मंच के दोनों ओर, पार्श्व में स्तंभ से खड़े दो वाद्य यन्त्र, साथ में चेहरे पर सपाट सा भाव लिये धीरे धीरे उस पर ऊँगलियाँ फिराते दो वादक। जब तबला, बाँसुरी, हारमोनियम, सरोद आदि वाद्य यन्त्र, सुर-ताल के साथ किये सफल प्रदर्शन का उत्साह एक दूसरे के साथ बाटते हैं, तानपुरे निस्पृह भाव से अपने कार्य में लगे रहते हैं। कभी भी तानपुरे के लिये तालियाँ बजते नहीं सुनी। कभी कभी तो लगता था कि परम्पराओं की बाध्यता में हमने मंच के दोनों ओर दो निर्जीव स्तम्भ खड़े कर रखे हैं, जिनके न होने पर मंचों का आकार कम किया जा सकता था। इस विषय में मेरा ज्ञानबोध अपूर्ण निकला, जब तानपुरे के बारे में जाना, कुछ अपनों सा लगा उसका भी जीवन।

नव ज्ञानबोध का श्रेय जाता है, एक बहुत छोटी पर सरस, आत्मीय और साहित्यिक भेंट को, सन्तोषजी से। प्रतिष्ठित स्थानीय हिन्दी समाचार पत्र के उपसम्पादक हैं, ब्लॉग से जुड़े हैं, संगीत में गहरी रुचि है और मोहक बाँसुरी बजाते हैं। पहले तो उन्होने कुछ पुराने गीत सुनवाये, जो किसी कारणवश फिल्मों में नहीं आ पाये, एक रफी साहब का था, रात के तारों के ऊपर। बाँसुरी बजाने के अनुरोध को स्वीकार करते हुये उन्होने पहले एक इलेक्ट्रॉनिक तानपुरा निकाला, उसे संयोजित किया और तब सायं के दो राग सुनाये, राग यमन और राग भूपाली।

इलेक्ट्रॉनिक तानपुरे ने उत्सुकता को एक नयी दिशा दे दी। यह उनके संगीत के लिये बंगलोर की देन थी। तानपुरे की उपयोगिता पर एक सारगर्भित चर्चा छेड़ते हुये उन्होने जो बताया, प्रयोगसहित, उसे यथावत प्रस्तुत कर रहा हूँ।

बाँसुरी में सुरों के आरोह व अवरोह के मध्य कहाँ पर आकर स्थिर होना है, इसके लिये एक ध्वनि-आधार आवश्यक होता है। वह न होने की स्थिति में स्वरों को भटकने से रोकना अत्यधिक कठिन हो जाता है। जिस आधार पर बाँसुरी बज रही थी, उस आधार पर तानपुरे का नॉब घुमाने पर वातावरण में एक अनुनाद का अनुभव हुआ जो संकेत था कि आप आधार पर वापस आ चुके हैं। यही सिद्धान्त गायकी में भी प्रयुक्त होता है। मुझसे भी उस आधार पर गाने के स्वर स्थिर करने को कहा गया, जब कानों में स्वर गूँजने लगा तब लगा कि यही संयोजन की स्थिति है। थोड़ा सा ऊपर व नीचे करने में कर्कशता उत्पन्न होती है और पता लग जाता है कि स्वरों से भटकाव हो गया है।

हम सबके व्यक्तित्व में एक तानपुरा बसता है, जो एक आधार बनाता है, एक दृष्टिकोण बनाता है, घटनाओं और व्यक्तित्वों को समझने का। उत्थान-पतन, लाभ-हानि आदि द्वन्दों से भरा है हम सबका जीवन पर इन सबके बीच जो विश्राम की निर्द्वन्द स्थिति आती है, वही हमारे तानपुरे की आवृत्ति है। व्यक्तिगत सम्बन्धों में उत्पन्न कर्कशता, जीवन को उन स्वरों में ले जाने के कारण होती है, जो औरों के व्यक्तित्व के तानपुरे के साथ संयोजित नहीं हो पाते हैं। परम्परा को नव विचार नहीं सुहाता, ऊर्जान्वित यौवन को शैथिल्य नहीं सुहाता, सब चाहते हैं कि विश्व के स्वर उनके तानपुरे की आवृत्ति में रहें। 

किसी व्यक्ति के लिये उसके संस्कार ही तानपुरा है, जीवन के सुर उसके ही आसपास घूमते हैं। किसी समाज के लिये उसकी संस्कृति और जनसामान्य की जीवनशैली ही तानपुरा है। किसी देश के लिये शान्ति, विकास और समृद्धि की आस ही तानपुरा है। अमेरिका की व्यक्तिगत कर्मशीलता, जापान का  पारिवारिक अनुशासन, भारत का सामाजिक अध्यात्म ऐसे ही तानपुरे हैं जिसका आधार ले वहाँ के जीवन-गीत निर्मित होते हैं। आप भारत में अमेरिका या अमेरिका में जापान के मूल्य नहीं खोज सकते।

आप माने न माने, आपका जीवन समाज के तानपुरे को बल देता है और उससे प्रभावित भी होता है। आपका हलचलविहीन जीवन भले ही आपको भला न लगे पर वह हर समय उस तानपुरे का सृजन कर रहा होता है जिसकी आवृत्ति पर आने वाली पीढ़ियाँ सुर मिलायेंगी। हमारे पूर्वज जिनका नाम इतिहास की पुस्तकों में नहीं है, हमारे वयोवृद्ध जो उत्पादकता के मानकों पर शून्य हैं, वे जनसामान्य जिनका जीवन विशेष की श्रेणी में नहीं आता है, सबने वह आधार निर्माण किये हैं  जिस पर हम अपने उत्थानों के स्वर सजाते रहते हैं।

अगली बार किसी समारोह में तानपुरों को देखें, स्तम्भवत, उमंगविहीन, तो मन में उनके प्रति अकर्मण्यता के भाव न लायें। वे आधार तैयार कर रहे हैं उन आवृत्तियों का जिन पर श्रेष्ठ मंचीय प्रदर्शन निर्भर करता है।

उन तानपुरों से कितना मिलता जुलता है, हम सबका जीवन।

22.1.11

बकर बकर

कई दिन पहले मोबाइल से अपना पसंदीदा टीवी कार्यक्रम रिकार्ड करने का एयरटेल का विज्ञापन देखा। करीना कपूर बकर बकर करना प्रारम्भ करती है और बात में पता लगता है कि प्रेरणा टीवी के कार्यक्रम से प्राप्त हो रही है।

जितनी बार भी यह बकर बकर जैसा एकालाप देखता हूँ, अच्छा लगता है और हँसी आती है। पता नहीं क्यों? कुछ जाना पहचाना सा लगता है यह प्रलाप।

हम लोग दिन भर जो कुछ भी बोलते रहते हैं यदि उसे बिना किसी अन्तराल के पुनः सुने तो यही लगेगा कि करीना कपूर की बकर बकर तो फिर भी सहनीय है। पर हम स्वयं ऐसा करते हुये भी विज्ञापन देखकर हँसते हैं। केवल गति का ही तो अन्तर है!

विचार-श्रंखला बह रही है। मन ने जो विचार चुन लिये, उन्हें वाणी मिल गयी। कई अन्य विचार मन से मान न पा सरक जाते हैं अवचेतन के अँधेरों में।

शब्द आते हैं विचारों से। विचारों के प्रवाह की गति होती है और उन विचारों की गुणवत्ता होती है।

कौन है जो विचारों का भाड़ झोंके जा रहा है और मन मस्ती में स्वीकार-अस्वीकार का खेल आनन्दपूर्वक खेल रहा है। कोई जोर है आपका अपने विचारों पर, उनकी गति पर या अपने मन पर?

जब कभी भी इतना साहस व चेतना हुयी कि स्वयं को कटघरे में खड़ा कर प्रश्न कर सकूँ उन विचारों पर जो मन को उलझाये रहे, तो मुख्यतः तीन तरह के उद्गम दिखायी पड़े इन विचारों के।

पहले उन कार्यों से सम्बन्धित जिन्हें आप वर्तमान में ढो रहे हैं।

दूसरे आपके जीवन के किसी कालक्षण से सम्बन्धित रहे हैं और सहसा फुदक कर सामने आ जाते हैं।

तीसरे वे जो आपसे पूर्णतया असम्बद्ध हैं पर सामने आकर आपको भी आश्चर्यचकित कर देते हैं।

पहले दो तो समझ में आते हैं पर तीसरा स्रोत कभी गणित का कठिन प्रश्न हल करने की विधि बता देता है, कभी आपसे एक सुन्दर कविता लिखवा देता है या कभी आपकी किसी गम्भीर समस्या का सरल उत्तर आपके हाथ पर लाकर रख देता है। सहसा, यूरेका।

मन बहका है। यदि आप 'चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद् दृढम् ...... अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते', समझते हैं और उस पर अभ्यासरत हैं तो आपके विचारों की गुणवत्ता बनी रहेगी। अच्छों को सहेज कर रखिये और बुरों के बारे में निर्णय ले लीजिये, भले ही मन आपसे कितनी वकालत करे, तभी गुणवत्ता बनी रहेगी।

विचारों के प्रवाह की गति हमारे ज्ञान व सरलता से कम होती है। जीवन आपको ऐसे मोड़ों पर खड़ा कर देगा जहाँ आपको या तो कुछ सीखने को मिलेगा या आपको सरल कर देगा। प्रौढ़ता या परिपक्वता सम्भवतः इसी को कहते हों।

उन मनीषियों को क्या कहेंगे जिनकी चेतना इतनी विकसित है कि हर विचार अन्दर आने से पहले उनसे अनुमति माँगता हो। मेरे विचार तो सुबह शाम मुझे लखेदे रहते हैं।

19.1.11

ओह रे ताल मिले नदी के जल में

किसी स्थान की प्रसिद्धि जिस कारण से होती है, वह कारण ही सबके मन में कौंधता है, जब भी उस स्थान का उल्लेख होता है। यदि पहली बार सुना हो उस स्थान का नाम, तो हो सकता है कि कुछ भी न कौंधे। आपके सामाजिक या व्यावसायिक सन्दर्भों में उस स्थान की प्रसिद्धि के भिन्न भिन्न कारण भी हो सकते हैं। आपको अनेकों सन्दर्भों के एक ऐसे स्थान पर ले चलता हूँ, जो संभवतः आपने पहले न सुने हों, मेरी ही तरह।

रेलवे पृष्ठभूमि में, बरुआ सागर का उल्लेख आने का अर्थ है, उन पत्थरों की खदानें जिन के ऊपर पटरियाँ बिछा कर टनों भारी ट्रेनें धड़धड़ाती हुयी दौड़ती हैं। बहुत दिनों तक वही चित्र उभरकर आता रहा उस स्थान का, कठोर चट्टानों से भरा एक स्थान, रेलपथों का कठोर आधार। किसी भी विषय या स्थान को एक ही सत्य से परिभाषित कर देना उसके साथ घोर अन्याय होता अतः अन्य कोमल पक्षों का वर्णन कर लेखकीय धर्म का निर्वाह करना आवश्यक है।

स्टेशन की सीमाओं से बाहर पग धरते ही, अन्य पक्ष उद्घाटित होते गये, एक के बाद एक। सन 860 में बलुआ पत्थरों से निर्मित "जराई का मठ" प्रतिहार स्थापत्य कला का एक सुन्दर उदाहरण है, खजुराहो के मन्दिरों के पूर्ववर्ती, एक लघु स्वरूप में पूर्वाभास।

बड़े क्षेत्र में फैले कम्पनी बाग के पेड़ों को देखकर, प्रकृति के सम्मोहन में बँधे से बढ़े बरुआ सागर किले की ओर। तीन शताब्दियों पहले राजा उदित सिंह के द्वारा बनवाया किला, लगभग 50-60 मीटर की चढ़ाई के बाद आया मुख्य द्वार। 1744 में मराठों और बुन्देलों के बीच इसी क्षेत्र के आसपास युद्ध हुआ था। किले के द्वार से पूरा क्षेत्र हरी चादर ओढ़े, विश्राम करता हुआ योगी सा लग रहा था।

किले के ऊपर पहुँचकर जो दृश्य देखा, उसे सम्मोहन की पूर्णता कहा जा सकता है। एक विस्तृत झील, जल से लबालब भरी, चलती हवा के संग सिहरन व्यक्त कर बतियाती, झील के बीच बना टापू रहस्यों के निमन्त्रण लिये। तभी हवा का एक झोंका आता है, ठंडा, झील का आमन्त्रण लिये हुये, बस आँख बंद कर दोनों हाथ उठा उस शीतलता को समेट लेने का मन करता है, गहरी साँसों में जितना भी अन्दर ले सकूँ। किले के सबसे ऊपरी कक्ष में यही अनुभव घनीभूत हो जाता है और बस मन करता रहता है कि यहीं पर बैठे रहा जाये, जब तक अनुभव तृप्त न हो जाये।

यही कारण रहा होगा, बरुआ सागर को झाँसी की ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने का। जब ग्रीष्म में सारा बुन्देलखण्ड अग्नि में धधकता होगा, रानी लक्ष्मीबाई अंग्रेजों के विरुद्ध उमड़ी क्रोध की अग्नि को यहीं पर योजनाओं का रूप देती होंगी। स्थानीय निवासियों ने बताया कि किस तरह रानी और उनकी सशस्त्र दासियाँ बैठती थीं इस कक्ष के आसपास।

बहुत लोगों को यह तथ्य ज्ञात न हो कि प्रसिद्ध गीतकार इन्दीवर बरुआ सागर के ही निवासी थे। इस झील का एक महत योगदान रहा है कई दार्शनिक और सौन्दर्यपरक गीतों के सृजन में। सफर, उपकार, पूरब और पश्चिम, सरस्वतीचन्द्र जैसी फिल्मों के गीत लिखने वाले इन्दीवर का जो गीत मुझे सर्वाधिक अभिभूत करता है, स्थानीय निवासी बताते हैं कि वह इसी झील के किनारे बैठकर लिखा गया।

ओह रे ताल मिले नदी के जल में, नदी मिले सागर में......

छोटे से इस गीत में न जाने कितने गहरे भाव छिपे हैं। यह स्थान उन गहरे भावों को बाहर निकाल लेने की क्षमता में डूबा हुआ है, आपको बस खो जाना है झील के विस्तार में, झील की गहराई में। यदि यहाँ पर आ कवि की कविता न फूट जाये तो शब्द आश्चर्य में पड़ जायेंगे।

यह भी बताया गया कि एक पूर्व मुख्यमन्त्री इस प्राकृतिक मुग्धता को समेट लेने बहुधा आते थे। 1982 के एशियाड की कैनोइंग प्रतियोगिताओं के लिये इस झील को भी संभावितों की सूची में रखा गया था।

स्थापत्य, इतिहास, साहित्य और पर्यटन के इतने सुन्दर स्थल को देश के ज्ञान में न ला पाने के लिये पता नहीं किसका दोष है, पर एक बार घूम लेने के बाद आप अपने निर्णय को दोष नहीं देंगे, यह मेरा विश्वास है।
 
हम उत्तर दक्षिण के बीच कितनी बार निकल जाते हैं, बिना रुके। एक बार झाँसी उतर कर घूम आईये बरुआ सागर, बस 24 किमी है, दिनभर में हो जायेगा।

झील पर बैठकर गाया गीत

15.1.11

टाटों पर पैबन्द लगे हैं

सुख की चाह, राह जीवन की, रुद्ध कंठ है, छंद बँधे हैं।
रेशम की तुम बात कर रहे, टाटों पर पैबन्द लगे हैं।

सुख की राह एक होती तो, वही दिशा हम सबकी होती,
सूत्र एक होता यदि सुख का, मन की माला वही पिरोती,
अति सुख में दुख उपजे नित ही, दुखधारा, मन पाथर सा,
अतिशय दुख, स्तब्ध दिख रहा, असुँअन मोती त्यक्त बहा,
क्या पाये, क्या तज दे जीवन, हर चौखट पर द्वन्द सजे हैं।
रेशम की तुम बात कर रहे, टाटों पर पैबन्द लगे हैं।

हमने सबको दोष दिये हैं, गुण का बोझ उठाये फिरते,
पापों का आनन्द समेटे, आदर्शों के तम में घिरते,
मूर्त सहजता घुट घुट मरती, जीवन के विष-नियम तले,
लांछन अन्यायों का सहता, ईश्वर पा अस्तित्व जले,
पूर्ण विश्व अपनी रचना है, उसने बस प्रारम्भ रचे हैं।
रेशम की तुम बात कर रहे, टाटों पर पैबन्द लगे हैं।

ईश्वर से मानव जीवन पा, हमें लगा सब कुछ ले आये,
मुक्त उड़ानें, अनबँध विचरण, हमने अपने गगन बनाये,
नहीं पता था, दसों दिशायें, अनुशासन के तीर चलेंगे,
प्रत्यक्षों से बिखरे दाने, मर्यादा के जाल बिछेंगे,
चारों ओर दिख रही कारा, हर पग में अनुबन्ध लगे हैं।
रेशम की तुम बात कर रहे, टाटों पर पैबन्द लगे हैं।

नहीं पूर्ण आमन्त्रित करती, संयम की कल्पित परिभाषा,
हितकर्मों में बीच मार्ग ही, जग जाती संचित प्रत्याशा,
नेति नेति कर्मों में रचकर जीवन को खो बैठे हम,
नित, समाजकृत महाभँवर में, टूट गये कितने ही क्रम,
स्वप्न सदा ही अलसाये हैं, नहीं कभी स्वच्छन्द जगे हैं
रेशम की तुम बात कर रहे, टाटों पर पैबन्द लगे हैं।

मध्यमार्ग श्रेयस्कर होता, पर हम भी तो बुद्ध नहीं,
आर पार की कर लेने दो, पर जीना अब रुद्ध नहीं,
इस जीवन को ध्वंस कर रहे, परलोकों की सोच रहे,
आशाओं के पंखों पर कीलें हम लाकर ठोंक रहे,
स्वयं देख दर्पण अब हँस लो, रोम रोम में व्यंग पगे हैं
रेशम की तुम बात कर रहे, टाटों पर पैबन्द लगे हैं।

जीवन-नद, कब से तट बैठे, छूकर जल अनुभव करते,
गहराई की समझ समेटे, अपने से डर कर रहते,
डुबा सके तो, भँवर डुबा ले, पर कूदेंगे जीवन में,
लहरों से विचलित क्यों होना, लाख थपेड़े हों उनमें,
जीवन को जीने का आश्रय, जीवित को रस रंग सजे हैं,
रेशम की तुम बात कर रहे, टाटों पर पैबन्द लगे हैं।

12.1.11

सामाजिकता का फैलाव

आपको कितने मित्र चाहिये और किस क्षेत्र में चाहिये? आपके क्षेत्र में मित्र बढ़ाने का सर्वोत्तम माध्यम क्या है? एक मित्र से आप कितने माध्यमों से संपर्क रख सकते हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि माध्यमों की अधिकता से हमारे सम्पर्क की गुणवत्ता और मात्रा कम हो गयी हो?

सूचना क्रान्ति ने हमारे मित्रों की उपलब्धता सतत कर दी है, सब के सब मोबाइल फोन पर उपस्थित। उन्हे अपने बारे में जानकारी देने के लिये केवल लिख कर भेजना भर है। भविष्य में सुयोग्य यन्त्र स्वतः ही यह प्रचारित कर दिया करेंगे। पर क्या जानकारी दें हम उससे? यदि आपको लगता है कि आपके मित्र आपकी छीकों के बारे में भी जानने के लिये लालायित रहते हैं तो अवश्य बतायें उन्हें इसके बारे में और भविष्य में तैयार भी रहें उनकी छीकों की गिनती करने के लिये। आपको जो रुचिकर लगता हो, संभवतः औरों को वह न भाये।

सबको यह अच्छा लगता है कि अन्य उन्हें जाने। जान-पहचान का आधार बहुधा एक अभिरुचि होती है जो आपको एक दूसरे के संपर्क में बनाये रखती है। सौन्दर्यबोध एक शाश्वत अभिरुचि है पर उसमें मन लगने और उचटने में अधिक समय नहीं लगता है। हर अभिरुचि का एक सशक्त माध्यम है, कुछ समूह हैं विभिन्न माध्यमों में, लोग जुड़ते हैं, लोग अलग हो जाते हैं, अच्छी चर्चायें होती हैं।

पहुँच बढ़ाने का प्रयास है यह, पर कहाँ पहुँच रहे हैं यह ज्ञात नहीं है हमें। पहुँच बढ़ा रहे हैं, ज्ञान बढ़ा रहे हैं या समय व्यर्थ कर रहे हैं। किसी भी क्षेत्र में बिना समय दिये सार्थकता नहीं निकलती। माध्यमों की बहुलता और फैलाव क्या हमें इतना समय दे पा रहा है जिसमें हम अपनी अभिरुचियाँ पल्लवित कर सकें?

पिछले 5 माह से यह अन्तर्द्वन्द मेरे मन में चल रहा है। ट्विटर, फेसबुक, ऑर्कुट और 5 ब्लॉगों में अपनी पहचान खोलने के बाद भी यह समझ नहीं आ रहा था कि कहाँ जा रहा हूँ और क्या चाह रहा हूँ? इतना फैलाव हो रहा था कि न तो स्वयं को सम्हाल पा रहा था और न ही अभिरुचियों की गुणवत्ता को। फैलाव आपकी ऊर्जा बाँध देता है।

जब नदी का प्रवाह सम्हाला न जा सके तक किनारे की ओर चल देना चाहिये। तेज बहते कई माध्यमों से स्वयं को विलग कर लिया। फेसबुक और ट्विटर बन्द कर दिया। लिंकडेन व अन्य माध्यमों के सारे अनुरोध उत्तरित नहीं किये। ऑर्कुट में साप्ताहिक जाना होता है क्योंकि वहाँ कई संबंधियों के बारे में जानकारी मिलती रहती है। एक ब्लॉग छोड़ शेष निष्क्रिय हैं और संभवतः निकट भविष्य में गतिशील न हो पायें। एक ब्लॉग, गूगल रीडर व बज़ के माध्यम से सारे साहित्यिक सुधीजनों से संपर्क स्थापित है। सप्ताह में दो पोस्ट लिखने में और आप लोगों की पोस्ट पढ़ टिप्पणी करने में ही सारा इण्टरनेटीय समय निकल जाता है।

मेरी सामाजिकता, उसका फैलाव और मित्रों का चयन, सम्प्रति ब्लॉगीय परिवेश में ही भ्रमण करता है। आपका दूर देश जाना होता हो और कोई रोचकता दिखे तो मुझ तक अवश्य पहुँचायें।

उत्सुकता अतीव है, सब जानने की।

पता नहीं क्यों?

8.1.11

हिन्दी कीबोर्ड

जब भी हिन्दी कीबोर्ड का विषय उठता है, कई लोगों के भावनात्मक घाव हरे हो जाते हैं। इस फलते फूलते हिन्दी ब्लॉग जगत में कुछ छूटा छूटा सा लगने लगता है। चाह कर भी वह एकांगी संतुष्टि नहीं मिल पाती है कि हम हिन्दी टंकण में पूर्णतया आत्मनिर्भर व सहज हैं।

अपनी अभिव्यक्तियों से मन गुदगुदाने में सिद्धहस्त अशोक चक्रधर जी भी जब वर्धा में यही प्रश्न लेकर बैठ जायें तो यह बात और गहराने लगती है। किसी भी व्यक्ति के लिये मन में जगे भाव सब तक पहुँचाने के लिये लेखन ही एक मात्र राह है। डायरी में लिखकर रख लेना रचना का निष्कर्ष नहीं है। संप्रेषण के लिये उस रचना को हिन्दी कीबोर्ड से होकर जाना ही होगा। ब्लॉग का विस्तृत परिक्षेत्र, मनभावों की उड़ानों में डूबी रचनायें, इण्टरनेट पर प्रतीक्षारत आपके पाठकों का संसार, बस खटकता है तो हिन्दी कीबोर्डों का लँगड़ापन।

यही एक शब्द है जिसको इण्टरनेट में सर्वाधिक खंगाला है मैंने। लगभग 10 वर्ष पहले, सीडैक के लीप सॉफ्टवेयर को उपयोग में लाकर प्रथम बार अपनी रचनाओं को डिजिटल रूप में समेटना प्रारम्भ किया था। स्क्रीन पर आये कीबोर्ड से एक एक अक्षर को चुनने की श्रमसाधक प्रक्रिया। लगन थी, आत्मीयता थी, श्रम नहीं खला। लगभग दो वर्ष पहले हिन्दी ब्लॉग के बराह स्वरूप के माध्यम से हिन्दी का पुनः टंकण सीखा, अंग्रेजी अक्षरों की वैशाखियों के सहारे, पुनः श्रम और त्रुटियाँ, गति अत्यन्त मन्द। चिन्तन-गति के सम्मुख लेखन-गति नतमस्तक, व्यास उपस्थित पर गणेश की प्रतीक्षा। चाह कर भी, न जाने कितने ब्लॉगों को पढ़कर टिप्पणी न दे पाया, कितने विचार आधे अधूरे रूप ले पड़े रहे। तब आया गूगल ट्रांसइटरेशन, टंकण के साथ शब्द-विकल्पों की उपलब्धता ने त्रुटियों को तो कम कर दिया पर श्रम और गति वही रहे।

कृत्रिम घेरों से परे जाकर श्रेष्ठ तक पहुँचने का मन-हठ, देवनागरी इन्स्क्रिप्ट कीबोर्ड तक ले गया। पूर्ण शोध के बाद यही निष्कर्ष निकला कि हिन्दी टंकण का निर्वाण इसी में है। लैपटॉप के कीबोर्ड पर चिपकाने वाले स्टीकरों की अनुपलब्धता से नहीं हारा और प्रिंटिंग प्रेस में जाकर स्तरीय स्टीकर तैयार कराये। अभ्यास में समय लगा और गति धीरे धीरे सहज हुयी। पिछले तीन प्रयोगों की तुलना में लगभग दुगनी गति और शुद्धता से लेखन को संतुष्टि प्राप्त हो रही है।

देवनागरी इन्स्क्रिप्ट कीबोर्ड को यदि ध्यान से देखें तो कवर्ग आदि को दो कुंजियों में समेट दिया गया है, वह भी दायीं ओर। सारी मात्रायें बायीं ओर रखी गयी हैं, वह भी एक के ऊपर एक। शेष सब वर्ण बाकी कुंजियों पर व्यवस्थित किये गये हैं। यद्यपि पिछले 10 माह से अभी तक कोई विशेष बाधा नहीं आयी है इस प्रारूप को लेकर पर अशोक चक्रधर जी का यह कहना कि इस कीबोर्ड को और भी कार्यदक्ष बनाया जा सकता है, पूरे विषय को वैज्ञानिक आधार पर समझने को प्रेरित करता है।

आईआईटी कानपुर के दो प्रोफेसर श्री प्रियेन्द्र देशवाल व श्री कल्याणमय देब ने इस विषय पर एक शोध पत्र प्रस्तुत किया है जिसमें हिन्दी कीबोर्डों के वैज्ञानिक आधार पर गहन चर्चा की गयी है। श्री देशवाल कम्प्यूटर विभाग से है और श्री देब जिनके साथ कार्य करने का अवसर मुझे भी प्राप्त है, ऑप्टीमाइजेशन के विशेषज्ञ हैं।

चार प्रमुख आधार हैं कीबोर्ड का प्रारूप निर्धारित करने के, प्रयास न्यूनतम हो, गति अधिकतम हो, त्रुटियाँ न्यूनतम हों और सीखने में सरलतम हो। इन उद्देश्यों को प्राप्त करने हेतु 6 मानदण्ड हैं जिनको अलग अलग गणितीय महत्व देकर, उनके योगांक को प्रारूप की गुणवत्ता का सूचक माना जाता है। यह 6 मापदण्ड हैं, सारी उँगलियों में बराबर का कार्य वितरण, शिफ्ट आदि कुंजी का कम से कम प्रयोग, दोनों हाथों का बारी बारी से प्रयोग, एक हाथ की ऊँगलियों का बारी बारी से प्रयोग, दो लगातार कुंजी के बीच कम दूरी और दो लगातार कुंजियों के बीच सही दिशा। शोधपत्र यह सिद्ध करता है कि एक श्रेष्ठतर कार्यदक्ष हिन्दी कीबोर्ड की परिकल्पना संभव है, अशोक चक्रधर जी से सहमत होते हुये।
 
आप में से बहुतों को लगेगा कि अभी जिस विधि से हिन्दी टाइप कर रहे हैं, वही सुविधाजनक है। यदि आप वर्तमान में देवनागरी इन्स्क्रिप्ट से नहीं टाइप कर रहे हैं तो आप टंकण के चारों प्रमुख आधारों पर औंधे मुँह गिरने के लिये तैयार रहिये।

हमें चिन्ता है, यदि आपकी चिन्तन-गति लेखन वहन न कर पाये, यदि आप की टिप्पणियाँ समयाभाव में सब तक पहुँच न पायें, यदि 20% अधिक गति से टाइप न कर पाने की स्थिति में आपकी हर पाँचवी पुस्तक या ब्लॉग दिन का सबेरा न देख पाये।

हमारी चिन्ताओं को अपने प्रयासों से ढक लें, साहित्य संवर्धन में एक शब्द का भी योगदान कम न हो आपकी ओर से। लँगड़े उपायों को छोड़कर देवनागरी इन्स्क्रिप्ट से टाइपिंग प्रारम्भ कर दें, स्टीकर हम भिजवा देंगे, अशोक चक्रधर जी के नाम पर। 

5.1.11

आईटी की पीड़ा

पिछले दो दशक अपनी उन्नति के गर्व में मदमाये खड़े हैं। आईटी ने विश्व को अपरिवर्तनीय दिशा दे दी है, अब चाह कर भी कोई पुरानी राहों पर लौटकर न जा पायेगा। बलात ही सही, सबको बढ़ना तो पड़ेगा ही। इस बदलाव को स्वप्नोत्तर प्रत्यक्ष रूप देने में भारतीय युवाओं की क्षमताओं और प्रयत्नों का विशेष योगदान रहा है। कूट भाषा में अपने आदेशों को लिखकर, उनके माध्यम से बड़े बड़े संयन्त्रों को चला लेने का सहज-कर्म प्रतिदिन विस्तार पा रहा है। नित नये क्षेत्र इस परिधि में सिमटते जा रहे हैं। जो व्यवसाय आईटी से दूर हैं, उन्हें प्रबन्ध-गुरु हेय दृष्टि से देख रहे हैं। जिस प्रकार रात में शारीरिक थकान को विश्राम मिलता है, अमेरिका की रातों में भारतीय प्रतिभायें कार्य कर उनका प्रभात विघ्नविहीन करने में लगी रहती हैं। व्यावसायिक उन्मत्तता ने रात-दिन के व पूर्व-पश्चिम के अन्तर को मिटा डालने की कसम सी खा ली है।

इस उद्देश्य के लिये पूरी की पूरी सेनाओं का गठन हो रहा है, विश्वविजय की रणभेरी रह रह कर सुनायी पड़ती है प्रतिदिन। बंगलोर इस विश्वविजयी अभियान का प्रमुख गढ़ है। इस क्षेत्र से सम्बन्धित कुछ अन्य तथ्यों को बंगलोर में रह कर ही समझ पाया हूँ। 15 वर्ष पहले आईटी को सिविल सेवा के लिये छोड़ देने से यह अनुभव प्रत्यक्ष नहीं रहा पर यदि इस क्षेत्र में रहता तो उस पीड़ा को और ढंग से व्यक्त कर पाता जिसके स्वर कभी इस नगर के बाहर नहीं निकल पाते हैं।

पहला तो नये प्रशिक्षुओं को प्रशिक्षित करने में लगभग एक वर्ष का समय लगता है। दूसरा, अधिक पैसों के लिये कम्पनी छोड़कर आने जाने वालों की संख्या भी अधिक रहती है। तीसरा, किसी नये कार्य को प्राप्त करने के लिये और प्रथम दिन से ही उसका निष्पादन करने के लिये हर समय अतिरिक्त सॉफ्टवेयर इन्जीनियरों की संख्या रखनी पड़ती है। यह तीन कारक हैं किसी भी सॉफ्टवेयर कम्पनी में आवश्यकता से अधिक व्यक्ति होने के। अब इस स्थिति में, किसी भी समय लगभग 10% इन्जीनियरों के पास कोई भी कार्य नहीं रहता है। इसे "बेन्च स्ट्रेन्थ" के नाम से भी जाना जाता है। कार्यालय उन्हे आना पड़ता है, बिना किसी कार्य के, कुछ भी आकर पढ़िये, कुछ भी आकर करिये। कुछ दिन ही ठीक लगता है यह हल्कापन। व्यस्तता के चरम से कुछ न कर पाने की यह स्थिति असहनीय मानसिक तनाव लाती है। मनोरोग और आध्यात्म के रूप में इस मानसिक तनाव की दिशा ढूढ़ते देखा है इन युवाओं को।

यहाँ सरकारी वेतनमानों से बहुत अलग, वेतन प्रदर्शन पर निर्भर होता है। सॉफ्टवेयर कम्पनियों का वैश्विक स्वरूप विदेशों में कार्य करने के कई अवसर भी देता है। एक होड़ सी मची रहती है बाहर जाने की, गलाकाट प्रतियोगिता आगे निकलने के लिये। 24 घंटे कार्य करने की लगन और स्वास्थ्य व परिवार को भुलाकर कम्प्यूटरीय भाषा में डूबे रहने का क्रम और असाधारण व्यक्तित्वों को निर्मित करती यह जीवन शैली।

वेतन बहुत अधिक होने से घर, गाड़ी, धन आदि जीवन के अवयव 35 वर्ष का होते होते आ जाते हैं। अब कोई क्या करे, और धनार्जन? सरकारी सेवाओं में रिटायरमेन्ट का अर्थ होता है, इतना धन जिससे जीवन के इन अवयवों का अर्जन हो सके। अब 35 वर्ष के बाद क्या करे सॉफ्टवेयर इन्जीनियर? यहाँ से कई राहें निकलती देखी हैं। प्रतिभावान प्रोग्रामर सॉफ्टवेयर के निर्माण के किसी विशेष अंग के आधार पर अपनी अलग कम्पनी खोल लेते हैं, अपनी कम्पनी के स्वामी। प्रतिभावान प्रबन्धक अपने अर्जित धन से नया व्यवसाय डाल देते हैं। शेष सॉफ्टवेयर निर्माण के कार्य में यथावत लगे रहते हैं, बिना किसी विशेष प्रेरणा के। जीवन को गति में जीने की लत, एक अवस्था के बाद रिक्तता उत्पन्न करने लगती है विचारों में।

पीड़ा के स्वर, भले ही प्रगति के महानाद में छिप जायें, भले ही धन की अधिकता में विलीन से हो जायें हैं और भले ही कूट भाषा की शक्ति के मद में अनुभव न हों, पर हैं यथार्थ। उसे झेलकर देश की गरिमा को उन्नत करने में लगे युवा हमारे अपने हैं। हम भी इसे समझें और इस व्यवसाय से जुड़े अपने परिचितों और सम्बन्धियों को वह मानसिक दृढ़ता प्रदान करें जिसकी स्पष्ट माँग वे हमसे नहीं करते हैं।

1.1.11

मायके जाने का सुख

आप पढ़ना प्रारम्भ करें, उसके पहले ही मैं आपको पूर्वाग्रह से मुक्त कर देना चाहता हूँ। आप इसमें अपनी कथा ढूढ़ने का प्रयास न करें और मेरे सुखों की संवेदनाओं को पूर्ण रस लेकर पढ़ें। किसी भी प्रकार की परिस्थितिजन्य समानता संयोगमात्र ही है।

मायके जाना एक सामाजिक सत्य है और एक वर्ष में बार बार जाना उस सत्य की प्राण प्रतिष्ठा। पति महत्वपूर्ण है पर बिना मायके जाये सब अपूर्ण है। कहते हैं वियोगी श्रंगार रस, संयोगी श्रंगार रस से अधिक रसदायक होता है, बस इस सत्य को रह रह कर सिद्ध करने का प्रयास भर है, मायके जाना। कृष्ण के द्वारिका चले जाने का बदला सारी नारियाँ कलियुग में इस रूप में और इस मात्रा में लेंगी, यदि इसका जरा भी भान होता तो कृष्ण दयावश गोकुल में ही बस गये होते। अब जो बीत गयी, सो बीत गयी।

पुरुष हृदय कठोर होता है, नारी मन कोमल। यह सीधा सा तथ्य हमारे पूर्वज सोच लिये होते तो कभी भी उल्टे नियम नहीं बनाते और तब विवाह के पश्चात लड़के को लड़की के घर रहना पड़ता। तब मायके जाने की समस्या भी कम होती, वर्ष में बस एक बार जाने से काम चल जाता और बार बार नये बहाने बनाने में बुद्धि भी नहीं लगानी पड़ती। अपने घर में बिटिया को मान मिलता और दहेज की समस्या भी नहीं होती। लड़की को भी नये घर के सबके स्वादानुसार खाना बनाना न सीखना पड़ता। यदि खाना बनाना भी न आता तब भी कोई समस्या नहीं थी, माँ और बहनें तो होती ही सहयोग के लिये हैं। सास-बहू की खटपट के कितने ही दुखद अध्याय लिखे जाने से बच जाते। कोई बात नहीं, ऐतिहासिक भूलें कैसी भी हो, अब परम्परायें बन चुकी हैं, निर्वाह तो करना ही पड़ेगा।

विवाह करते समय यह आवश्यक है कि लड़की कोई न कोई पढ़ाई करती रहे, अपने मायके के विश्वविद्यालय में। इससे जब कभी भी मन हो, मायके आने की स्वतन्त्रता और अवसर मिलता रहेगा, पढ़ाई जैसा महत्वपूर्ण विषय जो है। विवाह के बाद मायके पक्ष के अन्य सम्बन्ध और प्रगाढ़ हो जाते हैं। चचेरे-ममेरे-मौसेरे रिश्तों की तीन-चार पर्तें जीवन्त हो जाती हैं, बिना उनके उत्सवों में जाये काम नहीं चलेगा, चाहे अन्नप्राशन ही क्यों न हो। विवाह आदि महत उत्सवों के चारों अवसरों पर जाना बनता है, कहीं बुरा मान गये तो।
  
बच्चे आदि होने के बाद, उनके पालन सम्बन्धी विषयों पर विशेष सलाह लेने का क्रम मायके जाने का योग बनाता रहता है। दो बच्चों में लगभग 7 वर्ष इस प्रकार निकल जाते हैं। अब इतनी बार आने जाने में बच्चों को भी नानी का घर सुहाने लगता है, मान लिया आपकी तो इच्छा नहीं है पर बच्चों का क्या करें, उनके लिये ही चले जाते हैं।

इस दौड़ धूप से थोड़ी बहुत स्थिरता यदि मिल पाती है तो उसमें विद्यालयों के अनुशासन का विशेष योगदान है। यदि उपस्थिति का इतना महत्व न दिया जाता तो मायके में एक ट्यूटर रख बच्चों की पढ़ाई की भरपाई तो की ही जा सकती थी। छुट्टियाँ होने के तीन दिन पहले से ही पैकिंग प्रारम्भ हो जाती है जिससे कि बिना समय व्यर्थ किये हुये प्रस्थान किया जा सके और अधिकतम समय ननिहाल में मिल सके बच्चों को।

मायके के संदर्भों में बुद्धि को कल्पना के विस्तृत आयाम मिल ही जाते हैं, जहाँ चाह, वहाँ राह। श्रीमतीजी की बुद्धि का विकास और पति की तपस्या, यह दो सुदृढ़ पहलू हैं, मायकेगमन के।

पहले दिन से ही भटकन, सब प्रकार की। क्या कहाँ रख कर चली गयी हैं? इसी बहाने मोबाइल पर कई बार बात होने से संवाद जैसी स्थिति बनी रहती है और यह संदेश भी जाता है कि बिना आपके जीवन कितना कठिन है। सतीश पंचम जी की खाना बनाने की व्यथा और होटलों में जाकर खाने का क्रम, तपस्या को चिन्तनप्रधान बना देते हैं। पहले तो टेलीविजन देखने को ही नहीं मिलता था, अब यह समझ में नहीं आता है कि क्या देखें, क्या न देखें? सास-बहूनुमा कथा-भँवरों से बाहर भी टेलीविजन की सार्थकता है, केवल इसी समय समझा और देखा जा सकता है।

समय की उपलब्धता और निरीक्षणों की अधिकता में प्रशासनिक कार्य गति पकड़ लेता है, आत्मसंतुष्टि का एक और अध्याय। लम्बी यात्राओं में नये विचार और लेखन, फलस्वरूप यह पोस्ट।

पोस्ट की पूर्वतरंगों से करुणामयी हो, श्रीमतीजी 20 दिन के स्थान पर 15 दिनों में ही वापस आ गयी हैं, कल, वर्ष के अन्तिम क्षणों में। मायके जाने के सुख को पुनः एक बार विश्राम और अगले एक वर्ष तक मायके न जाने के वचन जैसी कुछ उद्घोषणा। "कोई मैके को दे दो संदेश, पिया का घर प्यारा लगे।" 

अब यह पोस्ट डालने की इच्छा तो नहीं रही पर जब लिख ही ली है तो सुख बाँट लेते हैं।