5.1.11

आईटी की पीड़ा

पिछले दो दशक अपनी उन्नति के गर्व में मदमाये खड़े हैं। आईटी ने विश्व को अपरिवर्तनीय दिशा दे दी है, अब चाह कर भी कोई पुरानी राहों पर लौटकर न जा पायेगा। बलात ही सही, सबको बढ़ना तो पड़ेगा ही। इस बदलाव को स्वप्नोत्तर प्रत्यक्ष रूप देने में भारतीय युवाओं की क्षमताओं और प्रयत्नों का विशेष योगदान रहा है। कूट भाषा में अपने आदेशों को लिखकर, उनके माध्यम से बड़े बड़े संयन्त्रों को चला लेने का सहज-कर्म प्रतिदिन विस्तार पा रहा है। नित नये क्षेत्र इस परिधि में सिमटते जा रहे हैं। जो व्यवसाय आईटी से दूर हैं, उन्हें प्रबन्ध-गुरु हेय दृष्टि से देख रहे हैं। जिस प्रकार रात में शारीरिक थकान को विश्राम मिलता है, अमेरिका की रातों में भारतीय प्रतिभायें कार्य कर उनका प्रभात विघ्नविहीन करने में लगी रहती हैं। व्यावसायिक उन्मत्तता ने रात-दिन के व पूर्व-पश्चिम के अन्तर को मिटा डालने की कसम सी खा ली है।

इस उद्देश्य के लिये पूरी की पूरी सेनाओं का गठन हो रहा है, विश्वविजय की रणभेरी रह रह कर सुनायी पड़ती है प्रतिदिन। बंगलोर इस विश्वविजयी अभियान का प्रमुख गढ़ है। इस क्षेत्र से सम्बन्धित कुछ अन्य तथ्यों को बंगलोर में रह कर ही समझ पाया हूँ। 15 वर्ष पहले आईटी को सिविल सेवा के लिये छोड़ देने से यह अनुभव प्रत्यक्ष नहीं रहा पर यदि इस क्षेत्र में रहता तो उस पीड़ा को और ढंग से व्यक्त कर पाता जिसके स्वर कभी इस नगर के बाहर नहीं निकल पाते हैं।

पहला तो नये प्रशिक्षुओं को प्रशिक्षित करने में लगभग एक वर्ष का समय लगता है। दूसरा, अधिक पैसों के लिये कम्पनी छोड़कर आने जाने वालों की संख्या भी अधिक रहती है। तीसरा, किसी नये कार्य को प्राप्त करने के लिये और प्रथम दिन से ही उसका निष्पादन करने के लिये हर समय अतिरिक्त सॉफ्टवेयर इन्जीनियरों की संख्या रखनी पड़ती है। यह तीन कारक हैं किसी भी सॉफ्टवेयर कम्पनी में आवश्यकता से अधिक व्यक्ति होने के। अब इस स्थिति में, किसी भी समय लगभग 10% इन्जीनियरों के पास कोई भी कार्य नहीं रहता है। इसे "बेन्च स्ट्रेन्थ" के नाम से भी जाना जाता है। कार्यालय उन्हे आना पड़ता है, बिना किसी कार्य के, कुछ भी आकर पढ़िये, कुछ भी आकर करिये। कुछ दिन ही ठीक लगता है यह हल्कापन। व्यस्तता के चरम से कुछ न कर पाने की यह स्थिति असहनीय मानसिक तनाव लाती है। मनोरोग और आध्यात्म के रूप में इस मानसिक तनाव की दिशा ढूढ़ते देखा है इन युवाओं को।

यहाँ सरकारी वेतनमानों से बहुत अलग, वेतन प्रदर्शन पर निर्भर होता है। सॉफ्टवेयर कम्पनियों का वैश्विक स्वरूप विदेशों में कार्य करने के कई अवसर भी देता है। एक होड़ सी मची रहती है बाहर जाने की, गलाकाट प्रतियोगिता आगे निकलने के लिये। 24 घंटे कार्य करने की लगन और स्वास्थ्य व परिवार को भुलाकर कम्प्यूटरीय भाषा में डूबे रहने का क्रम और असाधारण व्यक्तित्वों को निर्मित करती यह जीवन शैली।

वेतन बहुत अधिक होने से घर, गाड़ी, धन आदि जीवन के अवयव 35 वर्ष का होते होते आ जाते हैं। अब कोई क्या करे, और धनार्जन? सरकारी सेवाओं में रिटायरमेन्ट का अर्थ होता है, इतना धन जिससे जीवन के इन अवयवों का अर्जन हो सके। अब 35 वर्ष के बाद क्या करे सॉफ्टवेयर इन्जीनियर? यहाँ से कई राहें निकलती देखी हैं। प्रतिभावान प्रोग्रामर सॉफ्टवेयर के निर्माण के किसी विशेष अंग के आधार पर अपनी अलग कम्पनी खोल लेते हैं, अपनी कम्पनी के स्वामी। प्रतिभावान प्रबन्धक अपने अर्जित धन से नया व्यवसाय डाल देते हैं। शेष सॉफ्टवेयर निर्माण के कार्य में यथावत लगे रहते हैं, बिना किसी विशेष प्रेरणा के। जीवन को गति में जीने की लत, एक अवस्था के बाद रिक्तता उत्पन्न करने लगती है विचारों में।

पीड़ा के स्वर, भले ही प्रगति के महानाद में छिप जायें, भले ही धन की अधिकता में विलीन से हो जायें हैं और भले ही कूट भाषा की शक्ति के मद में अनुभव न हों, पर हैं यथार्थ। उसे झेलकर देश की गरिमा को उन्नत करने में लगे युवा हमारे अपने हैं। हम भी इसे समझें और इस व्यवसाय से जुड़े अपने परिचितों और सम्बन्धियों को वह मानसिक दृढ़ता प्रदान करें जिसकी स्पष्ट माँग वे हमसे नहीं करते हैं।

76 comments:

  1. यह परिवेश-विशेष में ही अच्‍छी तरह महसूस किया जा सकता है.

    ReplyDelete
  2. एक भेडचाल है अपने यहा जो इस समय आईटी और एम बी ऎ की तरफ़ चल रही है . हद तो यह है हमारे यहा के छोटे शहरो मे खुले छोटे स्तर्हीन कालेज भी आईटी मे बीई करा रहे है . और स्तरहीन विद्धार्थी ग्लेमर मे इन्जीनियरिंग कर रहे है .
    प्लेसमेंट भी नही हो पा रहा है . क्षमता से कम पर नौकरी कर रहे ज्यादा लोग ही मान्सिक तनाव से पीडित है

    ReplyDelete
  3. बेन्च-स्ट्रेंथ शब्द से परिचित हुआ //
    मेरे विचार से सोफ्ट वेयर इंजिनियर के अनाप शनाप पैसे कमाने और खर्च के कारण मंहगाई भी बढ़ी है
    मेरे दुसरे ब्लॉग "२१ वी सदी का इन्द्रधनुष " पर भी कभी भ्रमण करे //

    ReplyDelete
  4. प्रवीण जी
    आपका ध्यान जिस दिशा की तरफ गया है ..बहुत सार्थक विषय को चुना है आपने ....आज के युवा पैसा और शोहरत दोनों के लिए कार्य कर रहे है ..परन्तु पैसा उनका मुख्य लक्ष्य है ..इस लिय विदेश जाने से भी हिचक नहीं ...बहुत बढ़िया

    ReplyDelete
  5. गुडगांव में स्थित आईटी कम्पनियों में भी यही हाल है इस क्षेत्र में पैसा तो है पर कार्य के दौरान दिए टार्गेट पुरे करने का मानसिक तनाव व दिन रात की कार्यप्रणाली स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव डालती है साथ ही कम उम्र में एकदम से अर्जित ज्यादा धन भी उन्हें गलत राहों पर भटका देता है |

    ReplyDelete
  6. सूचना प्रोद्योगिकी ने देश के विकास में अहम् योगदान दिया है और हर विकास के अपने फायदे नुकसान तो है ही . ये सच है की ऊँची वेतनभोगी प्रवृति, अस्थिरता और कार्य निष्पादन के अनिश्चित समय से , इस विशेष क्षेत्र के प्रतिपादको को ढेर सारी समस्या का सामना करना पड़ता है.

    ReplyDelete
  7. ... samay va dishaa ke anukool ... saarthak charchaa !!

    ReplyDelete
  8. प्रवीण जी
    नमस्कार !
    सार्थक विषय को चुना है आपने
    भले ही धन की अधिकता में विलीन से हो जायें हैं और भले ही कूट भाषा की शक्ति के मद में अनुभव न हों, पर हैं यथार्थ। उसे झेलकर देश की गरिमा को उन्नत करने में लगे युवा हमारे अपने हैं। हम भी इसे समझें और इस व्यवसाय से जुड़े अपने परिचितों और सम्बन्धियों को वह मानसिक दृढ़ता प्रदान करें जिसकी स्पष्ट माँग वे हमसे नहीं करते हैं।

    ReplyDelete
  9. सार्थक, समीचीन और सुन्दर विश्लेषण.

    ReplyDelete
  10. समय की मार है और भौतिकतावाद का दु्परिणाम भी..

    ReplyDelete
  11. भरपूर वेतन के साथ यदि इनकी व्यस्तता की ओर देखा जावे तो परिवार के नाम पर कई बार मात्र कुछ घंटे भी रविवार जैसे दिनों तक में निकाल पाना इनके लिये मुश्किल ही दिख पाता है ।

    ReplyDelete
  12. बहुत ही सही विषय उठाया है आपने इस आलेख में ...आज पूर्णत: यही माहौल व्‍याप्‍त हो चुका है चाहे वह एम.बी.ए. हो या फिर आई टी ..।

    ReplyDelete
  13. kafi saarthak vishay aur uska vishleshan

    ReplyDelete
  14. सूचना प्रोद्योगिकी ने उत्पादन के साधनों को बदल दिया है। उत्पादन के साधन ही वे चीज हैं जो समाज को भी बदलते हैं। तैयार रहिए, समाज के बदलाव के लिए वह दरवाजे पर ही खड़ा है।

    ReplyDelete
  15. हर क्रांति की कीमत चुकानी होती है. यह कुछ ऐसा ही है.

    ReplyDelete
  16. आदमी को सुखपूर्वक जीवन चलाने के लिए कितना पैसा चाहिए? ऐसा जीवन जिसमें मन संतुष्ट रहे?

    इस के उत्तर में अधिकतम की सीमा नहीं खींची जा सकती। हाँ न्यूनतम आवश्यकताओं की सीमा बनायी जा सकती है। लेकिन आज के युवा अधिकतम के पीछे भाग रहे हैं जिसका अंत नहीं है। यह भागमभाग आपके व्यक्तित्व के तमाम दूसरे कोमल पक्षों की बलि तो लेगी ही।

    ReplyDelete
  17. गलाकाट प्रतियोगिता में मशीनी जीवन जीने को बाध्य होते इस वर्ग पर खूब दृष्टि डाली है आपने ...
    सामयिक विश्लेषण ..!

    ReplyDelete
  18. बेंच पर बैठना, इस शब्‍द की पीड़ा मैंने भी देखी है अपने ही घर में। सारी दुनिया में कहीं भी ट्रांस्‍फर होने का दर्द भी। मेरा भी बहुत मन था इस विषय पर लिखने को लेकिन लगा कि यह व्‍यक्तिगत बात हो जाएगी। यह भी सच है कि पैसे के बाद भी जीवन खाली सा ही लगता है। लेकिन ये लोग अपने जीने को हमसे बेहतर मानते है। ओर हम अपने को। यह तो अन्‍तर है जो हमेशा ही रहेगा।

    ReplyDelete
  19. आई टी ने विश्व को कितना दिया यह तो पता नहीं मगर हमारा और हमारे देश का नाम जरूर चमका दिया है ! कभी सोंचना भी संभव नहीं था की हम भी कभी टेक्नोलोजी में कहीं खड़े हो पाएंगे !
    बाकी चिंताएं ठीक एवं जायज हैं...
    शुभकामनायें

    ReplyDelete
  20. आज का यर्थाथ है।

    ReplyDelete
  21. sarthak aur samsaamyik vishay par chintan ...pise kamaane ki hod men sab lage hain ...jeevan shaily aisi hai ki kaam ka tanaav bhi bahut hai ...sarthak lekh

    ReplyDelete
  22. iss IT ne vastav me bharat ke parivar vyavastha pe waar kiya, bahut paise diye lekin...samay usne inn nau jawano se chhin liya...aur isssi peera me wo apne ko late night parties me dubone lage...:(

    par haan, kuchh pane ke liye kuchh to khona hi parega....
    hamari arth vyavastha ko IT ne majboot kiya, hamari world me pahchaan bhi bani...:)

    ek saargarbhit lekh...

    ReplyDelete
  23. आईटी के बदलाव से बहुत बेहतर ढंग से आपने रूबरू कराया। इसके पहले ए कॉल सेंटर (चेतन भगत की लिखी हुई) पढ़कर एक नए रोजगार क्षेत्र की पीड़ा समझने का अवसर मिला था। तकनीकी बदलाव और आधुनिक आर्थिक ढांचे ने सबको रोजी-रोटी तक ही सीमित कर दिया है। अभी भी गांव के लोग ज्यादा सोचते हैं, ज्यादा भावनात्मक होते हैं। शहरी क्षेत्र, खासकर महानगरों में रहने वाली ९५ प्रतिशत आबादी तो रोटी के जुगाड़ में ही जिंदगी बिता देती है, लक्ष्य होता है कि एक फ्लैट हो जाए (२२वीं मंजिल पर ही सही), एक १० लाख की गाड़ी हो जाए। सपने देखने वाला बड़ा तबका तो यह सपने देखने में ही मर जाता है। पांच प्रतिशत को रोटी की चिंता नहीं होती, लेकिन उन्हें भी कभी यह सोचते नहीं पाया कि आखिर इतना कमा कर क्या होगा, मरने के बाद क्या होगा, अगर मर ही जाना है तो इतना कमाकर रखने का क्या मतलब है? पहले ये सब बातें शायद ज्यादा सोची जाती थीं और ज्यादा हायतौबा भी नहीं थी कि किसी तरह से खूब पैसे कमाए जाएं।

    ReplyDelete
  24. हमारे यहां बहुत से लोग भारत से आते हे आईटी वाले अलग अलग कमपनियो मे, जो दिन मै १८,२० घंटे काम करते हे, शनि इतवार भी लगे रहते हे, तो जिन्दगी कहा रह गई? इन की शकले देखो आंखे सुजी हुयी, हाथ पेर कापते हुये, आप के पास बेठे बेठे सोने लग जायेगे,एक दुसरे से आगे निकलने के लिये ज्यादा से ज्यादा मेहनत, ओर बाकी मै धीरु जी की टिपण्णी से सहमत हुं, सच मे यह एक भेडचाल ही हे.
    धन्यवाद

    ReplyDelete
  25. bahut hi sunder vishleshan kiya hai aapne....

    ReplyDelete
  26. भुक्त भोगी वेदना है ..पर कर क्या सकते हैं.

    ReplyDelete
  27. ‘बलात ही सही,...’

    पैतीस वर्ष के बाद बलात्कारी ही सही :)

    ReplyDelete
  28. विचारणीय सारगर्वित आंखे खोल देने वाला आलेख ... रोचक जानकारीपूर्ण ....आभार

    ReplyDelete
  29. सार्थक विश्लेषण

    ReplyDelete
  30. आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
    प्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
    कल (6/1/2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
    देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
    अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
    http://charchamanch.uchcharan.com

    ReplyDelete
  31. आपने बहुत ही अच्छा विश्लेषण किया है.... गलाकाट इस प्रतिस्पर्धा के दौर में जो सफल हो गया उसे तो सब कुछ है मगर जो ज्यादा सफल नहीं हो सका उसके लिये मानसिक वेदना भी है... सुंदर प्रस्तुति .

    ReplyDelete
  32. वास्तव में पूर्व और पश्चिम का अंतर मिटा कर रात और दिन बराबर करने वाले इन युवाओं की पीड़ा असहनीय ही है योग ध्यान और अध्यात्म ही इनके तनाव को काम कर सकता है .

    ReplyDelete
  33. पांच-छह साल पहले जब ’बेंच स्ट्रेंथ’ कनसेप्ट से परिचय हुआ था, अपने को तो ये एक तरह की लग्ज़री ही लगा था। आपके द्वारा इंगित पक्ष की तरफ़ भी सोचा था, लेकिन शायद ’grass is greener on other side' वाली बात हो, वर्ष में महीना भर तो इसका आनंद हम जैसे सरकारी दामादों को भी मिले तो कोई बुराई नहीं:))

    ReplyDelete
  34. "पीड़ा के स्वर, भले ही प्रगति के महानाद में छिप जायें, भले ही धन की अधिकता में विलीन से हो जायें हैं और भले ही कूट भाषा की शक्ति के मद में अनुभव न हों, पर हैं यथार्थ। "

    ReplyDelete
  35. Anonymous5/1/11 20:24

    आपकी वेदना स्वाभाविक है!

    ReplyDelete
  36. सार्थक, समीचीन और सुन्दर विश्लेषण|

    ReplyDelete
  37. काली अंधेरी सुरंग के उसपार उजाले की कहावत और काली घटाओं के बीच तड़ित का प्रवाह तो बहुत सुना था, किंतु पहली बार एक रुपहली चादर पर कालिमा आपने दिखाई है.

    ReplyDelete
  38. This is the first time I am visiting your blog. I am impressed with your intro "ना अधिक ऊँचाईयों में उड़ सकेगा, ना धरा के बन्धनों में बँध रहेगा, मिले कोई भी दिशा, वह बढ़ चलेगा. संग मेरे, क्षितिज तक, मेरा परिश्रम ।"

    And I must say despite not being from IT,you know it quite well. :)

    Bench ki baat maine bhi is lekh me ki hai..shayad aapko pasand aaye...
    http://achchikhabar.blogspot.com/2010/12/frequently-used-office-jargonslingos-in.html

    Also,congratulations for being a part of Indian Railways, the biggest employer in the world

    ReplyDelete
  39. सत्येन्द्र जी की टिपण्णी से सहमत।

    ReplyDelete
  40. "हम भी इसे समझें और इस व्यवसाय से जुड़े अपने परिचितों और सम्बन्धियों को वह मानसिक दृढ़ता प्रदान करें जिसकी स्पष्ट माँग वे हमसे नहीं करते हैं।"

    मार्मिक.

    आईटी की यह समस्या हम समझते हैं - मगर क्या करें - यह सबसे अच्छा और आसान विकल्प है :-)

    आईटी पर मैंने बहुत लेख पढ़े हैं मगर आपके लेख सा यह मानवीय दृष्टिकोण पहली बार देख रहा हूँ. बहुत-बहुत अच्छा लेख!

    ReplyDelete
  41. अनजाने दर्द का एहसास कराती सार्थक पोस्ट।

    ReplyDelete
  42. .
    .
    .
    सहमत हूँ आपसे।


    ...

    ReplyDelete
  43. पता है लेकिन फिर भी मैं सॉफ्टवेर फिल्ड में ट्रांजिसन की बात सोच रहा हूँ :(

    ReplyDelete
  44. बहुत सार्थक विषय को चुना है आपने

    ReplyDelete
  45. बहुत ही सही विश्लेषण |

    ReplyDelete
  46. १--व्यस्तता के चरम से कुछ न कर पाने की यह स्थिति असहनीय मानसिक तनाव लाती है। मनोरोग और आध्यात्म के रूप में इस मानसिक तनाव की दिशा ढूढ़ते देखा है इन युवाओं को।
    २----पीड़ा के स्वर, भले ही प्रगति के महानाद में छिप जायें, भले ही धन की अधिकता में विलीन से हो जायें , और भले ही कूट भाषा की शक्ति के मद में अनुभव न हों, पर हैं यथार्थ”..
    ---बहुत ही यथार्थ, यथातथ्य विश्लेषण...बधाई
    ---यह सुख की आकान्क्षा/खोज में आनन्द की भेंट्चढाना है...

    ReplyDelete
  47. बड़े मल्टी नॅशनल आई टी कंपनियों ने बड़े अच्छे से भारतीयों की नब्ज पकड़ी है... अपने देशों में हजार डेढ़ हजार और दो हजार डालरों में अठारह से बीस घंटे काम करने वाले कर्मचारी उनके लिए सपना ही हैं,जबकि इतने पैसे फेंक भारत में उन्हें एक से एक प्रतिभाएं मिल जाती हैं..ग्लोरिफाइड मजदूरों का यह तबका दिनोदिन फैलता परसरा ही जा रहा है.भेड़ों की एक विशाल भीड़ तैयार होती जा रही है..परन्तु इनका भविष्य सचमुच सोचनीय है...

    एक समय था कि नौकरी का मतलब था निश्चितता और निश्चिंतता.. ये दोनों अब आज के नौकरी से गायब हो चुके तत्व हैं.. भविष्य किस ओर जा रहा है,कम से कम अभी तो स्पष्ट नहीं दिख रहा...

    ReplyDelete
  48. पीड़ा के स्वर, भले ही प्रगति के महानाद में छिप जायें, भले ही धन की अधिकता में विलीन से हो जायें हैं और भले ही कूट भाषा की शक्ति के मद में अनुभव न हों, पर हैं यथार्थ। उसे झेलकर देश की गरिमा को उन्नत करने में लगे युवा हमारे अपने हैं।


    बहुत सटीक बात लिखी है -
    very thoughtfull post .

    ReplyDelete
  49. महीनों से एक पोस्‍ट क नोट्स रखे हुए हैं। आपने उसकी प्रभावी भूमिका बना दी है। आपका शब्‍द-शब्‍द सचाई बखानता है।

    ReplyDelete
  50. मशीन बन गयी है ये युवापीढ़ी...और सुविधासंपन्न होने की वजह से इन्हें कोई सहानुभूति भी नहीं मिलती .

    ReplyDelete
  51. Potential gold mines found in Kerala!!!!

    ReplyDelete
  52. लगता है यही वक़्त की ज़रूरत है।

    ReplyDelete
  53. मेरे कई संबंधी आईटी के क्षेत्र में हैं. धनार्जन आवश्यक है. मानसिक थकान और शारीरिक निष्क्रियता इस क्षेत्र का सह-उत्पाद है.

    ReplyDelete
  54. यह ठीक है कि लग कर परिश्रम करना पड़ता है ,लेकिन मुक्त मन से जीवन का आनन्द उठाना चाहते हैं , वे अपनी पूरी कोशिश करते हैं कि साधन , स्वच्छ सुन्दर ,सुविधापूर्ण परिस्थितियाँ बनी रहें ,पग-पग पर अटकाव और कुंठित मानसिकताएं उनकी बाधा न बने .अपने देश में व्यवस्था के दोष हमेशा मानसिकता पर हावी रहते हैं ,जीवन की तीव्र गति और दिन प्रतिदिन बढ़ती आवश्यकताएं हर क्षेत्र मे यही परिदृष्य उत्पन्न कर रही हैं .
    देश से बाहर काम का बोझ है पर कुंठित नहीं हैं वे
    जीवन की लडाई हर जगह और हर क्षेत्र में लड़नी पड़ती है .

    ReplyDelete
  55. आप से सहमत हूं...

    ReplyDelete
  56. प्रवीन भैया बहुत अच्छी पोस्ट....
    परन्तु मंहगाई डायन के जमाने में हम सरकारी नौकरों से तो बेहतर ही जीवन है उनका ... कम से कम तेल के कुँओं के ख्वाब तो नहीं ही देखते होंगे ......!

    ReplyDelete
  57. सार्थक, समीचीन और सुन्दर विश्लेषण.

    ReplyDelete
  58. सार्थक आलेख आज धीरू भाई की बात बिलकुल सही है। फिर भी न जाने भेड चाल की तरह लोग भागे जा रहे हैं। अशुभकामनायें।

    ReplyDelete
  59. @ Rahul Singh
    लोगों से बातचीत करके इस बारे में पता चल पाता है, वैसे तो कोई भी भुक्तभोगी छिपा ही ले जाते हैं यह व्यथा।

    @ dhiru singh {धीरू सिंह}
    इस क्षेत्र में विकास है, विस्तार है और पैसा है। उसके नाम पर स्तरहीन संस्थान खुल जाते हैं। पर कार्य कम होने के कारण योग्य लोग भी जब कुछ कार्य नहीं कर रहे होते हैं तब बहुत व्यथा होती है उन्हे।

    @ babanpandey 
    बंगलोर में मँहगाई का यह भी एक कारण है।

    @ : केवल राम :
    महत्वाकांक्षा तो होनी ही चाहिये, पर साथ ही साथ जीवन की समग्रता से ध्यान नहीं हटना चाहिये।

    @ Ratan Singh Shekhawat
    निजी क्षेत्र में अधिक कार्य पर ही मिल पाते हैं अधिक पैसे। योग्यता और परिश्रम पर ही निर्भर करता है विकास।

    ReplyDelete
  60. @ ashish
    एक होड़ सी मची है अधिक वेतन में जाने के लिये, स्थिरता की कीमत पर। वैश्विक संस्कृति भारत को घेर रही है अब।

    @ 'उदय'
    बहुत धन्यवाद आपका।

    @ संजय भास्कर
    युवा है, ऊर्जा है, वे लगे रहेंगे और खुलकर नहीं कहेंगे, पर हमें तो सुनना ही है यदि प्रगति को अधिक दिनों तक धारण करना है।

    @ M VERMA
    बहुत धन्यवाद आपका।

    @ भारतीय नागरिक - Indian Citizen
    इस क्षेत्र में भौतिकता की जितनी पैठ है, उतने विस्तृत आध्यात्मिकता के भी पाँव फैले हैं।

    ReplyDelete
  61. @ सुशील बाकलीवाल
    इनका जीवन बड़ा व्यस्त है, रविवार भी पार्टियों में व्यस्त रहते हैं।

    @ sada
    गति की लत लग गयी तो उबरना कठिन हो जायेगा।

    @ रश्मि प्रभा...
    बहुत धन्यवाद आपका।

    @ दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi
    इस बदलाव की बयार चलने लगी है अब।

    @ PN Subramanian
    हमारे युवा कीमत चुका भी रहे हैं।

    ReplyDelete
  62. @ सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी
    यदि यह निश्चय करना कठिन हो जाये कि गति को कहाँ रोकना है तो दौड़ कुछ न कुछ हर ही लेती है, यह तो समझना ही होगा युवाओं को।

    @ वाणी गीत
    सच में जीवन मशीनी हो जाता है।

    @ ajit gupta
    व्यस्तता के पश्चात रिक्तता, लगता है सहसा रिटायर हो गये।

    @ सतीश सक्सेना
    यह बात भी सत्य है कि इसी परिश्रम ने हमें इतना आगे कर दिया।

    @ राजेश उत्‍साही
    और दृष्टिगत भी।

    ReplyDelete
  63. @ संगीता स्वरुप ( गीत )
    एक नशा बनकर उभर रहा है यह व्यवसाय, किसी की भी सुध नहीं।

    @ Mukesh Kumar Sinha
    अधिक पैसा, आत्म-निर्भरता और रात्रिजीवनशैली, सब नया है भारतीय परिवेश के लिये।

    @ satyendra...
    सच कहा आपने, जीवन को नियमित जी लेना और दो तीन बड़े कार्य पूरे जीवन को परिभाषित कर जाते थे। नौकरी में इससे अधिक ऐश्वर्य नहीं था।

    @ akhilesh pal
    बहुत धन्यवाद आपका।

    @ Poorviya
    माया में पीड़ा भी है।

    ReplyDelete
  64. @ राज भाटिय़ा
    पूरे विश्व में भारतीय सर्वाधिक कार्य करने के लिये जाने जाते हैं, जीवन का आनन्द उठाने में बहुत पीछे।

    @ Shaivalika Joshi
    बहुत धन्यवाद आपका।

    @ shikha varshney
    अधिकता के फल हैं यह सब।

    @ cmpershad
    जीवन ऐसे ही खींचना है तब तो।

    @ महेन्द्र मिश्र
    बहुत धन्यवाद आपका।

    ReplyDelete
  65. @ सत्यप्रकाश पाण्डेय
    बहुत धन्यवाद आपका।

    @ वन्दना
    बहुत धन्यवाद इस सम्मान के लिये।

    @ उपेन्द्र ' उपेन '
    सफलता और वेदना इस व्यवसाय के दो पहलू हैं।

    @ गिरधारी खंकरियाल
    संभवतः यही कारण है कि अध्यात्म की ओर बहुत युवा आकर्षित हो रहे हैं।

    @ मो सम कौन ?
    पहले यह शब्द अच्छा लगता है। सरकारिओं को तो इसकी आदत सी ही हो जाती है।

    ReplyDelete
  66. @ पी.सी.गोदियाल "परचेत"
    इस सत्य को बड़े पास से देखा है।

    @ डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक"
    अधिकतर की वेदना इसी प्रकार की है।

    @ Patali-The-Village
    बहुत धन्यवाद आपका।

    @ सम्वेदना के स्वर
    चकाचौंध में बहुता यह सत्य छिप जाता है।

    @ Gopal Mishra
    बहुत धन्यवाद उत्साहवर्धन का।

    ReplyDelete
  67. @ ZEAL
    बहुत धन्यवाद आपका।

    @ Saurabh
    यदि हम अग्रिम पंक्ति में स्वयं न खड़े रह पायें तो उनका ख्याल तो कर ही सकते हैं जो वहाँ जूझ रहे हैं।

    @ देवेन्द्र पाण्डेय
    अनुभवजन्य तो नहीं है पर समझा जा सकता है।

    @ प्रवीण शाह
    सहमति का आभार।

    @ abhi
    प्रसन्न रहने वाले हर जगह प्रसन्न रहेंगे।

    ReplyDelete
  68. @ मेरे भाव
    बहुत धन्यवाद आपका।

    @ शोभना चौरे
    बहुत धन्यवाद आपका।

    @ Dr. shyam gupta
    जब सुख की खोज में पैसा पीछे छूट जाता है तब का अध्यात्म निर्मल होता है।

    @ रंजना
    सच कहा आपने, इतने कम डॉलरों में इतने प्रतिभावान युवा और कहाँ मिलते हैं।

    @ anupama's sukrity !
    मानवता तो जंगियों के साथ ही जागती है सर्वप्रथम।

    ReplyDelete
  69. @ विष्णु बैरागी
    अब इस भूमिका पर एक पोस्ट की प्रतीक्षा रहेगी।

    @ rashmi ravija
    यही कारण है कि अपने दुख कहने में हिचकते हैं ये युवा।

    @ G.N.SHAW
    बहुत धन्यवाद आपका।

    @ मनोज कुमार
    प्रगति के आड़े कोई नहीं आयेगा, हम पीछे से थकने वालों को सहारा देने की बात उठा रहे हैं।

    @ Bhushan
    जब सह उत्पाद व्यक्तित्व को उखाड़ने लगें तो ध्यान देना आवश्यक हो जाता है।

    ReplyDelete
  70. @ प्रतिभा सक्सेना
    कुंठित नहीं हैं ये युवा, गति की लत सम्हालनी कठिन पड़ जाती है बस इनके लिये।

    @ Dr Parveen
    बहुत धन्यवाद आपका।

    @ Dr. Sheelendra Gupta
    तेल के अधिक कुओं का भार ही सम्हालते हैं वे।

    @ Mandakini
    बहुत धन्यवाद आपका।

    @ निर्मला कपिला
    इसमें पैसा भी है, संतुष्टि भी है पर अपने हिस्से की पीड़ा भी।

    ReplyDelete
  71. @ Udan Tashtari
    बहुत धन्यवाद आपका। घर के सारे कार्य सम्पन्न होने की बधाई भी।

    ReplyDelete
  72. आज लगता है कि आईटी के बिना भी क्या ये जीवन ऐसे ही चलता ?
    कई बार अब तो यह भी लगता है कि यदि इस ग्लैमर से बचे होते तो भी ठीक रहता.जिनका पेशा है वे तो इसमें अलग तरह से,शौक से,मज़बूरी से जुड़े हैं,पन अपन तो खामखाह ही टांग अड़ाएं हैं !

    ReplyDelete
  73. @ बैसवारी
    किसी भी व्यवसाय को सामाजिक परिवेश से अलग कर के नहीं देखा जा सकता है। समस्याओं को सहने की शक्ति सम्मलित भाव से आती है।

    ReplyDelete