4.5.21

मित्र - ३१ (रविवार की फिल्म)

छात्रावास में जिस समय पहुँचे थे, उस समय टीवी नहीं था। अनुराग ने बताया कि हम लोगों के वहाँ पहुँचने के कुछ दिन बाद ही एशियाड हुआ था, उसी समय टीवी छात्रावास में आया था। टीवी भोजनालय के बगल में ही एक कक्ष में रखा गया था, बड़े पल्लों की एक अल्मारी के अन्दर और बाहर से ताला। चाभी या तो छात्रावास प्रमुख के पास रहती थी या छात्रावास अधीक्षक के पास। लिखित अनुमति के बाद ही उस पिटारे का ताला खुलता था।

जिस समय टीवी आया, वह समय दूरदर्शन पर रविवार की एक फिल्म और बुधवार के चित्रहार का होता था। धीरे धीरे वह बढ़ता हुआ सप्ताह में ३ फिल्म और दो चित्रहार का हो गया। फिर समय आया रविवार के पूर्वाह्नों का जिसमें हास्य विनोद के, प्रेरक, ज्ञानवर्धक और सांस्कृतिक पक्ष के रंगोली जैसे कई रोचक कार्यक्रम आते थे। इन तीनों प्रकार के कार्यक्रमों के लिये प्रारम्भिक समय में बनाये गये नियम ही चलते रहे, थोड़े बहुत बदलावों के साथ।


छात्रावास में बुधवार के चित्रहार के लिये तो संघर्ष नहीं करना पड़ता था, बहुधा अनुमति मिल जाती थी। एक तो यह आधे घंटे का होता था और रात्रि के भोजन के पहले ही समाप्त हो जाता था। उस समय तक गानों में फूहड़ता नहीं पिरोयी जाती थी, संगीत और सुरों का प्राधान्य था, श्रृंगार भी प्रतीकात्मकता से प्रदर्शित होता था, गानों के चयन में सभी भावों की समावेशिता रखी जाती थी। जहाँ छात्रावास आने पर रेडियो छूट गया था, हम सबको चित्रहार अत्यन्त सुखद लगता था।


रविवार पूर्वाह्न के कार्यक्रमों में भी विविधता रहती थी। यह संभवतः सबकी रुचियों के अनुसार तैयार किया गया था अतः इसमें कुछ विशेष आपत्तिजनक निकाल पाना कठिन होता था। टीवी के कार्यक्रमों के पहले रविवार पूर्वाह्न का वह समय हमारे लिये मुख्यतः खेलकूद का होता था। कई लोग इस समय का उपयोग अपने कपड़े धोने में, सामान व्यवस्थित करने में, बाल कटवाने में या आवश्यक वस्तुयें खरीदने के लिये हाट जाने में करते थे। उत्साहित पढ़ाकू छात्र इसी समय का उपयोग अध्ययन कर के शेष समाज से आगे निकलने में करते थे। जब व्यस्त दिनचर्या में कोई समय का टुकड़ा दिखता था तो कल्पना मुखर हो जाती है, हम भी बहुधा पूरे न होने वाले स्वप्न देख लिया करते थे। छात्रावास अधीक्षक के लिये समय व्यर्थ होने की दृष्टि से टीवी की अनुमति न देना उतना सशक्त कारण नहीं था। परीक्षा न हो या कोई अन्य आवश्यक कार्यक्रम न हो तो उसकी भी अनुमति मिल जाती थी।


समय व्यर्थ होना और फूहड़ता, ये दोनों कारक रहते थे जब टीवी देखने की अनुमति नहीं मिलती थी। क्रिकेट के मैचों के लिये स्पष्ट मनाही थी। टेस्ट मैच तो वैसे ही ५ दिन खा जाते थे, टी२० का आविर्भाव हुआ नहीं था, कुछ एकदिवसीय में अनुमति मिल जाती थी। क्रिकेट इतना रुचिकर लगता था कि कुछ न कुछ युक्ति लगाकर हम लोग मैच देख लेना चाहते थे। यह हम लोगों का भाग्य ही कहा जायेगा कि छात्रावास अधीक्षक जी को भी क्रिकेट अत्यन्त प्रिय था और अभी भी है। यद्यपि अन्य बातों पर सहमति नहीं हो पाती थी पर क्रिकेट देखने के लिये हम उत्साहीगण छात्रावास अधीक्षक जी के घर ही पहुँच जाते थे। दोपहर में आधे घंटे का मध्यान्तर हो या सायं का खेल समय या रविवार को पूरा दिन, हम लोग चुपचाप बैठकर क्रिकेट देख लेते थे, कुछ भी नहीं कहा जाता था। हाँ, एक अनकही सी सहमति होती थी कि पढ़ाई में कोई ढील नहीं होनी चाहिये।


रविवार की फिल्म के पहले पूरा संघर्ष होता था। फिल्म का नाम तो समाचारपत्र से पता चल जाता था, साथ में उसके अभिनेता, अभिनेत्री आदि की सूचना उपलब्ध रहती थी। न ही वह फिल्म हमने पहले से देखी होती थी और न ही छात्रावास अधीक्षक जी ने। तब अनुमति मिलने के दो प्रमुख तत्व रहते थे। पहला यह सिद्ध करना कि उस फिल्म में कोई फूहड़ता नहीं है और दूसरा कि वह फिल्म हमारे व्यक्तित्व के विकास में सहायक होगी। अनुमति के लिये लिखे प्रार्थनापत्र में इन दोनों तत्वों का समावेश आवश्यक हो जाता था। सारे छात्रावास की आशाओं का केन्द्रबिन्दु वह प्रार्थनापत्र रहता था जिसमें इन दो तत्वों को सशक्त रूप से अभिव्यक्त करना होता था।


अब आप छात्रावास प्रमुख की मनःस्थिति समझ सकते हैं। एक ओर सबकी आकांक्षायें, दूसरी ओर छात्रावास अधीक्षक की अनुमति और बीच में वह प्रार्थनापत्र जिसमें बिना देखी-सुनी फिल्म का चारित्रिक महिमामंडन करना है। उस समय तो गूगल महाराज भी नहीं थे कि सारी फिल्मों के बारे में तथ्य उपस्थित होते। ऐसे में हमारी कल्पनाशीलता ही हमारी सहायता को आती थी। पता नहीं कि अच्छे निबन्धों का अनुभव प्रार्थनापत्र लिखने में काम आया या प्रार्थनापत्रों में छिटकी कल्पनाशीलता ने हमें अच्छे निबन्ध लिखना सिखाया, पर कई बार हमें अनुमति प्राप्त होने में सफलता मिली। 


कुछ संकेत फिल्म के नाम से मिलते थे। फिल्मों के नाम बहुधा अच्छे ही रखे जाते हैं और उनसे कोई न कोई सकारात्मक पक्ष निकाला जा सकता है। किसी नाम को किस प्रकार से व्यक्तित्व विकास के लिये सहायक दिखाना है, यह आयुर्वेद के उसी सिद्धान्त की तरह था जो कहता है कि हर वनस्पति उपयोगी है, किसी न किसी रोग की दवा है। रही सही कमी अभिनेता और अभिनेत्री पूरा कर देते थे। हर अभिनेता की कोई न कोई देशभक्ति या समाजोत्थान की फिल्म वर्तमान फिल्म की सार्थक समीक्षा में सहायक होती थी। हम लोग प्रार्थनापत्र में क्या लिखकर अनुमति पाते थे और फिल्म की वास्तविकता क्या रहती थी, इसका अन्तर बड़े बड़े फिल्म समीक्षक न कर पायेंगे। हाँ यदि एक आध दृश्य तनिक अनुचित हुये तो उसकी सूचना गुप्तचर यथास्थान पहुँचा देते थे और आगामी मंगलवार को हमें अपने चारित्रिक पतन पर एक लंबा प्रवचन सुनना पड़ता था।


सप्ताह में जब तीन फिल्में आने लगीं तो अनुमति की कथा और भी रोचक हो चली। जानेंगे अगले ब्लाग में।

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