11.5.21

बाँह की पीड़ा - प्रसारण

 

जब सकल विश्व पीड़ासित हो तो बाँह की पीड़ा पर कुछ कहना परिवेश की परिस्थितियों का संवेदनहीन परिहास ही कहा जायेगा। जब काल विकराल हो चला हो, मृत्यु चतुर्दिक ताण्डव कर रही हो, भविष्य अस्थिर हो, स्तब्ध मानवता अपने अस्तित्व में सिकुड़ी पुनः सामान्य क्षणों की प्रतीक्षा में हो, उस समय बाँह की पीड़ा का विषय ले बैठना अनुचित ही कहा जायेगा। सहमत हूँ, न जाने कितनी सूचनाओं पर हृदय विदीर्ण हुआ है, परिचितों, परिजनों और बान्धवों ने अपनों को खोया है। उन सबकी अथाह मानसिक पीड़ा को समझ पाना सरल नहीं है। किसी अन्य प्रकार से उसकी तुलना करना संभव ही नहीं है। उससे तुलना करना या उसकी उपेक्षा करना मेरा उद्देश्य भी नहीं है। मेरे लिये बाँह की पीड़ा के अनुभव साझा करने का एकमात्र उद्देश्य पीड़ा के स्वरूप का विश्लेषण करना है। उस स्वरूप का, जो आती है, सब ध्वंस कर चली जाती है, तब कुछ भी पूर्ववत नहीं रहता है, पुराने साम्यबिन्दु अस्थिर हो जाते हैं, जीवन में नये अंग जोड़ने पड़ते हैं, अस्तित्व को पुनः स्थापित करना पड़ता है, एक पुनर्जन्म सा होता है।


बाँह की पीड़ा कदाचित इतना महत्व न पाती यदि परिस्थितियाँ सामान्य होतीं। पूरा चिकित्सीय तन्त्र कोरोना का त्रास झेल रहा है और यथासंभव उससे जूझ रहा है। ज्ञानदत्तजी ने गाँवों की परिस्थितियों का जो वर्णन किया है उससे हृदय काँप उठता है। इस संकट को पार कर जो सकुशल पहुँच पायेंगे उसमें एक बड़ा योगदान उनकी प्राकृतिक प्रतिरोधक शक्ति का होगा, साथ ही मानसिक इच्छाशक्ति का भी जो उन्हें जीने के लिये प्रवृत्त करेगी। गाँवों की जीवट जीवनशैली संभवतः इन दोनों शक्तियों को देने में समर्थ है क्योंकि नगरों का सुविधाभोगी स्वरूप इस समय अत्यन्त हृदयविदारक दृश्य प्रस्तुत कर रहा है।


आज लगभग एक माह हो आया और अब बाँह की पीड़ा सहनीय है, सामान्य क्रियाकलाप और जीवनक्रम निभा पा रहा हूँ। इस कालखण्ड में पर जो अनुभव किया है, उसे कहना आवश्यक है। प्रकरण कथनीय इसलिये है कि उसमें बहुत कुछ सीखने को मिला। पीड़ा के स्पंदों में दार्शनिकता कहाँ रह जाती है, क्या प्रधान हो जाता है, क्या गौड़ हो जाता है, यह सारे पक्ष उद्घाटित हुये। छोटे छोटे वे तथ्य जिन्हें हम कभी ध्यान भी नहीं देते, वे कपाल फोड़ते हुये आपके चिन्तन में आ धमकते हैं। मन कैसे बलात खींच लेता है, शरीर कैसे अपना दम्भ प्रस्तुत करता है, कैसे तात्कालिकता हावी हो जाती है, दृष्टिकोण चरमराते हैं, प्राथमिकतायें सरकने लगती हैं, एक एक क्षण जीने की जिजीविषा में बड़ी बड़ी योजनायें सहम कर छिप जाती हैं। आनन्द और उन्माद का कालखण्ड तो भोग देकर चला जाता है, व्यक्ति देवत्व का अनुभव करता है। पीड़ा का कालखण्ड जीवन को घूर्ण चूर्ण कर देता है, वह सब सिखा देता है जो देवता समझ भी नहीं सकते। मनुजत्व का यह अभिमान देवों के लिये भी ईर्ष्या का विषय है, देव कहाँ पीड़ा पाते हैं? पीड़ा के पथ पर सचेतन जाने की आवश्यकता है। यदि पीड़ा से आप निष्क्रिय हो अचेत पड़े रहें या पीड़ा के लक्षणों को तुरन्त शमित करने में लग जायें तो वह सब समझना संभव नहीं है जो पीड़ा सिखाने में सक्षम है।


एक माह पहले टीका लगवा लिया था, ४५-५९ वर्ष के नागरिकों के लिये अनुमति के एक सप्ताह बाद ही। एक दिन ज्वर आया, शरीर में ऐंठन हुयी। प्रारम्भिक कोप के बाद शरीर सम्हला पर बाँह में टीके के स्थान पर भारीपन बना रहा। टीके लगने के एक सप्ताह बाद वह पीड़ा पूरे बाँह में फैल गयी, कन्धे के जोड़ों पर और काँख के पास एक विशेष अड़चन और अकड़न सा अनुभव होने लगा। इसे टीका के अपप्रभावों को मानकर मैं पीड़ा सह रहा था। कहते हैं प्रतिरोधक क्षमता का विकास शरीर के अवयवों से ही होता है। शरीर के अन्दर हुयी यह टूट फूट पीड़ा के माध्यम से ही व्यक्त होती है। बाँह की पीड़ा रात्रि के सोने में व्यवधान डालने लगी। इसे टीका का एक सामान्य अपप्रभाव मानकर अधिक ध्यान नहीं दिया पर जब दो दिन के बाद भी कुछ सुधार नहीं हुआ तो एक चिकित्सक मित्र से फोन पर सलाह ली। उन्होंने बताया कि शरीर अपनी तरह से लड़ रहा है, सबको टीका लगने के बाद कुछ असामान्यता आयी है, पीड़ानिवारक औषधि ले लो, रात की नींद पूरी करना आवश्यक है। यद्यपि उस समय नवदुर्गा के व्रत का पाँचवाँ दिन चल रहा था, देवीमाँ से क्षमा माँगते हुये लगभग तीन रातों में पीड़ानिवारक औषधि लीं। 


व्रत समाप्त हुआ, अन्न के प्रभाव में पीड़ा कुछ कम हुयी और लगा कि सब सामान्य हो जायेगा कि सहसा एक सप्ताह बाद बाँह की पीड़ा पुनः भड़क गयी, असहनीय हो गयी। न हाथ उठाये बनता था न कहीं टिकाये बनता था, बस लटकाये रहने पर ही पीड़ा तनिक सहनीय हो पाती थी। इस आस में कि पीड़ा की तीक्ष्णता स्वतः कम हो जायेगी, दो दिन तक सिकाई की और रात्रि में पीड़ानिवारक औषधि ली। जब कुछ लाभ नहीं हुआ तो अपने मौसेरे भाई से विस्तारित चर्चा की। वे हड्डियों के सिद्धहस्त चिकित्सक हैं। पूरे परामर्श में उन्होने पहले मेरे द्वारा व्यक्त आशंकायें सुनी, उसके बाद कई लक्षणों के बारे में कुरेद कुरेद कर पूँछा। सारा क्रम सुनिश्चित करने के बाद पाँच दिन की औषधियाँ दी, सिकाई करने को कहा, पीड़ानिवारक जेल लगाने को कहा, मालिश करने को मना किया।


पाँच दिन पूरे होते होते ऐसा लग रहा था कि कुछ लाभ नहीं हो रहा है। पीड़ा यदि एक सीमा के पार चली जाती है तो अपनी माप खो देती है। कम और अधिक में भेद नहीं रह जाता है, पीड़ा बस पीड़ा रह जाती है। संभवतः वही मेरे साथ भी हो रहा था। यद्यपि आन्तरिक अवयवों में सुधार हो रहा था पर पीड़ा बनी रहने के कारण उसका आभास नहीं हो रहा था। सिकाई, लेपन, विश्राम, औषधि, रात्रि जागरण आदि ही मुख्य गतिविधियाँ हो गयी थी, शेष जीवन में कुछ भी घटित नहीं हो पा रहा था। दिनचर्या पूर्णतया ध्वस्त और अस्तव्यस्त हो चुकी थी और उस समय जीवन का एकमात्र लक्ष्य पीड़ा को सहना और उसके पार निकलना था। वाह्यविश्व की भयावह परिस्थितियों पर बाँह की पीड़ा भारी थी और पूर्णरूपेण व्यापी थी। क्या घटनाक्रम चल रहा है, क्या समय चल रहा है, दिन है कि रात है, सप्ताह का कौन सा दिन आया है, सब गौड़ हो चला था, पीड़ा प्रधान थी।


औषधिकाल समाप्त होने के बाद सहसा सुधार प्रारम्भ हुआ। पीड़ा की तीक्ष्णता कम हुयी, रात्रि में टूटी नींद के कालखण्ड बढ़े, बाँह बाँध कर थोड़ा टहलने का साहस हुआ। दिनचर्या और जीवनक्रम तनिक सामान्य होने की ओर अग्रसर है पर पीड़ा पूरी तरह से लुप्त नहीं हुयी है, समय पाकर स्मृति और शरीर में लहरा जाती है। जिस समय तक आप यह पढ़ रहे होंगे, संभवतः पीड़ा न्यूनतम हो जाये पर स्मृति में उसकी यह हूक आने वाले समय में लम्बी बनी रहेगी। जीवन में पहली बार ऐसा हुआ है कि कोई भी पीड़ा इतने समय तक बनी रही और झकझोर कर चली गयी।


आने वाले ब्लागों में बाँह की पीड़ा का कारण, निवारण और उच्चारण व्यक्त होंगे।

5 comments:

  1. सादर प्रणाम
    परमात्मा से प्रार्थना आप सदैव स्वस्थ रहे।

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    1. गिरीशजी, धीरे धीरे स्वास्थ्य लौट रहा है, आभार आपकी शुभेच्छाओं का।

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  2. इतनी पीड़ा का अंदाज़ा नहीं था ।
    आपके ब्लॉग को फॉलो कैसे करें ? मेरी विशेष सूची में आपका ब्लॉग था लेकिन वो अपडेट नहीं होता ।
    इस कारण आपके ब्लॉग पर आना नहीं हो पाता ।

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    1. संगीताजी, संभवतः ब्लाग का पता बदलने के कारण यह बाधा आ रही हो? http://www.praveenpandeypp.com/ नया डोमेन है।

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