13.5.21

बाँह की पीड़ा - कारण


विज्ञान के प्रयोग बड़े अच्छे लगते थे, सरल होते थे, उनसे व्यवस्थित ज्ञान पाने का अभिमान होता था। शेष को नियत कर एक कारण को घटाया और बढ़ाया जाता था और उसका प्रभाव किसी तत्व विशेष पर देखा जाता था। कारण और कार्य में तब एक संबंध स्थापित होता था, समानुपाती या व्यतिक्रमानुपाती। किसी वस्तु पर बल लगाने से गति उत्पन्न होती है, बल दुगुना कर दिया जाये तो गति भी दुगुनी हो जाती है, बल दुगुने समय के लिये लगाया जाये तब भी गति दुगनी हो जाती है।


एक कार्य में कई कारण होते हैं। वैशेषिक दर्शन बताता है कि कारण मुख्यतः तीन प्रकार के होते हैं, समवायी जो कार्य में प्रमुख रूप से विद्यमान रहते हैं, असमवायी जो कार्य में गौड़ रूप से विद्यमान रहते हैं और निमित्त जो अपना योगदान देकर विलीन हो जाते हैं। कर्म एक निमित्त कारण है, अपना योगदान देकर नष्ट हो जाता है। रासायनिक प्रक्रियाओं में ऊष्मा, तापमान, उत्प्रेरकों को निमित्त कारण माना जा सकता है।


योग को समझा तो उसमें भी एक तत्व पर धारणा करते हुये ध्यान की प्रक्रिया से समाधि की स्थिति प्राप्त की जाती है। निष्कर्ष होता है, उस तत्व का और उससे संबंधित सभी अन्य तत्वों का पूर्ण ज्ञान। जैसे जैसे अभ्यास बढ़ता है, समाधि सविकल्प से निर्विकल्प हो जाती है, कोई वाह्य कारक नहीं रहता है, आत्म पर ही समाधिस्थ, आत्मज्ञान या ऋतम्भरा प्रज्ञा या कैवल्य की स्थिति प्राप्त हो जाती है। स्व में स्थित जीव तब स्वस्थ हो जाता है, सत, चित और आनन्द के स्पंद अनुभव करने लगता है।


विज्ञान, वैशेषिक और योग के इन सिद्धान्तों को जब अपनी पीड़ा के कारण जानने में प्रयुक्त किया तो निश्चित निष्कर्ष नहीं मिले। पीड़ा का स्रोत किसी एक कारण पर नियत नहीं कर सका। एक नहीं लगभग दस संभावित विकल्प दिखे जो कि कारण हो सकते थे। किसका योगदान था, किसका नहीं, इसका निर्धारण करना आवश्यक था क्योंकि पीड़ा का निवारण उसके कारण पर निर्भर करता है। कठिनता इस बात की भी थी कि ये सारे के सारे कारण नैमित्तिक थे। आये और अपना कार्य कर के चले गये, पीड़ा देकर चले गये। समवायी और असमवायी कारणों को तो फिर भी प्रयोगों से या उनकी स्थूल या सूक्ष्म उपस्थिति से पकड़ा जा सकता है, कार्य में लगे नैमित्तिक कारणों का केवल अनुमान किया जा सकता है। अब मुझे उसी अनुमान की प्रक्रिया से होकर जाना था और शंकराचार्य के नेति नेति के सिद्धान्त से मूल कारण तक पहुँचना था।


कार्य जितना वृहद, अस्पष्ट और जटिल होता है, कारण उतने ही व्यापक होते हैं। एक अच्छे स्वास्थ्य के कालान्तर में क्या क्या कारण रहे हैं, बताना सरल नहीं है। क्या किया गया, क्या नहीं किया गया, विधेय और निषेध दोनों ही कारण रूप में आते हैं। अच्छे स्वास्थ्य से साधर्म्य रखने वाले कारण विधेय और वैधर्म्य रखने वाले कारण निषेध। पूरा आयुर्वेद इसी साधर्म्य और वैधर्म्य के सिद्धान्तों पर आधारित है। महान राष्ट्र के क्या कारण रहे, सशक्त संस्कृति के क्या कारक रहे, न जाने कितनों का योगदान रहा, यह विश्लेषण सरल नहीं होता है। इसके विपरीत तात्कालिक कार्य या प्रभाव का कारण पता लगाना सरल होता है क्योंकि उसके कारण भी तात्कालिक होते हैं, वर्तमान या निकट भूत में होते हैं।


सामान्यदृष्ट्या पीड़ा का भी एक निश्चित कारण तो होता ही है। सीमाओं के लंघन का संकेत देती हैं पीड़ायें। शरीर में कुछ चुभन होती है, पीड़ा होती है, संकेत होता है कि कुछ अन्यथा हो रहा है। यदि उसका तत्काल निवारण नहीं किया जायेगा तो बड़ा अनर्थ हो सकता है। शरीर के रक्षातन्त्र का सुचारु रूप से चलते के लिये संकेत देती रहती है पीड़ा। स्थूल विकार हो या सूक्ष्म, पीड़ा कई रूपों में आकर संकेत देती है। मुझे कभी भी कुछ उदर विकार होता है तो सर में तनिक भारीपन आ जाता है। यह एक स्पष्ट संकेत होता है कि आप तुरन्त उस असामान्य परिस्थिति का विश्लेषण करें, तत्पश्चात उसका निवारण करें। यही मानसिक पीड़ाओं में भी होता है। हमारा एक मानसिक विश्व होता है, उसकी सीमाओं का अतिक्रमण हमें पीड़ा पहुँचाता है। कोई हमारे प्रतिकूल जाता है तो हमें दुख होता है, पीड़ा होती है। जब हमारे अहं की सीमाये दूसरों को प्रभावित करती हैं तो उनको पीड़ा होती है। पीड़ा के इन संकेतों का होना प्रकृति को अपना स्थैर्य बनाये रखने के लिये नितान्त आवश्यक है।


सामान्य परिस्थितियों में पीड़ा भी एक सीमा में ही आती है, संकेत देने के लिये। किन्तु जब पीड़ा सहसा आये और असह्य हो जाये तो मानकर चलिये कि आप कोई विराट भूल कर बैठे हैं, कुछ ऐसा कर बैठे हैं जो आपकी सामान्य दिनचर्या या जीवनचर्या का अंग नहीं रहा है। बाँह की पीड़ा का सहसा उत्पन्न होना और लगभग दस दिन बाद भड़क जाना बाध्य कर गया कि पिछले कुछ काल में घटित उन सारे कारणों पर दृष्टिपात किया जाये जो कि असमान्य थे। साथ ही उन संभावित विकारों पर भी मनन किया जाये जो कालान्तर में शनैः शनैः अपना आकार धरते हैं।


छात्रजीवन में विद्यालय के एक मित्र दिवस मुझे अपने घर ले गये थे। उनके पिताजी ने, जो एक वैज्ञानिक थे और दुर्भाग्यवश अब हमारे बीच नहीं है, एक बड़ी रोचक शिक्षा दी थी। विषय प्रतियोगी परीक्षाओं के कठिन प्रश्नों को हल करने का था और समाधान इस समस्या का था कि प्रश्न को किस स्तर पर जाकर हल करना है। एक उदाहरण जो उन्होंने दिया था, वह मुझे अभी तक याद है और मेरे मानसिक व्यवहार का आवश्यक अंग बन चुका है। उन्होंने पूछा कि यदि लाइट चली जाती है तो आपके मन में क्या विचार आयेगा? मैंने उत्तर देना प्रारम्भ किया, दो तीन कारण बताये, उन्होने और की अपेक्षा की। अन्ततः लगभग दस संभावित कारण मैं बता सका। उन्होनें कहा कि कठिन प्रश्न का अच्छा हल पाने के लिये सारे संभावित विकल्प आपने मन में कौंधने चाहिये। उसके बाद प्रस्तुत तथ्यों के आधार पर एक एक विकल्प को विश्लेषण द्वारा आप सूची से बाहर करिये। जैसे यदि दूसरे कमरे में लाइट आ रही है तो ग्रिड की विफलता नहीं है। जब दो या तीन विकल्प रह जाते हैं तब विश्लेषण कठिन हो जाता है, और तथ्य आवश्यक होते हैं, प्रक्रिया समय लेती है पर आपके उत्तर की दिशा सम्यक होती है।


विज्ञान की इस तार्किक प्रक्रिया को इतने सरल ढंग से समझ पाना और उसे जीवन में उतार पाना मेरी चिन्तन पथ का सौभाग्यतम बिन्दु रहा है। यही प्रक्रिया मैनें जब बाँह की पीड़ा के कारण जानने के लिये प्रयुक्त की तो स्थितियाँ और स्पष्ट हुयीं। जानेंगे अगले ब्लाग में।

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