1.5.21

मित्र - ३०(दूरदर्शन)

बच्चों को संभवतः लगता है कि पिता और उनके मित्रों की पीढ़ी फिल्मों के प्रति कुछ आवश्यकता से अधिक ही आकर्षित रही है, जबकि उनके लिये यह एक अत्यन्त सामान्य सा विषय है। हमारी कथायें फिल्म देखने के सफल और असफल प्रयासों के आसपास इस तरह थिरकती हैं कि कभी इस बात पर चर्चा ही नहीं हो पाती है कि कौन सी फिल्म सफल थी? फिर फिल्म से ही इतना लगाव क्यों, और भी तो माध्यम हैं, टीवी, यूट्यूब, सोशल मीडिया, नेटफ्लिक्स आदि। किसी से भी मनोरंजन किया जा सकता है। वहीं दूसरी ओर फिल्में मँहगी होने के कारण अन्य माध्यम अधिक लोकप्रिय हो चले हैं। इस परिप्रेक्ष्य में हमारा फिल्म प्रेम एकपक्षीय और अपूर्ण सा लगता है नयी पीढ़ी को।

पिछली अर्धशताब्दी एक संक्रमणकाल रही है। जिस गति से माध्यम, विषय, उद्गार, अभिव्यक्ति, विचार आदि बदल रहे हैं, लगता है कि कल व्यर्थ ही चला गया और पुनः कल आज को भी व्यर्थ कर देगा। अस्थिरता अपने चरम पर है, अधैर्य व्यापक है। किसी विषय को टिक कर समझने के लिये समय देना और समझते समझते उसकी उपयोगिता न्यून हो जाना आश्चर्य नहीं लाता है। जब काल अपनी गति से निर्मोह हो भागता है तो वैराग्य उत्पन्न हो जाता है। एक साम्य पर टिकना स्थिरता का विषय है, गतिशीलता नित नये साम्य उत्पन्न कर देती है।


फिल्मों के संबंध में दोनों पीढ़ियों के संक्रमणकाल में एक मूलभूत अन्तर है। जहाँ एक ओर हमारा संक्रमणकाल अभाव से भाव का था, वहीं दूसरा संक्रमणकाल भाव से प्रभाव का था। जन्म से देखें तो उस समय रेडियो के अतिरिक्त कुछ भी नहीं था। दिल्ली एशियाड ने टीवी को कई घरों में पहुँचा दिया था। दूरदर्शन का जन्म संभवतः तभी हुआ था। हर मुहल्ले में एक टीवी हुआ करता था, किसी सम्पन्न के घर में। टीवी के स्वामी की हृदय के क्षमता के अनुसार उनके टीवी कक्ष में मुहल्ले वालों की संख्या और समय निर्धारित होता था। ६ बजे चौपाल के पहले दूरदर्शन का प्रारम्भिक संगीत अत्यन्त मादक सा लगता था, जैसे कि रंगशाला खुलने जा रही हो। किसानी तो कभी की नहीं पर टीवी के आकर्षण ने चौपाल के माध्यम से पर्याप्त मात्रा में कृषिविज्ञान सिखा दिया। 


रविवार के दिन फिल्म आती थी, सायं लगभग ६ बजे। सब जुटते थे, एक साथ बैठकर देखने के लिये। बच्चों के लिये सबसे आगे बैठ पाना एक सौभाग्य का विषय होता था। मध्यान्तर के समय हम सब घर भागते थे, भोजन करने के लिये। घर पहुँच कर भोजन की इतनी शीघ्रता रहती थी जैसे आजकल किसी महत्वपूर्ण बैठक के पहले भोजन करते समय रहती है। माँ के आगे लगभग गिड़गिड़ाना पड़ता था कि मध्यान्तर के बाद की फिल्म छूट जायेगी, कृपा करो और शीघ्र ही कुछ खिला दो। कई बार तो आते ही साधिकार कहते थे “लो अभी तक कुछ बना ही नहीं”, जैसे कि विधि ने इस प्रकार का कोई नियम बना कर भेजा हो। या कभी माँ को दुलार में धमकाने के लिये “लगता है कि आज बिना खाये ही जाना पड़ेगा”। ढेरों ऐसी ही न जाने कितनी स्मृतियाँ हैं, सप्ताह में बस एक फिल्म देख लेने की। बिना पैसों की फिल्मों ने टाकीजों को भले ही कितनी हानि पहुँचायी हो पर घर घर मनोरंजन पहुँचा कर बच्चों की कल्पनाओं को एक नया आयाम दे दिया।


सप्ताह में एक दिन चित्रहार आता था, आधे घंटे का। गिनते थे कि ५ गाने आयेंगे कि ६? यदि ६ आ गये तो लगता था कि जैसे कुछ लूट कर ले आये हों। एक बार याद है कि गाना आ रहा था “लाल दुपट्टा मलमल का”, मुख से अनायास ही निकल गया कि यह लाल कहाँ है? इसी बीच मुहल्ले में ऐश्वर्य की स्पर्धा में एक रंगीन टीवी आ गया। बड़े दिन तक मन में पशोपेश रहा कि निष्ठायें गाढ़ी हैं या रंग? अन्ततः रंग ने प्रतियोगिता जीत ली और हम लोग उस घर में जाने लगे। उधर रंग अधिक थे पर औदार्य कम था, वापस लौटकर श्वेत-श्याम पर आ गये। कई बार जब पुराने स्थल पर श्वेत श्याम में ही फिल्म देखते थे तो पूछने पर बहाना बनाना पड़ता था कि रंगीन में अधिक देखने से सर में चक्कर सा आता है और आँखों में जलन सी होती है। शरीर के अंग, उपांग मान बचाने के लिये देखिये कितने काम आते हैं।


इस संबंध में एक बड़ी ही रोचक घटना स्मृति में उभर आती है। एक ओर रविवार की फिल्मों से विशेष भावनात्मक लगाव था वहीं दूसरी ओर आगत सोमवार को गणित की परीक्षा थी। इस आशा में कि सायं फिल्म देखने को मिलेगी, पूरी पाठ्यक्रम घोंट कर बैठे थे, साथ में माताजी को मना लिया था। आशाओं पर तुषारापात तब हुआ जब पिताजी ने स्पष्ट मना कर दिया, “परीक्षा के पहले भला कोई फिल्म देखता है, चुपचाप पढ़ाई करो”। फिल्म प्रारम्भ होने में आधे घंटे शेष थे, दो बार पानी पीने के लिये चौके का चक्कर लगा चुके थे, साथ ही माताजी को अनुनय भरे और प्रश्नवाचक नेत्रों से देख चुके थे। कभी कभी पिताजी टहलने चले जाते थे, यदि पिताजी को न बताया होता तो माताजी से पूछ कर जाया जा सकता था। अब तो सारे द्वार बंद हो चुके थे। बिना बताये भाग कर भी नहीं जा सकते थे, यदि पकड़े जाते तो बहुत ही कुटाई होती जोकि एक दो बार हो भी चुकी थी।


जैसे जैसे फिल्म की घड़ियाँ निकट आयीं, मन में एक उद्विग्नता सी छाने लगी। जब १५ मिनट की फिल्म निकल गयी तो न रहा गया और जाकर माताजी से कहा कि पूरे शरीर में ऐंठन हो रही है, कुछ पढ़ने में मन नहीं लग रहा है। पूरी नाटकीयता और माताजी के तनिक कह देने का प्रभाव यह पड़ा कि थोड़ी देर के लिये फिल्म देखने की अनुमति मिल गयी। अब थोड़ी फिल्म कौन देखता है। फिल्म भी पूरी देखी और अगले दिन परीक्षा में भी पूरे अंक आये।


फिल्मों के प्रति अनुभवों की तीक्ष्णता और भावों का गाढ़ापन भला आजकल के बच्चों की पीढ़ी में कहाँ? कुछ अन्य पहलुओं पर चर्चा अगले ब्लाग में।

6 comments:

  1. फिल्मों के प्रति तुम्हारा लगाव तथा उस बीते हुए पल की अदभुत व्याख्या कमाल है प्रवीण
    महेन्द्र जैन
    कोयंबटूर
    9362093740

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    1. हम सभी प्रेरित रहते थे, एक विशेष अनुराग था वह भी।

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  2. आप वाकई उस काल खंड के साक्षी हैं जब पिताजी के निर्णय को सर्वोपरि माना जाता था तथा मनोरंजन के सीमित साधनों के बावजूद आम जन ज्यादह प्रफुल्लित रहते थे। आज और कल में हमेशा से चले आये फर्क को, अन्तरसंजाल पीढ़ी के सर्व ग्राह्य मनोरंजन ने मानो इस शब्द की परिभाषा को ही बदल डाला है।आपका ब्लॉग सार्थक व ह्रदयस्पर्शी उदगार है जिसे पढ़ने पर नास्टैल्जिया होता है।साधुवाद।धन्यवाद। सुधीर यादव,लखनऊ

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    1. एक फिल्म में पिछले सप्ताह की कल्पना और आने वाले सप्ताह की विवेचना, इतना कुछ रहता था तब। फिर भी बड़ों की अनुमति के बिना वह फिल्म देखने का प्रश्न ही नहीं।

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  3. बहुत ही सुंदर प्रस्तुति।प्रवीण!तुम और तुम्हारे मित्रों का खलनायक होने के बाद भी तेरी भाषा,शैली और प्रस्तुतिकरण का कायल हूँ।तुम्हारा प्रत्येक संस्करण वर्तमान विद्यार्थियों,अभिभावकों और शिक्षकों के लिये एक विचारणीय और करणीय पक्ष है।
    उज्जवल भविष्य की कामना के साथ
    तुम सबका
    विद्यार्थी जीवन का विलेन

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    1. जी आचार्यजी। समग्रता में तो नायक ही कहे जायेंगे। तात्कालिकता बहुधा व्यतिक्रम उत्पन्न कर देती है।

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