24.4.21

मित्र - २८(फिल्म और विधा)

फिल्मों के प्रति सबका ही अपना अलग दृष्टिकोण है। मेरा दृष्टिकोण क्या था या क्या बना, कभी इस बारे में व्यवस्थित और गहरे सोचा नहीं। कहें कि जीवन की आपाधापी में इस बारे में कभी अवसर ही नहीं मिला। मनोरंजन के साधन के रूप में फिल्में लुभाती रहीं। अभिव्यक्ति की एक विधा के रूप में फिल्में प्रेरित भी करती रहीं। जिस प्रकार अन्य विधाओं में सृजनात्मकता और रसात्मकता का आस्वादन मिलता है, उसी प्रकार फिल्में भी बनी रहीं। 

छात्रावासीय जीवन में फिल्मों की सान्ध्रता के बाद फिल्में जीवन से अनुपस्थित सी हो गयीं। पढ़ाई के प्रति अधिक समय देना हो या प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करनी हो, प्राथमिकतायें जीवन पर अपना अधिकार जताती गयीं। ऐसा नहीं था कि फिल्मों से पूर्णतया सन्यास ले लिया हो पर बहुत कम फिल्में या कहें कि जो चर्चित रहीं, बस वही देखीं और वह भी बहुत जाँच पड़ताल के बाद।


जब जीवन संघर्ष कर रहा होता है तो सृजनात्मकता और रसात्मकता छिप सी जाती है। रस पाने की चाह और रस को उत्पन्न कर सके, ऐसे सृजन को करने की चाह तो उसी समय संभव है जब आपका जीवन एक स्थैर्य प्राप्त कर चुका हो। वर्तमान सेवा और विवाह के प्रारम्भिक वर्षों के बाद ही वह स्थायित्व मिला जब एकान्त बैठकर अभिनवगुप्त की रससंचरणता को समझा जा सके।


बचपन में रामलीला, घर में पिताजी द्वारा रामचरितमानस का पाठ और उससे संबंधित कथाओं का विवरण, विद्यालय में संस्कृति का कहानियों के रूप में प्रस्तुतीकरण, गाँव में पूर्वजों और संबंधियों की कहानियाँ, यही सब मनोरंजन और संस्कार के साधन रहे। लगभग यही सब रात में सोते समय भी सुनाया जाता था। टीवी उस समय तक अधिक व्यवहार में नहीं था। नगर में प्रदेश सरकार के चलचित्र निगम द्वारा संचलित एक सिनेमाहाल होता था जिसमें कुछ विशेष फिल्मों के लिये ही अनुमति थी।


कहानियों से लगाव गहरा था। घर में श्रीमदभागवतम् के दो खण्डों वाला हिन्दी अनुवाद पढ़ डाला था, विशेषकर वह भाग जिसमें कोई कथा होती थी। चाचा के जासूसी हिन्दी उपन्यासों में कदाचित ही कोई छूटा होगा। कोई भी देशी पत्रिका हो, सोवियत पत्रिका हो, कहानी से संबंधित सभी भाग पढ़ डाले गये। छात्रावास में इन्हीं छूटी कहानियों को फिल्मों में ढूढ़ लेने की उत्कण्ठा ही फिल्मों के प्रति आकर्षित करती थी।


फिल्मों की अन्य विधाओं से तुलना में अभिव्यक्ति के दो तत्व महत्वपूर्ण हैं। पहला यह कि फिल्मों में अभिव्यक्ति का विस्तार बहुत होता है। दृश्य और श्रव्य माध्यमों के बहुत पक्ष फिल्मों में उपस्थित रहते हैं। जिस स्थान का वर्णन पुस्तक में दो या तीन अनुच्छेदों में होता है, वह फिल्म में एक ही दृश्य में संप्रेषित हो जाता है। जिस पात्र का चरित्र निर्माण करने में पुस्तक में तीन या चार घटनायें लगती हैं, फिल्मों में भंगिमाओं और भावों से वही कुछ क्षणों में हो जाता है। इस प्रकार फिल्मों का प्रभाव क्षेत्र अति व्यापक है। 


वहीं दूसरी ओर फिल्मों में प्राथमिक अनुभव से दूरी बढ़ जाती है। इसकी प्रत्यक्ष तुलना उन फिल्मों को देखकर की जा सकती है जो किसी पुस्तक पर आधारित रहती हैं। कई बार यह हुआ है कि पुस्तक उस पर बनी फिल्म से कहीं अच्छी लगी। रससंचरण में यह दूरी उसकी सान्ध्रता को उत्तरोत्तर क्षीण कर देती है। जब फिल्म में कई दृश्य एक साथ चल रहे हों, कई संदेश एक साथ देने का प्रयास हो तो स्वाभाविक है कि सब पर उतना ध्यान नहीं जा पायेगा। कुछ पक्षों में कार्य अच्छा होगा और वह उत्कृष्ट लगेंगे, वहीं कुछ पक्ष अपनी संप्रेषणता खो भी देंगे।


ये सारे विश्लेषण रोचक होने पर भी फिल्मों का कथा पक्ष अभी भी अत्यन्त सुहाता है। उस पर भी यदि गीतों के बोल मधुर हों तो आनन्द और बढ़ जाता है। फिल्म की सफलता मेरे लिये इस बात पर बहुत निर्भर करती है कि कथा को किस तरह से प्रस्तुत किया गया है। अभिव्यक्ति के आरोह, चरित्रों का निर्माण और घटनाओं का भावनात्मक संस्पर्श एक सुदृढ़ कथा को और भी रोचक बना देते हैं।


नेटफिल्क्स, अमेजन प्राइम आदि ने फिल्मों में एक बाढ़ सी ला दी है। प्रारम्भ में तो विविधिता के कारण आकर्षण बना पर धीरे धीरे कहानियों के स्वरूप में एकरूपता सी आने लगी। एक ही तरह की कहानी, एक ही तरह का संदेश देने का प्रयास, पात्रों के चरित्र निर्माण में एक फूहड़पन, परिस्थितियों से सतत विद्रोह, समाज और देशविशेष की पूर्वाग्रह भरी छवियाँ, व्यवस्था के ध्वंस अवधारित स्वरूप, इन सब कारणों से मेरे लिये कथा की रोचकता अवसान पर है। एक अच्छी पुस्तक यदि कथा के सहारे मन आलोड़ित कर सके या तर्क से बौद्धिकता उद्वेलित कर सके तो वह आजकल की दस फिल्मों से भी अच्छी है। जीवन के ढलान पर सरलता सुहाने लगती है, जटिल चित्रण खटकने लगते हैं।


बात आलोक की होनी थी, मैं अपना ही फिल्म पुराण ले बैठा। अगले ब्लाग में आलोक के विचार। 

1 comment:

  1. मेरा व्यक्तिगत अनुभव है- यदि पहले किताबों को पढ़ा गया हो तो उनपर आधारित फिल्में कभी अच्छी नही लगी।शायद पढ़ने के दौरान हमने जिन कल्पनाओं में विचरे, फ़िल्म निदेशक उन्हें हूबहू या कलाकार उतार नहीं पाए।यह निर्विवाद है कि फिल्में कम समय में ज्यादा सुर विविध आयाम दिखाती हैं।

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