17.4.21

मित्र - २६(फिल्म और बौद्धिकता)

आलोक रसज्ञ हैं। अभिनवगुप्त रसग्रहण के संदर्भ में दो शब्दों का प्रयोग करते हैं, सहृदय और तन्मय। इन दोनों शब्दों को मूर्तता प्रदान करती है आलोक की रसप्रियता। ७ प्रकार के रसविघ्नों को तो कभी का जीत चुके थे, उससे भी कुशलता उन्होंने छात्रावास के प्रतिबन्धों पर विजयारूढ़ होने में दिखायी। कैसा भी प्रतिकूल समय रहा हो, उनकी रससाधना निर्बाध गतिमय रही।

जहाँ हम सबका कारण मूलतः मानसिक था, आलोक का फिल्मों के प्रति लगाव बौद्धिक था। हम लोगों का किसी तरह भाग कर फिल्म देख लेना अपने आप में एक महती उपलब्धि होती थी। कौन सी फिल्म देखी और उसकी क्या कथा थी, यह बात हमारे लिये गौड़ हो जाती थी। हर प्रकार की फिल्म में लगभग एक सा ही आनन्द आया, स्वतन्त्रता का। कालान्तर में एकरूपता नीरस हो जाती है। पहले रसगुल्ले में जो सुख मिलता है, वह दसवें में कहाँ? यदि विश्वास हो कि जब चाहेंगे रसगुल्ला प्राप्त हो जायेगा तो उसके प्रति उतना आकर्षण नहीं रह जाता है। वयस्क होने के बाद हम सबके साथ लगभग यही हुआ। जहाँ प्रतिबन्धों में एक के बाद एक कई बार स्वातन्त्र्य का आनन्द लिया, वहीं मुक्त होने के बाद फिल्मों के प्रति उतनी ललक और आकर्षण नहीं रह गया।


आलोक के जीवन में फिल्मों के प्रति एकरूपता कभी आयी ही नहीं क्यों उन्होंने फिल्मों को गहन बौद्धिक भाव से पकड़ा हुआ था। हम सबके अन्दर रस की उतनी मात्रा नहीं थी जितनी आलोक के अन्तर में समायी थी। जहाँ हमारे स्रोत धीरे धीरे कर सूखने लगे, आलोक आज भी उतने रसमयी हो जाते हैं, फिल्मों को लेकर। या यह भी संभव है कि हम सबने अन्तर्निहित रस को उतना नहीं पहचाना जितना आलोक ने।


बाहर जाकर खा पी आना उतना कठिन कार्य नहीं रह गया था। बहुधा आधे या एक घंटे का अवसर मिल जाये तो हम अपनी क्षुधा तृप्त कर आते थे। बहुधा ५-६ लोग भी एक साथ निकल जायें तो पता नहीं चल पाता था। अधिक समय के लिये निकलना और छात्रावास से दूर जाकर फिल्म देखना कठिन था। निकटतम सिनेमागृह में पहुँचने में कम से कम ४५ मिनट तो लग ही जाते थे। यही कारण था कि फिल्मों के लिये निकल पाना २ या ३ के समूह में ही हो पाता था। एक तो छात्रावास की भीड़ में अधिक अन्तर नहीं पड़ता था और कम लोग होने से रहस्य छिपा भी रहता था।


आलोक की विशिष्टता यह रही कि उन्होंने सभी संभव समूहों के साथ फिल्में देखी होंगी। जितने मित्रों से बात की है, सबके साथ आलोक फिल्म देख चुके हैं। जैसे जैसे रहस्यों की परतें खुल रही हैं, लगता है कि हमने आलोक की योग्यता का आकलन ठीक से किया ही नहीं। आलोक को हमने अपने स्तर पर जाना, स्थानीय स्वरूप में, इस रूप में कि वह हमारे साथ फिल्में देखता था। पर वह सबके साथ फिल्म देखता था, यह किसी ने नहीं जाना। रस की अथाह चाह और सबके साथ बाहर निकल जाने की अदम्य लालसा, यह आलोक को विशिष्ट बना देती है। इस बात का अनुमान ही लगाया जा सकता है कि आलोक ने छात्रावास के कालखण्ड में कुल कितनी फिल्में देखीं।


इस पूरे प्रयासक्रम में वह कई बार पकड़े भी गये। किस बार कौन सी फिल्म देखने गये थे यह उनके साथ गये मित्रों से उद्घाटित हो गया। कई बार वह अकेले भी पकड़े गये, उन अवसरों पर कौन सी फिल्म देखी यह उन्होने कभी बताया नहीं। छुट्टियों पर हम लोग अकेले ही घर से आते जाते थे। यद्यपि घर और छात्रावास के बीच दोनों बार फिल्में देखने का अवसर रहता था, समस्या यह रहती थी कि सामान अस्थायी रूप से कहाँ रखा जाये? इस प्रकार भी आलोक ने बहुत फिल्में निपटायी होंगी। 


हम सबने मिलकर विनोदवश कई बार उनका मन टटोलने का प्रयास किया, आलोक ने पूरा सत्य कभी बताया नहीं। यहाँ तक कि हमने उस समय की संभावित फिल्मों की सूची को विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया पर आलोक निर्वेद रस में डूबे रहे। कई बार बात करने में बस यही लगा कि हम सब फिल्मों को जिस विनोद भाव से देखते हैं, चर्चा करते हैं और स्मृति में लाते हैं, उसकी तुलना में आलोक की फिल्मों के प्रति लगाव अत्यन्त गहरा है। हम संभवतः वहाँ तक पहुँच न पाते हों। जब किसी की आत्मीयता गहन हो तो उस पर सतही या उत्श्रृंखल चर्चा मन में तटस्थता का भाव ले आता है। आलोक की उत्तर न देने की इच्छा इसी बौद्धिक जुड़ाव की ओर इंगित करती है।


हमारा फिल्मों के प्रति प्रेम उतना सुसंस्कृत नहीं था जितना आलोक का। यदि आप किसी प्रवृत्ति को बाधित करेंगे तो विकार आयेंगे। हमारा फिल्में के प्रति घोर तात्कालिक आकर्षण और कालान्तर का सहसा अवरोह इसी विकार की श्रेणी में आयेगा। आलोक का प्रेम स्थितिप्रज्ञता को प्राप्त हो गया है, अभी भी उतना ही स्थिर है जितना छात्रावास के दिनों में था।


आलोक का फिल्मों के प्रति एक स्पष्ट और विशिष्ट दृष्टिकोण है, उसकी चर्चा अगले ब्लाग में।

2 comments:

  1. मनीष कृष्ण की टिप्पणी

    प्रवीण , अपने आलोक को (रसज्ञ) पाया हैं । शायद हम सभी सहमत होगे । वास्तव में आलोक को ध्यान से सुनने पर पता चलता है कि आलोक कितनी ही विधाओं का मूर्धन्य हैं ।

    बहुत सुंदर , शब्द चयन , आलोक के लिए 🙏👍

    ( छात्रावास प्रतिबंधों पर विजय ) की आलोक की कुशलता के वीडियो को , मोस्ट entertaining moments का अवार्ड मिल सकता है 😀

    ( रस साधना निर्बाध ) , के प्रयोग से , आलोक को ऋषियो की श्रेणी मे ला दिया 😇😇😇😇😇

    ( जब चाहेंगे रसगुल्ला प्राप्त हो जाएगा ) से प्रतिबंध लगाने वालों😤 का महत्त्व बढ़ा 😀दिया

    ( फिल्मों को गहन भाव से पकड़ा हुआ था ) , कितना सुंदर निरीक्षण किया है , प्रवीण आपने आलोक का 🙏👌🏼। हॉस्टल काल में तो कभी नहीं किंतु पिछले १०-१२ वर्षो में आलोक के साथ कई फिल्में देखी । आलोक गज़ब कंपनी है 👌🏼 फ़िल्म देखने के लिए । फिल्म के अलग अलग पक्षों का जितना सूक्ष्म विश्लेषण आलोक करता है , फ़िल्म के पैसे कई गुना वसूल हों जाते हैं ।

    ( अंतर्निहित रस को नहीं पहचाना , जितना आलोक ने ) सही कहा 🙌👌🏼

    (आलोक ने सभी सम्भव समूहों के साथ फिल्में देखीं ) , सुखद भी कि मुझे भी मौका मिला , पर दुखद भी कि यह विद्यालय के बहुत वर्षो बाद मिला 😭

    (रस की अथाह चाह ) , अब तो आलोक को भी , लगने लगा होगा कि उसका डीएनए कुछ विशेष है , परंतु प्रवीण सबसे बड़ी बात , तुमने किस कुशलता से , समस्त डाटा एकत्र कर , पूरी थिसिस ' आलोक का रस प्रेम 🔥, एक संक्षिप्त दर्शन 😎,' हम सब के सामने कितने रसीले अंदाज़ में रख दिया 👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻

    ( आलोक की गहन आत्मीयता ) हम सब की ( सतही उत्चनखलता ) और ( आलोक की उत्तर न देने - - बौद्धिक जुड़ाव ) का क्या अदभुत विश्लेषण 👌🏼प्रवीण । क्या लाज़वाब विश्लेषण 😘😘😘आलोक की शांत रह जानें 😇के मन का 👏🏻👏🏻👏🏻

    प्रवीण , शब्दों के भावों से आविर्भाव का रहस्य / रस , आप🌞🌞🌞 ने ही सिखाया🙏 हैं

    ( आलोक का प्रेम स्थितप्रज्ञता को प्राप्त ) , निश्चय ही आलोक का मान बढ़ाने वाला है , क्योंकि आलोक 🌞को वास्तव में अपनी साधना के मध्य , हम जैसे साधारण दर्शकों की टिप्पणियों से कोई फर्क नहीं पड़ता😇 ।

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  2. मनीष कृष्ण की टिप्पणी

    प्रवीण🌞 , आज आपने आलोक के 😇फ़िल्मों के प्रति प्रेम को , अमर प्रेम 🙌🙌🙌बना दिया

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