20.4.21

मित्र - २७ (फिल्म और उद्योग)

प्रतिबन्ध और उल्लंघन के बीच की गुत्थमगुत्था में फिल्मों के प्रति कभी कोई स्पष्ट दृष्टिकोण पनपा ही नहीं। फिल्म देख कर आना और पकड़े जाना, इस प्रकरण में फिल्म के रसतत्व वहीं सूख जाते थे। तब सर्वप्रथम इस बात की युक्ति लगने में बुद्धि दौड़ती थी कि बात घर तक न पहुँचे। कुटाई की पीड़ा, सार्वजनिक उपहास का दंश वास्तव में साहस के परिलक्षण थे, सहे जाते थे और सगर्व कहे जाते थे। नियमों का उल्लंघन छात्रावास के लिये एक खेल सा था, उसमें हुयी जीत या हार को कोई यश-अपयश या हानि-लाभ के रूप में नहीं लेता था। उसमें मिले दण्ड या प्रताड़ना खेल भावना के रूप में स्वीकार की जाती थी। आचार्यजी ने जब छात्रावासियों के बीच यह परमहंसता अनुभव की तो उन्होने रणनीति बदली। उन्होनें घर में पत्र लिखने प्रारम्भ किये। जब से बात घर में पहुँचने लगी, खेल के नियम ही बदल गये। यह पूरे फिल्म प्रकरण में “फाउल” कहा जा सकता है, पर ऊर्जा का उछाह फिर भी इस असंतुलित खेल में जूझा रहा।

रवीन्द्र ने बताया कि वह आलोक और प्रदीप के साथ निगार में “पालेखाँ” फिल्म देखने गये थे। दीवार के ऊपर लोहे के काँटेदार बाड़ लगी थी। पार करने की विधि बड़ी सधी होती थी। पहले दीवार के ऊपर लोहे का एंगल पकड़ कर खड़ा होना होता था, एक टाँग उठाकर दीवार पर ही उस पार, फिर दूसरी टाँग उठाकर बाड़ को पूरा पार करना होता था। तब लगभग छह फिट की दीवार से नीचे कूदना होता था। पूरी प्रक्रिया में सर्वाधिक कठिन भाग बाड़ पार करना होता था, कई बार उसमें कपड़े फट जाने का या टाँग छिल जाने का भय रहता था।


रवीन्द्र उस दिन रेशम का नया कुर्ता पायजामा पहने थे। बाड़ पार करते समय उनका पूरा पायजामा उलझकर फट गया और तहमत सा हो गया। दीवार के उस पार किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति, वापस छात्रावास जाकर नया वस्त्र पहने या बाहर निकल आने की बढ़त को यथावत बनाये रखा जाये। वापस अन्दर जाने में समय लगने और पकड़े जाने की संभावना जो थी। निर्णय हुआ कि इसी तहमतिया वेश में “पालेखाँ” को निपटाया जायेगा। इतना बड़ा त्याग कर फिल्म देखी, आर्थिक हानि हुयी सो अलग। वापस आये तो आचार्यजी कुर्सी में बैठे थे और प्रतीक्षा में थे। उस समय कुछ नहीं बोले। आचार्यजी इस बात का पूरा समय देते थे कि आपकी आशंकायें आपको ही तहस नहस कर दें। सायं तीनों को बुलाया गया, संवाद के जो भी स्तर पहुँचे हों, अनुनय विनय में घरती की जो भी गहराईयाँ कम पड़ी हो, अन्ततः तीनों के घर पत्र लिख दिये गये।


इन विकट परिस्थितियों में बिना पकड़े फिल्म देख आना एक सम्मान का विषय होता था। एक गर्व की अनुभूति होती थी कि कितनी बड़ी संभावित प्रताड़ना से बच गये। इस गर्व के भाव में फिल्म के स्वरूप पर कोई विचार होना या दृष्टिकोण विकसित होना संभव ही नहीं होता है। उस समय तो आप नायक से भी बड़े नायक हो जाते हो, देखी हुयी फिल्म के समानान्तर एक फिल्म आपकी चलने लगती थी। आपके चेहरे पर विजय के यही भाव बहुधा आपके पराभव का कारण बन जाते थे। आपके मित्रों को समझ आ जाता था कि आपका देदीप्यमान मुखमण्डल किसी विशिष्ट कार्य की सफलता का द्योतक है। उस समय तो बिना पकड़े फिल्म देख आना ही सफलता के हस्ताक्षर होते थे। आपको बहुधा कुरेदा जाता था, आपके अहम को आपके मित्र उकसाते थे। मानव स्वभाव है, प्रशंसा के वशीभूत हो बहुधा मन बह जाता है। आप अपनी वीरगाथा सबको सुना देते थे। कई बार आपके प्रशंसाकारों में कोई दूत भी बैठा होता था, वही जाकर सारा किस्सा यथास्थान जड़ देता था। कई बार हम इस प्रकार भी पकड़े गये।


यही सब कारण रहे होंगे कि जब भी हम मित्रों के बीच फिल्म की चर्चा चलती है, उसमें देखी हुयी फिल्मों की कथा गौड़ हो जाती है और बार बार रह रह कर छात्रावासियों की साहसगाथायें उभर कर सामने आती हैं। ऐसा नहीं है कि हम फिल्मों की कहानियों में रुचि नहीं लेते थे। बड़ा ही स्वाभाविक होता है कथानक याद हो जाना। उन कथाओं का उपयोग रसात्मकता या विश्लेषणात्मकता से अधिक प्रमाण के रूप में होता था। यदि आप प्रत्यक्ष नहीं पकड़े गये हैं और आपने अपने मुखमण्डल को भी सौम्य बनाये रखा फिर भी फिल्म देख आने का कृतत्व का भाव पेट में बिना आन्दोलित हुये अधिक दिन तक रह नहीं पाता है। अपने प्रमुख मित्रों से तो फिर भी आपको अपनी वीरगाथा वर्णित करनी ही होती थी। उनसे कुछ छिपाना संभव नहीं होता था या कई बार तो उनकी सहायता से ही भागकर फिल्म देखना संभव हो पाता था।


कार्यसिद्धि के प्रमाण के रूप में सुनाये या कार्यफल के प्रसाद के रूप में सुनायें, फिल्मों के कथानक मित्रों को सुनाने होते थे। किन्तु उसके पहले छात्रावास से भागने की कथा और वापस आने के प्रयास, उसमें ली गयी सावधानियाँ और रोचक मोड़ों सहित वर्णित करनी होती थीं। जितनी लम्बी फिल्म की कथा होती थी उससे कहीं अधिक लम्बी उसे देखने की कथा। फिल्म की कथा यदि उतनी सुदृढ़ यदि रोचक न रही हो तो, फिल्म देखने की कथा को ही सविस्तार और रोचक शैली में सुनाया जाता था। संदीप को इस विधा में महारत थी। हमारे लिये फिल्म में प्राप्त रस अपने मित्रों के साथ ही पूरा होता था, एक बार नहीं, बार बार। लगभग ठीक वैसे ही जैसे एक बन्दर अपने मुँह में चने भर ले और बाद में एक साथ आनन्द लेकर धीरे धीरे खाये।


इस प्रकार देखा जाये तो हमारे लिये फिल्म की रसात्मकता फिल्म देखने के प्रयासों से प्रारम्भ होती थी और फिल्म की कथा के सार्वजनिक वर्णन के साथ समाप्त होती थी। आज भी वे सारे क्षण याद किये जाते हैं और प्रस्तुत वर्णन भी उसी कालखण्ड का यथारूप आनन्द दे रहा है। फिल्मों के संदर्भ में हम संभवतः इसके आगे सोच नहीं पाते हैं या कहें कि शेष सभी कथानक फीके पड़ जाते हैं। आलोक इस विषय में अग्रिम पंक्ति के विचारक रहे हैं। प्रारम्भ से ही फिल्मों के संबंध में उन पर उनकी बौद्धिकता हावी रही। जहाँ पर आकर हमारा दृष्टिकोण अवसान पा जाता था वहाँ से आलोक का दृष्टिकोण प्रारम्भ होता था। 


इसकी विस्तृत चर्चा और आलोक के स्पष्ट विचार अगले ब्लाग में।

2 comments:

  1. रवीन्द्र की टिप्पणी

    उस दिन जब रेशम का कुर्ता पहन कर खिड़की पर रखे छोटे से दर्पण पर स्वयं को देख कर जो दिलीप कुमार की अनुभूति हो रही थी स्वर्णिम थी लेकिन पायजामे ने लोहे के कांटो के साथ जो अपना दल बदला उससे मेरी इज्जत जाने की पूर्ण संभावना बन चुकी थी लेकिन अर्जुन की तरह निशाना पालेखान पर ही था ,तो जैसे तैसे अपने आप को समेटने का प्रयास करते हुए निशाना लगा कर स्वयंम्बर में तो स्वयं को विजय मानते हुए लौट कर आये लेकिन आचार्य जी ने उपहार में जो पत्र घर पर भेजा आज भी यादगार है ।

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  2. बात मेरी थी,
    तुमने कही।
    अच्छा लगा।

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