10.4.21

मित्र - २४(फिल्म और प्रतिबन्ध)

छात्रावास में फिल्में पूर्णतया प्रतिबन्धित थीं। कोई फिल्मों के प्रति तनिक भी अनुराग या आकर्षण प्रकट नहीं होने देता था, बस इस आशंका से कि कहीं उसे निकृष्ट कोटि का छात्र घोषित न कर दिया जाय। “देखिये, ये फिल्मों के दीवाने हैं”, यह आपके चरित्र पर एक अतिव्यंगात्मक आक्षेप सा होता था। इसके कई प्रत्यक्ष और परोक्ष अर्थ निकाले जा सकते थे।

पहला कि आप सभ्य और सुसंस्कृत समाज से भिन्न हो। प्रधानाचार्यजी सहित सब के सब फिल्में नहीं देखते हैं और आप एक विशिष्ट प्राणी हो, जिसकी अभिरुचियाँ प्रश्नवाचक हैं, विकृत हैं और निन्दनीय हैं। दूसरा आक्षेप होता था आपके परिवार पर क्योंकि फिल्म देखने का संस्कार आपने घर से ही सीखा होगा। आप तब किसी भी उस अनुभव की चर्चा नहीं कर सकते हैं जिसमें आप अपने अभिभावकों के साथ फिल्म देखने गये हों। फिल्मों के दृश्य या उनकी कहानियों के संदर्भ अस्पृश्य थे। किसी अभिनेता की प्रशंसा तो परिवेश में अधर्म को बढ़ाने सा था और यदि किसी अभिनेत्री के बारे में कुछ भा गया तो वह व्यक्तिगत रूप से अधर्म में डुबकी लगाने सा था।


तीसरा यह कि फिल्में फूहड़ हैं और उनमें कमर मटकाने के अतिरिक्त कुछ और दिखाया नहीं जाता है। कमर मटकाना या नृत्य देखने से मानसिकता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। मन दिग्भ्रमित होता है, पढ़ने में मन नहीं लगता और पुस्तकों में छपे शब्द भी बिना अर्थ दिये उछलकूद मचाने लगते हैं। चौथा कि फिल्म देखना समय को व्यर्थ करना है। न केवल समय को वरन धन को भी। इससे श्रेयस्कर है वही धन और समय नाली में बहा दिया, कम से कम वह आपको बिगड़ने में साधन नहीं बनेगा।


पाँचवा संदेश संभवतः सकारात्मक था। विद्याकाल अपने भविष्य को सँवारने के लिये होता है, इस समय किसी भी अन्यथा वस्तु के प्रति आकर्षण का एक बड़ा मूल्य होता है। ये सब प्रतीक्षा कर सकते हैं। पाँचों प्रकार के संदेश भिन्न भिन्न रूपों में कहे, बताये और समझाये जाते थे पर उनमें अन्तर्निहित भाव यही रहता था कि फिल्में प्रतिबन्धित हैं।


भरतमुनि का नाट्यशास्त्र या अभिनवगुप्त का प्रत्याभिज्ञ दर्शन छात्र जीवन में नहीं पढ़ा था। पढ़ा होता तो उसी समय बताते कि रस मनीषियों द्वारा इच्छित परमानन्द का ऐन्द्रिय निरूपण है और नाटक या फिल्म उस निरूपण का सशक्त माध्यम। फिल्में प्रशिक्षण या अध्यापन का सशक्त अंग हैं और विषय को अधिकाधिक ग्राह्य बनाने में सहायक होती हैं। बंगलुरु में बिटिया के विद्यालय में एक फिल्म हर सप्ताह दिखायी जाती थी। बनारस में ही उसके विद्यालय में लघु फिल्मों के ऊपर एक पूरी पुस्तक थी, एक वैकल्पिक विषय के रूप में। मेरे वर्तमान कार्यस्थल में जो कि राजपत्रित अधिकारियों का प्रशिक्षण संस्थान है, वहाँ पर फिल्म के माध्यम से विषय के सूक्ष्म बिन्दुओं का संप्रेषण एक उत्कृष्ट विधा समझी जाती है।


इस परिप्रेक्ष्य में जब अपने बच्चों से अपने छात्रावास जीवन की समकक्ष तुलना करता हूँ तो स्वयं के फिल्मों के प्रति अतिविशिष्ट आकर्षण को न समझ पाता हूँ और न ही उनको समझा पाता हूँ। उनके लिये फिल्में देखना या न देखना उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना हम लोगों के लिये हुआ करता था। उनके लिये अच्छी फिल्म तभी देखी जाती है जब उसके बारे में एक ठीक ठाक समीक्षा हो या किसी ऐसे विषय पर हो जिसमें अभिरुचि हो या किसी का सशक्त अभिनय हो। हम लोगों कि यह स्थिति रहती थी कि यदि तीन घंटे का स्वच्छन्द कालखण्ड मिल गया तो सामने जो भी फिल्म हो, देख आते थे।


हम सबके मन में सदा ही उहापोह रही कि मन सही या प्रतिबन्ध सही? मन था कि फिल्मों के प्रति अगाध आकर्षण पाले बैठा था, वहीं व्यवस्था दूसरी ओर खड़ी थी। इस विषय में प्रश्न पूछना कि फिल्में क्यों अनुचित हैं, यही अपने आप में अपराध की श्रेणी में आ जाता। फिल्मों के कई कुप्रभाव भी हैं, कई फिल्में स्तरीय नहीं होती हैं, इस कारण से यदि सारी फिल्में प्रतिबन्धित हो, यह बालमन को स्वीकार ही नहीं था। कितना भी प्रयत्न किया समझने का, उत्तर पाने का, पर प्रतिबन्धों का कारण कभी समझ आया ही नहीं। यदि उस समय कोई यही पूछ देता कि फिल्म देखकर क्या मिल जायेगा तो भी बु्द्धि विश्लेषण नहीं कर पाती। फिल्में नहीं देखकर या कम देख कर क्या पा लिया? या भागकर देख आये और किसी को पता नहीं चला, उससे क्या उपलब्धि हो गयी? बस मन को भाता था फिल्में देखना, प्रतिबन्धों ने उस तड़प को द्विगुणित कर दिया था, साहस ने इसी को लक्ष्य बना लिया और एक दो बार नहीं कई बार भाग कर फिल्में देखीं।


फिल्मों के प्रति क्या अभी भी उतना ही आकर्षण है जितना छात्रावास के समय होता था? है भी और नहीं भी है। उस समय के प्रतिबन्धों में जितनी फिल्में देख पाते थे, आज के मुक्त वातावरण में कहीं कम देखते हैं। क्या बदलाव आया है? क्या दृष्टिकोण बदल गया या प्रतिबन्धों का कोई कारण समझ आ गया? ज्ञानचक्षु खुल गये या आवश्यकता समाप्त हो गयी?


फिल्मों में कहानी होती है, पर फिल्मों के बारे में हम सबकी अपनी कहानी है। ऐसी ही कुछ कहानियाँ जानेंगे अगले ब्लाग में।

3 comments:

  1. अति सुंदर चित्रण।

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  2. फिल्मों पर प्रतिबन्ध लगाने के पीछे कुछ तार्किक कारण भी थे जो कि आज के वातावरण में समझ आने लगें हैं।
    यह एक सोची समझी साजिश के तहत् हमारी संस्कृति पर हमला था जिसको उस समय के बुद्धिजीवियों ने भांप लिया था और युवा पीढ़ी को दिग्भ्रमित होने से बचाने के लिए इस तरह के प्रतिबन्ध लगाए गए थे।
    मुझे याद है कि जब मैं छोटा था तो मेरा पूरा परिवार कुछ चुनिंदा फ़िल्मों को देखने के लिए सिनेमा हॉल जाया करते थे जिसमें से कुछ फिल्मों के नाम इस प्रकार हैं
    जय संतोषी मां
    बिन मां के बच्चे
    घर एक मंदिर
    नदिया के पार
    आदि
    समय के साथ बहुत कुछ बदल गया है फिर भी अपनी पैनी दृष्टि इन बातों का विश्लेषण करने के हमेशा सजग रहनी चाहिए।
    महेन्द्र जैन
    9362093740
    कोयंबटूर

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    1. सहमत, यह पक्ष भी लिया है आगे, विशेषकर कानपुर में। अशोक के कुछ संस्मरण। प्रश्न भी समान ही उठते हैं मित्रों के मन में। 😊😊

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