23.3.21

मित्र - १९(काण्ड और कौशल)

अनुमति न मिलना, मिलना तो भी कम समय के लिये, यदि कुछ अन्यथा करने का प्रयास तो पकड़े जाना, इस अनुशासनिक कसाव ने हम सबको अनियमित करने के लिये बाध्य किया। एक द्वार बन्द हो जाये तो कई और खुल जाते हैं। जब बालमन ऊर्जा, उत्साह और जिजीविषा से भरा हो तो अवरोध संभावनाओं को जन्म देता है। वह तब जल सा न केवल अवरोध पर सतत प्रहार करता है वरन प्रवाह बदल कर आगे बढ़ जाता है। कठोरता का संदेश स्पष्ट था और प्रत्युत्तर में नये प्रयोगों को आकार लेना था।


पहला प्रयोग था धैर्य की परीक्षा। आक्रमक बने रहने से युद्ध में पहल तो मिलती है पर यदि प्रतिपक्ष बचाव कर ले जाये तो आक्रमण में ऊर्जा क्षय हो जाती है। हमारी क्षुद्र विकल्प पकड़े जा चुके थे, उन पर पुनः दाँव लगाना मूर्खता थी। यदि प्रतिपक्षी हमारे स्तर पर सोच कर बचाव की रणनीति बना सकता है तो हम वैसा ही क्यों नहीं कर सकते थे। यह एक यक्ष प्रश्न था और उसका उत्तर ढूढ़ना प्रतिष्ठा का विषय बन चुका था।


अनुमति माँग कर आप अपना मन्तव्य प्रकट कर देते हैं। मना होने पर यह स्वाभाविक हो जाता है कि आप क्षुब्धमना हो कुछ ऐसा करेंगे जो विद्रोह की श्रेणी में आयेगा, नियमविरुद्ध होगा। आपकी यही मनोदशा आपके आने वाले कृत्यों के बारे में प्रतिपक्षी को एक आभास दे जाती है। यदि आपका व्यवहार इतनी स्पष्टता से व्यक्त हो तो केवल आप पर दृष्टि बनाये रखने ही प्रतिपक्षी का काम चल जाता है। रणनीति और कूटनीति के इस सिद्धान्त को हम सबने समझा और निश्चय किया कि जो भी करना है, बिना अनुमति के ही करना होगा, चुपचाप करना होगा। यदि आप पर संशय नहीं होगा तो आप पर दृष्टि भी नहीं रखी जायेगी। 


एक छात्रावास अधीक्षक के पास कितनी भी तीक्ष्ण बुद्धि हो या अपार ऊर्जा हो, संख्याबल के सामने सब क्षीण हो जाती है। सौ बालकों के ऊपर दृष्टि रखना संभव नहीं है। यदि आप स्वयं दृष्टि में नहीं आना चाहें तो आपके लिये गुप्त रूप से बाहर सरक लेना सरल हो जाता है। कभी कभी सामने वाले को दिग्भ्रमित करने के उत्साह में एक भूल हम कर जाते हैं। संशय न हो, यह दिखाने के प्रयास में हम सहसा अधिक नियमबद्ध हो जाते हैं। सज्जन, सौम्य, मृदुल और अनुशासित छवि उभारने के प्रयास में अभिनय की अति कर जाते हैं। संशय न होने देने का उपक्रम ही संशय उत्पन्न कर देता है। जगजीत सिंह की चर्चित पंक्तियों की तरह “तुम इतना जो मुस्करा रहे हो…”।


काण्ड करने के पहले अज्ञातवास में जाना आवश्यक था, भीड़ में रह कर सामान्य दिखना आवश्यक था, एक दिन का अभिनय नहीं वरन सप्ताहों की सहजता आवश्यक थी। धैर्य यहीं तक पर्याप्त नहीं था, मुख्य कार्य में और अधिक धैर्य रखना होता था। छात्रावास अधीक्षक सामाजिक रूप से भी व्यस्त रहते थे। इस कारण से कई बार उनका परिसर से बाहर जाना होता था। हम इसी प्रतीक्षा में रहते थे कि कब यह अवसर आये और हम अपने काण्ड क्रियान्वित करें। वही समय रहता था छात्रावास की पिछली दीवार लाँघ कर बाहर सरक लेने का।


बड़ी सफलता के लिये छोटी छोटी कई सफलतायें सोपान का कार्य करती हैं। बड़े प्रयोगों को पहले लघु अनुपात में किया जाता है। बड़े प्रयोग असफल न हो जायें, हानि अधिक न हो जाये, इस हेतु त्रुटियों को समूल हटाना होता है। एक छोटी त्रुटि पूरे प्रयास को धाराशायी करने में सक्षम है। यदि तीन चार घंटे बाहर रहने का लक्ष्य पाना था तो लघु प्रयोग एक घंटे से प्रारम्भ करने थे। सूचना तन्त्र, वैकल्पिक उपस्थिति, साक्षी मित्र, काण्ड निष्पादन हेतु सभी का पूर्व उपाय और अभ्यास करना होता था। उस समय मोबाइल का युग नहीं था अतः तात्कालिक सूचना और निर्णय संभव नहीं थे। जो भी योजना होनी थी, पूर्वनियोजित और विस्तृत होनी थी। विकल्पों की श्रेणियाँ, स्तर, किस दशा में क्या करना है, इस सबकी तैयारी करके ही जाना होता था। सबको सम्मिलित नहीं किया जा सकता था, विश्वास एक दो पर ही करना होता था। एक सूत्रधार जो आपकी अनुपस्थिति में आपके हित में कार्य कर सके, एक सहायक जो आकस्मिकता की स्थिति में सब कुछ सम्हाल सके।


कुछ साहसी मित्र थे जो प्रायिकता के सिद्धान्त पर चलते थे, वे अत्यन्त आशावादी थे। उनको लगता था कि योजना और बुद्धि लगाने से कुछ नहीं होगा, यदि करना हो तो निकल जाओ। ऐसे व्यक्ति स्वयं तो भ्रम में रहते हैं और प्रकृति भी उन्हें भ्रम में रखती है, मूर्खता के दलदल में आमन्त्रित करती हुयी। किसी भी नये प्रयास में आशातीत सफलता मिल जाती है, इसे “प्रारम्भिक भाग्य” का सिद्धान्त कहते हैं, प्रकृति आपका उत्साह बढ़ाने का कार्य करती है। बस आपको यह समझना होता है कि आप मेधा के पथ पर बढ़ रहे हैं या मूर्खता के पथ पर। मेरा तब भी यह सिद्धान्त था और अब भी यह सिद्धान्त है कि बिना विधिवत पूर्वयोजना के प्रायिकता भी क्षीण होने लगती है। बिना अभ्यास के कुछ भी सार्थक टिकता नहीं है।


एक दूसरा सिद्धान्त यह था कि जो करना हो करते चलो, जब पकड़े जायेंगे तो दण्ड सह लेंगे, काण्ड-प्रारम्भ से पकड़े जाने के बीच का आनन्द, दण्ड से कहीं अधिक होगा। चार्वाक के उपासकों से प्रेरित यह सिद्धान्त भी हमें स्वीकार्य नहीं था। काण्ड के उत्कृष्ट निष्पादन में जो संतुष्टि का सुख था वह भविष्य में हम सबका स्वातन्त्र्य-अमृत होने वाला था। पकड़े जाने के परिणाम हम सबके लिये भयावह थे। छात्रावास अधीक्षक के पास वह अन्तिम ब्रह्मास्त्र था जिसके आगे हम सब निरुत्तरित थे। अतः पकड़े जाना हमारा विकल्प नहीं था, भले ही योजना में कितनी भी सिद्धहस्तता अर्जित करनी पड़े।


निष्पादन, उद्धाटन और परिणामों की चर्चा अगले ब्लाग में।

No comments:

Post a Comment