2.3.21

मित्र - १३(भोजनचक्र और निद्रा)

यह तथ्य बहुत बात में ज्ञात हुआ कि प्रातः शीघ्र उठने के लिये रात्रि १० बजे तक सो जाना ही पर्याप्त नहीं है। आयुर्वेद के सिद्धान्त बताते हैं कि रात्रि का भोजन कम मात्रा में और रात्रि ८ बजे के पहले करना आवश्यक है। यदि ऐसा करेंगे तो सहज ही ५ बजे नींद खुल जाती है। जब से इसका अभ्यास किया है, स्वतः ५ बजे नींद खुलने लगी और उठने पर अधिक स्फूर्ति अनुभव होने लगी। इस प्रयोग के बाद ही समझ में आया कि छात्रावास में प्रातः ५ बजे बलात उठा देने में हम लोगों के मन में खिन्नता का भाव क्यों आता था? क्या ऐसा था जो अनुशासन के पालक और पालित, दोनों ही न समझ सके। दिनचर्या का प्रथम अंग ही यदि त्रुटिपूर्ण रहा हो तो दिन कैसे अच्छा बीतता होगा? ऐसी ढेर सारी मूढ़तायें थीं जो बहुत बाद मे समझ आ पायीं। 

हम सबके लिये रात्रि का भोजन महाभोज की तरह होता था। दिन भर का सारा कार्य निपटा कर विगत सारी पीड़ाओं के दुख को सहला सकने वाला सुख भोजन में ढूढ़ा जाता था। पूरी दिनचर्या में यही एक समय होता था जिसके तुरन्त बाद कोई और कार्य नहीं रहता था, विश्राम के अतिरिक्त। दोपहर का भोजन ३५ मिनट में, एक अल्पाहार के बाद विद्यालय और दूसरे के बाद खेलकूद, शान्ति से खा पाने का कोई समय ही नहीं। आयुर्वेद कहता है, तन्मना भुञ्जीथा, मन लगा कर खाना चाहिये। यह उपदेश हम केवल रात्रि के भोजन में ही प्रयुक्त कर पाते थे। 

रात्रि का भोजन स्वल्प कैसे हो सकता था? जब इस बात की होड़ लगती हो कि कौन अधिक रोटी खा सकता है तो भोजन कम कैसे हो सकता है? ऐसी प्रतियोगिताओं में धुरन्धर १८ रोटियाँ तक खा जाते थे। जब मंगलवार को खीर पूड़ी बनी हो तो आधा भोजन तो पूड़ी-सब्जी का होता था और उसके ऊपर आधा खीर-पूड़ी का। प्रयत्न यह भी रहता था कि एक बार खीर और मिल जाये और इसके लिये याचना करने में किसी को कोई लाज नहीं आती थी। मंगलवार को सुन्दरकाण्ड का पाठ होता था और उसके बाद लम्बा सा प्रवचन। “वातजातं नमामि” का आशीर्वाद, प्रवचनीय प्रतीक्षा और पूरे समय भोज्य पर ध्यान से क्षुधा और भड़क जाती थी। खीर-पूड़ी तब प्रसाद और पेट प्रासाद बन जाता था। खीर के प्रति प्रेम अभी तक स्थिर है और सौभाग्य से पूड़ी भी मिल जाये तो वह दिन मंगलवार हो जाता है। 

वैसे तो खीर बचती नहीं थी, यदि बच गयी तो हम लोग उसे गिलास में भरकर कक्ष में ले आते थे। अगले दिन प्रातः वह छात्र सबसे पहले तैयार होकर अपनी खीर चढ़ा जाता था क्योंकि संभावना इस बात की पूरी रहती थी कि कोई और आकर न पी जाये। जब अमृतकलश के लिये देव और दानवों में युुद्ध हो गया था तो खीरगिलास के लिये एक मित्र से छल कौन सा बड़ा कठिन कार्य था? 

रात्रि में भोजन के बाद दूध मिलता था, एक गिलास। कई बार ऐसा होता था कि सब्जी अच्छी नहीं बनती थी तो हमारी सारी आशायें दूध पर टिक जाती थीं। तब दूध के सहारे हम लोग ४ रोटी तक खा जाते थे। रोटी में बहुत हल्का सा नमक लगाया और त्रिभुज या बेलन जैसा मोड़कर दूध के साथ धीरे धीरे खा गये। जहाँ पर हर जटिलता को सरल बनाने में मानव मन लग जाये, वहाँ पर कम भोजन कर भूखे पेट सो जाना तो प्रतिभा का अपमान ही है। आयुर्वेद में जब से पढ़ा है कि नमक व दूध विरुद्ध आहार की श्रेणी में आते हैं तब से यह प्रयोग बन्द कर दिया है। यद्यपि नमक बहुत ही कम लगाते थे पर उससे भी त्वचा रोग होने संभावना ने इस व्यंजन का पटाक्षेप कर दिया है। 

भोजन पचाने के लिये शरीर को समय चाहिये होता है। पूरे पाचन काल में जठराग्नि बनाये रखने के लिये रक्त का प्रवाह पेट की ओर हो जाता है। तब न शरीर कार्य करता है और न मस्तिष्क। रात्रि का निश्चेष्ट विश्राम ही तब सहायता करता है। जब भोजन अधिक कर लिया हो तो यह विश्राम और भी अधिक आवश्यक हो जाता है। यदि कम खायें और ८ बजे के पहले खा लें तो लगभग ९ घंटे में खाया हुआ खाना पच जाता है। यदि ऐसा नहीं हुआ तो न ही नींद खुलती है और न ही पेट स्वच्छ होता है, न प्रारम्भ अच्छा, न दिन अच्छा। 

कक्षा ६ में आये १०-११ वर्ष के बालक के लिये और कक्षा १२ में पढ़ रहे १७-१८ के युवा के लिये निद्रा की आवश्यकतायें भिन्न भिन्न होती हैं। बालक को कम से कम ८ घंटे की निद्रा चाहिये। सबको एक ही तुला में तौल देना बालकों के साथ अन्याय है। मुझे याद है कि कक्षा ८-९ तक उठने के बाद चैतन्यता कभी आयी ही नहीं। बस ऊँघते हुये प्रातः का प्रवचन सुनते रहे। अच्छा यह रहता कि सुबह ५ बजे उठने के लिये, सायं ७३० तक भोजन हो जाता, भोजन हल्का रहता, कनिष्ठ छात्र ९ बजे तक और वरिष्ठ छात्र १० बजे तक सो जाते। भोजन की न्यूनता को संतुलित करने के लिये दोपहर के भोजन की मात्रा और काल बढ़ाया जाता। 

यदि आयुर्वेद के तत्व हमें ज्ञात होते तो संभवतः हमारे प्रभात भी स्फूर्तिमय होते।

4 comments:

  1. अमृतकलश तथा खीरगिलास की अदभुत व्याख्या और सायं अल्पाहार में समोसे तथा रविवार सुबह की जलेबी को कौन भूल सकता है।
    मनीष देव भैया को आज तक नहीं भूला हूं खाने की प्रतियोगिता में शायद ही कोई उन्हें हरा पाया हो।
    आशीष सिंह की भी कुछ धुंधली यादें हैं कि शायद उसने किसी को खाने की प्रतियोगिता में तगड़ा झटका दिया था।
    महेन्द्र जैन

    कोयंबटूर
    9362093740

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    1. जलेबी और समोसे, दोनों ही आयेंगे। मनीष देव भैया को कड़ी प्रतियोगिता अखिलेश गुप्ता ने दी थी। हम लोग तो ७-८ के ऊपर हाँफ जाते थे।

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    2. होस्टल के जीवन की बात ही निराली है ,लेकिन सीखने को भी बहुत-कुछ मिलता है.

      लंबे अंतराल के बाद ,आपको अपने ब्लाग पर देख कर बहुत प्रसन्नता हुई.

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    3. जी, सच कहा आपने। ब्लागजीवन की जीवंतता व्यवस्तता में खो गयी थी, पुनः लय पाने का प्रयास कर रहा हूँ।

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