16.3.21

मित्र - १७(दण्ड और संदेश)

उत्पात और दण्ड, दोनों ही अपने अपने संदेश देने का प्रयत्न करते हैं। एक नियत संदेश देने के लिये उत्पात या दण्ड की मात्रा कम रही या अधिक, इस पर सदा ही मतभेद रहा है। उत्पात और दण्ड कितने सफल रहे, यह इस पर निर्भर करता है कि संदेश का परिणाम कितना प्रभावी रहा। यदि उत्पात अपनी स्वतन्त्रता सिद्ध करने के लिये किया गया हो तब दण्ड के साथ नियमों में तनिक ढील हो जाये तो उत्पात सफल रहता है। यदि उत्पात में दण्ड के साथ नियमों में कठोरता कर दी जाये तो उत्पात पूर्ण रूप से असफल। संदेश देने में तो सफल पर प्रभाव छोड़ने में असफल। नियमों में कठोरता कर अनुशासक स्वतन्त्रता को और बद्ध कर देता है। संदेश दो रहते हैं कि उत्पात और स्वतन्त्रता में ढील, दोनों ही स्वीकार्य नहीं हैं। यदि उसके बाद शान्ति हो जाती है तो संदेश सफल रहा और यदि पुनः उत्पात होता है तो संदेशों के कई और चक्र होने शेष हैं इस रण में। किसमें कितनी ऊर्जा रही, किसमें कितना धैर्य रहा, किसमें कितना चातुर्य रहा, इस रोमांच का कथास्थल रहा है हमारा छात्रावास।


छात्रावास के ७ वर्षों में इस विषय में साम्यस्थिति कभी पहुँची ही नहीं। जिस समय छात्रावास अधीक्षक अनुमति देने में सहृदयता दिखाते रहे, उत्पात की आवृत्ति और आवेग कम रहे। जब से नियमों को कड़ा किया गया या उनका अनुपालन सुनिश्चित करने में विशेष प्रयास किया गया, उत्पातों का बुद्धि सौन्दर्य बढ़ता गया।


छात्रावास परिसर में मुख्यतः तीन आचार्य थे जो छात्रावास के दायित्वों से सीधे संबद्ध थे। एक प्रधानाचार्यजी थे जो अनुशासनप्रिय थे। प्रातः उठना हो, पूजा में पहुँचना हो या जो भी गतिविधि लेते थे, उसमें नियमों की प्रयुक्ति सुनिश्चित करते थे। दण्ड देने के लिये उत्पात की सूचना उन तक पहुँचना आवश्यक होता था। उनके सूचना तन्त्र के अवयव अधिक समय तक अपना रहस्य नहीं रख पाये। वे छात्र और सहायक धीरे धीरे उत्पात के क्रियान्वयन की परिधि से बाहर होते गये। गुप्तचर यदि गुप्त न रह पाये तो उसकी दुर्गति बहुत होती है। उनको कभी भी उत्पात में सम्मिलित नहीं किया गया। कई बार उनको नियन्त्रित सूचना पहुँचाने के उपयोग में लाया गया। फिल्म शोले जैसी नाटकीयता तो नहीं पर “सब ठीक चल रहा है का संदेश” उनके माध्यम से ही भेजा जाता था।


प्रधानाचार्यजी का विश्वास था कि शब्द अत्यन्त प्रभावी होते हैं और हम छात्रावासी शब्द सुनकर ही सुधर जायेंगे। उनके उद्बोधनों की ओजस्विता अनुकरणीय है। शब्दों पर नियन्त्रण, वाक्यों का प्रवाह और विषय पर दृष्टि, तीनों सधे हुये चलते हैं और इस सम्मोहन में कब समय निकल जाये, यह पता ही नहीं चलता है। शब्द जितने सक्षम थे, हम उतना सुधरे भी पर “मनसा वाचा कर्मणा” में केवल एक विमा ही पर्याप्त नहीं होती है। मन से और कर्म से हम सब फिर भी उत्पाती बने रहे, बस शब्दातीत हो गये। लब्ध और शब्द में जो जिस समय दिखा, वह स्वीकार कर लिया।


दूसरे आचार्य थे, प्रमुख छात्रावास अधीक्षक। सरल थे, गृहस्थ थे और छात्रावास के लिये अधिक समय नहीं निकाल पाते थे। यदा कदा उनकी उपस्थिति हमारे आदर का विषय थी। तीसरे आचार्य थे जो मुख्यतः हमारी सारी गतिविधियों पर सतत दृष्टि रखते थे और बाहर जाने के लिये या किसी अन्य कार्य को करने के लिये उनकी अनुमति आवश्यक होती थी। प्रथम तीन वर्ष उनके पास भोजनालय का भी दायित्व था। उनकी दोनों दायित्वों में व्यस्तता हमारी स्वतन्त्रता में बाधक नहीं थी। अनुमति देने में अधिक पूछताछ नहीं करते थे, हाँ कारण पुष्ट होना चाहिये। हम लोग हर बार एक नवीन कारण ढूढ़कर लाते थे। उनके समय में हमारी बौद्धिक क्षमता का समुचित विकास हुआ। अति उदारमना होने में उनका यह सिद्धान्त रहा होगा कि अधिक कसने से चूड़ियाँ टूट जाती हैं, समुचित विकास के लिये ढील आवश्यक है। इस ढील का हम सबने अन्यथा बहुत लाभ उठाया।


तीन वर्ष बाद जब परिवर्तन हुआ तो एक के स्थान पर दो आचार्यों को लगाया गया, एक भोजनालय के लिये और दूसरे छात्रावास के लिये। यह वह समय था जब दोनों ही क्षेत्रों में और दोनों ही पक्षों में घर्षण हुआ। भोजन की कथा के बारे में फिर कभी पर छात्रावास में हम लोगों की जीवनशैली में आमूलचूल परिवर्तन होना प्रारम्भ हो गया। जिन ढीलों को हम अपना अधिकार माने बैठे थे, जिन पर कभी कोई प्रश्न नहीं करता था, जिन कृत्यों के बारे में किसी को पता नहीं चलता था, वे सारे तत्व विचारणीय हो गये और हम सबकी दशा दयनीय।


छात्रावास सम्हाल पाना सबके बस की बात नहीं है। इसमें समय, ऊर्जा और बुद्धि तीनों ही चाहिये होता है। पहली बार लगा था कि तीनों में ही हमसे कोई आगे चल रहा है। एक के बाद एक ऐसी घटनायें होती गयी, ऐसी स्थानों से लोग टहलते हुये पकड़े गये कि यह समझना कठिन हो गया कि क्या करें, क्या न करें? अनुशासन अपने स्थान पर था पर युवा मन को लगने लगा कि उनकी ऊर्जा को कहीं से चुनौती मिल रही है। योजना का जो स्तर अभी तक हम लोग प्रयोग में ला रहे थे, उससे कहीं सूक्ष्मतर दृष्टि से हम देखे जा रहे थे। जिन दुर्गों में हम निश्चिन्त हो बैठे थे, वे सब एक के बाद एक ढह रहे थे। कौन सा सूचना तन्त्र कार्य कर रहा है, यह समझ नहीं आ रहा था? बात नियमों के कठिन या सरल होने की नहीं रह गयी थी, अब प्रतिष्ठा स्वयं को सिद्ध करने की हो गयी थी। संदेश देने के पहले ही पकड़े जा रहे थे, उत्पात मचाने के पहले ही उद्घाटित हुये जा रहे थे।


रण अब प्रत्यक्ष नहीं रह गया था, रण एक नये स्तर पर पहुँच गया था।

1 comment:

  1. यद्यपि मैं छात्रावास में दो वर्षों तक ही रहा किंतु छात्रावासी जीवन को याद करके मन प्रफुल्लित हो जाता है।
    अनुशासन का सही अर्थ वहीं से ज्ञात हुआ ।
    माता पिता तथा भाई बहिनों से बिछड़ कर उनका सही मूल्यांकन छात्रावास में रह कर के ही मैंने किया ।
    महेन्द्र जैन

    कोयंबटूर
    9362093740

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