17.9.19

अभ्यास और वैराग्य - ९

यम और नियम कुल दस गुण हैं। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह यम कहलाते हैं। शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधान नियम हैं। यम निषेधपरक हैं, नियम विधिपरक। यम में हम अपनी उन प्रवृत्तियों को रोकते हैं जो हमें अस्थिर करती हैं। हम एक स्तर ऊपर उठ जाते हैं, संभवतः इसलिये कि बात आगे न बढ़े, अस्थिरता न बढ़े। नियम में हम उन गुणों को विकसित करते हैं जिससे हमें यम स्थिर रखने हेतु कुछ और मानसिक बल मिलता है। नियम से यम और भी नियमित हो जाते हैं।

मन साधने के लिये यह आवश्यक है कि शरीर सधे, परिवार सधे, समाज सधे। यदि ऐसा नहीं होगा तो मन वहीं लगा रहेगा। यदि समाज स्थिर नहीं रहेगा तो मन कैसे स्थिर रहेगा। इनको साधते साधते पर हम इतना खो जाते हैं कि मन साधने का प्रारम्भिक लक्ष्य भूल जाते हैं, नये पथ में रथ बढ़ा देते हैं। परिवार और समाज संबंधों का विस्तृत आकाश है, उसमें यदि सब मनमानी पर उतर आयेंगे तो अव्यवस्था पसर जायेगी। सुचारु व्यवस्था हेतु न्यूनतम आवश्यकतायें तो हमें माननी ही होंगी। सहजीवन के धर्म मानने होंगे।

धर्म वर्तमान का संभवतः सर्वाधिक शापित शब्द है, कोई इसका अर्थ समझना ही नहीं चाहता। इस शब्द को बहुधा कठघरे में उन शब्दों के साथ खड़ा कर दिया जाता है जिन पर हम अपनी दुर्गति और अवनति के आरोप थोपते आये होते हैं। संस्कृत की धृज् धातु से धर्म शब्द बना है, अर्थ है धारण करना। धार्यते इति धर्मः। जो समाज को धारण करे, आधार दे, स्थिरता दे, आश्रय दे, वह धर्म है। धर्म जोड़ने का कार्य करता है, तोड़ने का नहीं। धर्म की गति न्यायवत है, अन्यायवत नहीं। 

मित्र से बात हो रही थी। धर्म के नाम पर प्रचलित कई कुरीतियाँ, रूढ़ियाँ, और विक्षेपों से वह आहत हो जाते हैं। यह सब होते हुये धर्म को किस प्रकार समझा जाये, स्वीकार किया जाये। क्या माना जाये, क्या न माना जाये। धर्म के विषय में अपना दिशायन्त्र तब क्या हो भला? पशोपेश है कि संस्कृति की धरोहर न छोड़ते बनती है और न ही सहर्ष स्वीकार हो पाती है। 

जब डोर उलझ जाये तो सिरे ढूढ़ने होते हैं। मूल समझने से विकार का आकार और प्रकार सब समझ आ जाता है। क्या धर्म है और क्या नहीं, इस विषय पर सदा मनु द्वारा बताये धर्म के लक्षणों को ही स्मरण करने से भ्रम अवगलित हो जाता है। 

मनु धर्म के दस लक्षण बताते हैं। दशकम् धर्म लक्षणम् - धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह, धी, विद्या, सत्यम्, और अक्रोध। यदि कोई विचार, कृत्य, व्यक्ति आदि इन लक्षणों के विपरीत वर्ताव करता है तो वह धर्मसम्मत नहीं है। कर्मकाण्ड और पद्धतियाँ धर्म के लिङ्ग या चिन्ह तो हो सकते हैं पर मूल यही दस लक्षण ही होंगे। इससे स्पष्ट कोई और प्रमाण या परीक्षा हो ही नहीं सकती। यही नैतिकता भी है, वह जो आगे ले जाये। ‘नी’ धातु ‘ले जाने’ के अर्थ में आती है, नेता, नायक, नौका आदि।

ध्यान से देखे तो यम और नियम में वर्णित दस गुण और मनु द्वारा नियत धर्म के दस लक्षण लगभग एक ही हैं। अर्थ स्पष्ट है, यम और नियम का पालन सामाजिक, पारिवारिक और मानसिक स्थायित्व देता है। संभवतः योग पथ में बढ़ने के लिये इससे सशक्त आधार और कुछ हो भी नहीं सकता है। 

यम यदि वाह्य साम्य स्थापित करता है तो नियम आन्तरिक साम्य। यम और नियम का क्रम अत्यन्त महत्वपूर्ण है, हम बाहर से अन्दर की ओर बढ़ रहे हैं। आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि से हम और भी अन्दर तक जाते जायेंगे। अन्दर जानना आवश्यक है योग के लिये। जिसको जानना है, उसी के माध्यम से जानना है। मन को जानना है, मन के माध्यम से जानना। योग यही है, कठिन इसीलिये है, समय इसीलिये लगता है, इसीलिये मन की वृत्तियों को रोकना है अन्यथा न मन देख पायेगा और न मन दिख पायेगा। अन्दर देखने से मन की अन्य गति सीमित हो जाती है, तब बस दृष्टा और मन।

अगले ब्लाग में यम और नियम के व्यावहारिक और यौगिक पक्ष।

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