3.9.19

अभ्यास और वैराग्य - ५

पतंजलि अभ्यास को दो सूत्रों में परिभाषित करते हैं। 

तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यासः - वहाँ पर यत्नपूर्वक बने रहना अभ्यास है।
स तु दीर्घकालनैरन्तर्यसत्कारासेवितो दृढभूमिः - दीर्घकाल, निरन्तर और सत्कारपूर्वक सेवित वह अभ्यास दृढ़भूमि होता है।

जहाँ पर आप हैं, वहाँ पर यत्नपूर्वक बने रहना अभ्यास है। यथास्थिति बनाये रखने के लिये अभ्यास को दृढ़भूमि होना पड़ेगा। अतः हमें दीर्घकाल तक, निरन्तर और सत्कारपूर्वक अभ्यास करना होगा।

यहाँ चार शब्दों से अभ्यास को समझना होगा - यत्नपूर्वक, दीर्घकाल, निरन्तर और सत्कारपूर्वक। हमारी प्राकृतिक दिशा अधोगामी है, यदि कुछ नहीं करेंगे तो नीचे गिरते जायेंगे। प्रयत्न करने से वहीं पर स्थित रहेंगे। प्रयत्न एक दिन के लिये नहीं लम्बे समय के लिये। प्रयत्न एक बार का नहीं, बार बार का। प्रयत्न अनमने ढंग से नहीं, पूरी श्रद्धा, क्षमता और तपपूर्वक। गुरुत्व गतिशील है, हवा में बने रहने के लिये उतना ही ऊर्ध्व बल लगाना पड़ता है। हाँ, जब पैरों के नीचे भूमि आ जाती है तब यत्न तनिक रोके जा सकते हैं, तब तनिक ठहरा जा सकता है, पर वह भी अधिक समय के लिये नहीं, बस अगली स्थिति में प्रस्थान करते तक।

जब कुछ नया साकार करना प्रारम्भ होता है, विकार घेर लेते हैं। विकार से अधिक गति से हमें प्रयत्न करना होगा। प्रतिदिन विकार की तनिक मात्रा कम करनी होगी, तनिक तीव्रता घटानी होगी और यह तब तक चलेगा जब तक विकार समूल नष्टप्राय नहीं हो जाता है।

बिना किसी कार्य को बार बार किये कुशलता भी तो नहीं आती है। करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान। प्रयत्न प्रारम्भ में अत्यधिक लगता है पर अभ्यास बढ़ने से प्रयत्न की मात्रा धीरे धीरे कम होती जाती है। मेरा तो अनुभव यह रहा है कि बिना अभ्यास के कोई अच्छी बात जीवन से जुड़ती ही नहीं। यदि यदाकदा जुड़ भी गयी तो बिना अभ्यास के टिकती ही नहीं।

अभ्यास योग के आठों अंगों का करना होगा। आइये, सारे अंगों को विस्तृत रूप से समझ लें।
यम में ५ गुण होते हैं - सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य
नियम में भी ५ गुण होते हैं - शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्राणिधान 
इसके अतिरिक्त आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारण, ध्यान और समाधि।

उपरोक्त में कोई भी ऐसा साधन नहीं है जिसमें अभ्यास न लगता हो। कोई न कोई साधन हर समय उपस्थित रहता है। हर समय कुछ न कुछ अभ्यास यथास्थिति बनाये रखने के लिये करते रहने होता है। प्रश्न उठ सकता है कि क्या अभ्यास केवल आध्यात्मिक आवश्यकताओं या इन १६ साधनों के लिये ही करना चाहिये, अभ्युदय का क्या, जीविका का क्या, उद्योग का क्या? योगसूत्र का विषय यद्यपि भौतिकता से सीधे रूप से जुड़ता नहीं प्रतीत होता है पर गीता अभ्यास का विस्तार सारे कर्मों में निश्चित करती है। किसी भी क्षेत्र में बिना अभ्यास के कर्म सिद्ध हो पाना कठिन होता है।

यह भाग्यवादियों और कर्महीनों के लिये स्पष्ट संदेश है कि बिना अभ्यास के कुछ भी नहीं प्राप्त होता है, न ही भोग में, न ही अपवर्ग में, न ही अभ्युदय में, न ही निःश्रेयस में। जो पलायनवादी अपने कर्तव्यों को दुरुह जान कर उससे भागने के क्रम में आध्यामिकता का चोला चढ़ा लेते हैं, उनको भी यह सिद्धान्त समझना आवश्यक है। सकल पदारथ हैं जग माहीं, कर्महीन नर पावत नाहीं। अभ्यास से कर्म अपनी श्रेष्ठता पाता है।

कहते हैं को कोई अच्छी आदत या कुशलता पाना हो तो कम से कम २१ दिन अवश्य करें। २१ दिन में अंकुर निकल आता है और उसका लाभ भी मिलने लगता है। एक बार उससे होने वाला लाभ समर्पित श्रम और समय से अधिक हो जाता है, उसे दृढ़भूमि मिल जाती है। कुछ शीघ्र पाने की व्यग्रता और समुचित समय देने के बाद भी न फल न मिलने की रिक्तता पीड़ासित होती है। इसीलिये पतंजलि स्पष्ट रूप से कहते हैं कि अभ्यास से अन्य कठिन कर्म तो क्या, मन को साधने का कठिनतम कर्म भी संभव है।

वैराग्य के सूत्र, अभ्यास और वैराग्य एक दूसरे को किस प्रकार प्रभावित करते हैं, पारस्परिक सम्बन्धों विवेचना अगले ब्लाग में।

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