7.9.19

अभ्यास और वैराग्य - ६

वैराग्य को पतंजलि ने दो सूत्रों में परिभाषित किया है।

दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम् - देखे और सुने विषयों में वितृष्णा वशीकार वैराग्य है।
तत्परं पुरुषख्यातेर्गुणवैतृष्ण्यम् - पुरुष के ज्ञान से प्रकृति के गुणों में वितृष्णा परवैराग्य है।

वैराग्य की दो स्थितियाँ हैं, वशीकार वैराग्य एवं पर वैराग्य। जो विषय हमारे मन को बार बार इधर उधर भटकाते हैं, उनसे वितृष्णा होना वशीकार वैराग्य है। अभ्यास से स्थिर मन को यदि विषय खींचते रहेंगे तो दृढ़भूमि भी स्थिर नहीं रहेगी। वैराग्य से अभ्यास दृढ़ होता है और अभ्यास से वैराग्य। दोनों ही एक दूसरे पर आश्रित रहते हुये साथ साथ चलते हैं। जब पुरुषख्याति होती है या कहें कि अपना स्वरूप जानने की स्थिति आती है तब जो विवेक उत्पन्न होता है उससे वैराग्य पूर्णरूप से सिद्ध हो जाता है। तब विषय से मन हटाने के लिये प्रयास नहीं करना पड़ता है, वैराग्य स्वतःस्फूर्त होता है।

वैराग्य को समझने की दृष्टि से तीन तथ्य अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। पहला यह कि वैराग्य उपादेयता और हेयता, दोनों से ही विलग है। उपादेय अर्थात ग्रहण करने योग्य, हेय अर्थात छोड़ने योग्य। यदि किसी वस्तु या विषय के बारे में हम यह सोचते रहे कि इसे ग्रहण नहीं करना है, इसे पास नहीं आने देता है तो वह वैराग्य की स्थिति नहीं है। किसी का हेयता पक्ष सोचना भी एक प्रकार का राग है। कहते हैं कि रावण को मुक्ति इसलिये मिल गयी कि वह शत्रुता या भयवश ही सही, पर श्रीराम के बारे में सोचता रहता था। वैराग्य, किसी विषय के प्रति न उपादेयता का भाव है और न ही हेयता का।

दूसरा यह कि वैराग्य वाह्य रूप से नहीं होता है। आप इन्द्रियों से किसी विषय से दूर हैं पर मन में एक लालसा बनी हुयी है कि यह मिल जाये, तब भी वह वैराग्य नहीं है। पलायनवादी अपना घर द्वार तो छोड़ आते हैं पर उनके घर द्वार का विचार उनके मन को नहीं छोड़ता है। मानसिक भोग भी भोग ही है। वर्षा के समय किसी गुरु ने सहायता स्वरूप किसी स्त्री को उठाकर नदी पार करा दी। बहुत समय बाद जब शिष्य से न रहा गया तो उसने गुरु के समक्ष अपना संदेह रखा। गुरु ने कहा कि मैं तो उसे उठाकर छोड़ भी आया, तुम तो उसे अभी तक अपने पास रखे हो।

तीसरा यह कि किसी भोग को श्रम और साधन के अभाव में या भयवश नहीं करना वैराग्य नहीं है। आपके पास धन नहीं है और आप लड्डू नहीं खरीद सकते। आपको डायबिटीज है और लड्डू खाने से आपके स्वास्थ्य पर अत्यधिक प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। ये दोनों ही स्थितियाँ वैराग्य की श्रेणी में नहीं आती हैं। इसमें तृष्णा मिटी नहीं है, बस रुक गयी है। जैसे ही बाध्यता हटेगी, भोग मुखर हो जायेगा। यह विचारकर कि भोग अनित्य हैं या योग में जो आत्मिक सुख है वह इन भोगों से कहीं अधिक है या कालान्तर में भोग न होने पर अन्ततः ये दुख का कारण बनेगे, ये विचार बुद्धिजनित है और वशीकार वैराग्य की श्रेणी में आयेंगे। जब यह विवेक आ जायेगा कि आत्मा और शरीर अलग अलग हैं और शरीर को विषयों से पोषित करना श्रम को व्यर्थ करना है तो वह परवैराग्य होता है।

तो क्या सब कुछ छोड़ देना चाहिये। उपयोग और उपभोग में जो भिन्नता है वही भिन्नता वैराग्य को भी स्पष्ट करती है। हमें भौतिक साधनों का उपयोग करना है, उपभोग करने नहीं पसर जाना है। एक चोर कह सकता है कि मुझे चोरी का अभ्यास है और जिनके घर चोरी होती है, उनके कष्टों से वैराग्य है। यह चोर की कुशलता तो बढ़ायेगा पर योग के साधनों का पालन नहीं करेगा अतः यह योग नहीं कहलायेगा। क्योंकि यह कार्य भु्क्तिमार्गी है, मुक्तिमार्गी नहीं। 

एक प्रकार से देखा तो अभ्यास और वैराग्य मन के ही धर्म हैं। जिस पर हमें राग होता है उस पर मन बार बार सयत्न स्थित हो जाता है, उसका अभ्यास होने लगता है। इसी प्रकार जब मन उस भोग से उकता जाता है तो उस वस्तु या विषय के प्रति मन में वैराग्य हो जाता है। अभ्यास और वैराग्य का यह क्रम चक्रीय होता है और उसी चक्र में बार बार घूमता रहता है। योग वृत्तियों का निरोध है, न कि भोग के भँवर मे बार बार डूबना। मन के अन्दर ये दोनों गुण सदा विद्यमान हैं, बस किसका अभ्यास करना है और किससे वैराग्य करना है, यह दिशा योग ही देता है।

एक स्तर पर देखा जाये तो अभ्यास और वैराग्य परस्पर विरोधाभासी हैं। अभ्यास किसी विषय में प्रवृत्त होना है वैराग्य विषयों से विरक्त होना है। तब ये साथ साथ कैसे रह सकते हैं। भारतीय संस्कृति में इस प्रकार के उदाहरण बिखरे पड़े हैं, पर समन्वय और संतुलन के स्तर पर दोनों ही एक दूसरे को पुष्टित करते हुये चलते हैं। विरोधी प्रतीत होने पर भी दोनों ही आवश्यक है, किसी एक से काम नहीं चलेगा।

अगले ब्लाग में दो और सूत्र, ५ और मूलभूत आवश्यकताओं के बारे में चर्चा।

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