10.9.19

अभ्यास और वैराग्य - ७

अभ्यास और वैराग्य से योग की किस स्थिति तक पहुँचा जा सकता है? यदि उस स्थिति तक न पहुँच पाये तो क्या पुनः प्रारम्भ से प्रयास करना होगा? यद्यपि प्रक्रिया के प्रारम्भ होने से हमें भौतिक लाभ प्राप्त होने लगते हैं, पर आध्यात्मिक लक्ष्य क्या हैं?

योग का लक्ष्य चित्त की वृत्तियों का निरोध है। अभ्यास और वैराग्य से हम पहले पाँच अंग साधते हैं, इन्हें वाह्य अंग या बहिरंग कहा जाता है, यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार। धारणा, ध्यान और समाधि को सम्मिलित रूप से संयम की संज्ञा दी है, ये आन्तरिक अंग हैं, अंतरंग। बिना बहिरंग साधे अंतरंग संभव भी नहीं है। संयम का लक्ष्य ऋतम्भरा प्रज्ञा होती है या कहें तो वह बुद्धि जो सत्य पर टिकी रहती है। संयम का विषय क्रमशः स्थूल से सूक्ष्म होता जाता है। किस विषय पर संयम करने से क्या सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, इसका पूरा विवरण विभूति पाद में है, उस पर चर्चा फिर कभी।

यहाँ तक की प्रक्रिया को सम्प्रज्ञातयोग कहते हैं, जिससे प्रज्ञा प्राप्त हो। अब चित्त की नयी वृत्तियों का बनना समाप्त हो जाता है पर पुरानी वृत्तियों और तज्जनित कर्मों के कारण संस्कार शेष रहते हैं। कालान्तर में वे संस्कार भी क्षीण हो जाते हैं, उस समय की अवस्था को असम्प्रज्ञातयोग, निर्बीज समाधि या कैवल्य अवस्था कहते हैं। योगसूत्र का विषय यहीं समाप्त हो जाता है, गीता उसके बाद की भी गतियों का वर्णन करती है।

स्थितिप्रज्ञ, विदेह और प्रकृतिलय, ये तीन शब्द हमें योगसूत्र और गीता से प्राप्त होते हैं। स्थितिप्रज्ञ या जिसकी बुद्धि स्थिर हो, विदेह या  देह के अभिमान से रहित और प्रकृतिलय या चित्त को प्रकृति में लीन करने वाले। इन तीनों की समाधि अवस्था को पुरुष, शरीर और प्रकृति की दृष्टि से देखा जा सकता है। चित्त पुरुष और प्रकृति के बीच का संपर्कसूत्र है। उसकी उपादेयता पुरुष को भोग से अपवर्ग तक ले जाने की है। स्थितिप्रज्ञता पर पहुँचते ही चित्त अपने कारण में विलीन हो जाता है, प्रकृति में विलीन हो जाता है, प्रकृतिलय हो जाता है। देह की इन्द्रियाँ तब चित्त के माध्यम से अपने विषयों में लिप्त नहीं हो पाती है, व्यक्ति विदेह हो जाता है।

माँ सीता को वैदेही भी कहते हैं, यह नाम उन्हें अपने पिता राजा जनक से मिला। जनक राजा थे पर विदेह थे। राजकार्य करते हुये भी निर्लिप्त थे। योग के निष्कर्षों की दृष्टि से कर्म, भक्ति और ज्ञान में कोई भेद नहीं है। अपनी क्षमताओं और रुचियों के अनुसार साधन चुनने की स्वच्छन्दता योग को और भी सौन्दर्यमयी बना देती है। योग गृहस्थ या सामाजिक जीवन में व्यवधान नहीं वरन एक वरदान है। योग को समग्रता से न जानने वालों का संशय तो समझ आता है पर जिनके समक्ष योग के इतने सुन्दर उदाहरण इतनी सहजता से उपस्थित हों, उन्हें योग स्वीकारने में संशय हो, यह सामान्य बु्द्धि से परे है।

अभ्यास की परिभाषा, गुण और उसकी अष्टांगयोग में आवश्कता बताने के साथ ही पतंजलि अभ्यास हेतु पाँच साधनों का भी वर्णन करते हैं। श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि और प्रज्ञा। इनसे अभ्यास शीघ्रप्राप्त और अत्यन्त दृढ़ होता है। शब्द स्पष्ट हैं, फिर भी सरलता के लिये अर्थ बताते चलते हैं।

श्रद्धा - भक्तिपूर्वक विश्वास। जो कर रहे हैं उस पर पूरा विश्वास। संशय चित्त की अवस्था है, प्रभावित हुये तो पगभ्रमित होने की संभावना है, विलम्ब की संभावना है।
वीर्य - मन, इन्द्रिय और शरीर का सामर्थ्य और दृढ़ता। उत्साह बना रहना चाहिये। निष्कर्ष आने में समय लग सकता है, कई कारण होते हैं, पर उत्साह, ऊर्जा और उद्योग अत्यन्त आवश्यक है।
स्मृति - ध्येय की स्मृति, योग की क्रियाओं की स्मृति, अंगों की स्मृति, बार बार। किसी भी कार्य को करने में किसी यम या नियम की अवहेलना तो नहीं हो रही है।
समाधि - चित्त का एकाग्र होना। पूरी ऊर्जा और ध्यान एक ही कार्य में प्रस्तुत हो जाता है। इससे अभ्यास और दृढ़ होता जाता है।
प्रज्ञा - स्वयं के स्वरूप का समुचित ज्ञान, साधन और साध्य का ज्ञान, उपादेय और हेय का ज्ञान।

यावत् जीवेतम सुखम् जीवेत के अनुयायी भले ही छद्म धरे और बुद्धि के बल पर जगत को ढग लें, पर ऐसे लोगों की मानसिकता उद्भाषित होने पर बड़ी छीछालेदर होती है। आप किसी को कितना मूर्ख बना सकते हैं? उद्योग और उत्साह का अभ्यास ग्राह्य हो, कुटिलता और चालाकी त्याज्य हो। योग के पथ पर कितना भी चल सके, कोई हानि नहीं है। यह श्रीकृष्ण की घोषणा हैं, त्रायते महतो भयात् (२.४०), न मे भक्तः प्रणश्यति(९.३१)।

अगले ब्लाग में अष्टांग योग की चर्चा।

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