9.11.19

अभ्यास और वैराग्य - २४

जब एक ही विषय पर धारणा, ध्यान और समाधि क्रमपूर्वक लगे तो उसका पारिभाषिक नाम संयम है। यह लौकिक संयम से तनिक भिन्न है। जब समाधि लगने लगती है तो विषय उत्तरोत्तर सूक्ष्म होते जाते हैं। अनन्त विषय हैं, संयम के लिये, लगभग सारे ही स्थूल और सूक्ष्म विषयों पर, भावों पर, विचारों पर, शब्दों पर, मन्त्रों पर, सब पर ही संयम किया जा सकता है।

संयम का जय होने पर प्रज्ञा का आलोक हो जाता है, विषय प्रकट हो जाते है। ज्ञान से समझ और प्रकाशित हो जाती है। यही समझ समाधि का प्रत्यक्ष है, उससे प्रज्ञा बढ़ती जाती है, समझ की गहराई बढ़ती है। जैसे जैसे संयम स्थिर होता है, प्रज्ञा उतनी ही निर्मल (विशारदी) होती जाती है। यह अनुकूल स्थिति अभ्यास से बनती जाती है। पहले पहले समझ अस्पष्ट होती है, धीरे धीरे स्पष्ट होती जाती है। धारणा के समय विषयगत ज्ञानवृत्तियाँ अपनी अस्पष्टता तजकर समाधि की स्थिति में पूर्ण स्पष्ट हो जाती हैं। 

संयम का प्रयोग भिन्न भिन्न भूमियों में होता है। भूमियों का स्तर धीरे धीरे बढ़ता जाता है। पिछली सीढ़ी अगले के विनियोग के लिये सहायक होती है। प्रक्रिया है, पहले स्थूल से प्रारम्भ करेंगे, धीरे धीरे सूक्ष्म पर जाते जायेंगे। सीधे ऊपर की सीढ़ी में नहीं पहुँच सकते हैं। ईश्वर की कृपा से यदि किसी ने उत्तर की भूमि को जीत लिया है जो उसे उनसे अधर भूमियों में संयम करने की आवश्यकता नहीं है। उसे निम्न भूमियों का साक्षात्कार करने की आवश्यकता ही नहीं है। जब ईश्वर की कृपा हो गयी और निम्न भूमियों को अन्य विधि से जान लिया है, तो संयम से जानने की क्या आवश्यकता है?

अगली भूमि कौन सी होगी, योग ही अपने आप उसे बता देगा, ज्ञान हो जायेगा। जैसा कि पहले भी चर्चा हो चुकी है, योगेन योगो ज्ञातव्यो योगो योगात्प्रवर्तते। योग के द्वारा योग जाना जाता है और योग से ही योग आगे बढ़ता है। योग के प्रति जो अप्रमत्त है वह योग में अधिक रमता है। जो भटकता नहीं है, मदमत नहीं होता है, वही देर तक योग में रहता है। हमें ज्ञान से सुख मिलता है, ज्ञान से दृष्टि मिलती है, भटकाव रुक जाता है। ज्ञान का सुख लौकिक सुख से अधिक होता है, पर क्षीण तो वह भी होता है। इसी प्रकार समाधि से प्राप्त ज्ञान का सुख और भी अधिक होता है, पर क्षीणता उसमें भी आती है। बस परमात्मा का सुख बिना क्षीणता के होता है। 

विषयगत समाधि को सम्प्रज्ञात समाधि कहते हैं, क्योंकि इसमें हमें कुछ ज्ञात रहता है। सम्प्रज्ञात समाधि के चार चरण हैं, वितर्क, विचार, आनन्द और अस्मिता, ये क्रमशः स्थूल से सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होती जाती है। जैसा कि योग की परिभाषा में कहा गया था कि योग चित्त की वृत्तियाँ का निरोध है, पर सम्प्रज्ञात समाधि में विषय भी रहता है और संबंधित वृत्तियाँ भी। इससे परे असम्प्रज्ञात समाधि होती है, जिसे निर्बीज समाधि भी कहते हैं, इसमें वृत्तियों का अभाव होने लगता है, इसमें सम्प्रज्ञात का अभाव हो जाता है। यह परवैराग्य होने पर होती है।

संयम की प्रक्रिया में चित्त में परिवर्तन आते हैं, इन्हें परिणाम कहते हैं। सर्वार्थता (चंचलता) से एकाग्रता आने के क्रम को समाधि परिणाम कहते हैं। इसमें सर्वार्थता और एकाग्रता का क्रमशः क्षय और उदय होता है। इसमें शान्त होने वाली वृत्ति चंचलता की है और उदित होने वाली वृत्ति एकाग्रता की। जब शान्त होने वाली और उदित होने वाली वृत्ति एक सी या तुल्य हों तो उसे एकाग्रता परिणाम कहते हैं। और अन्ततः जब वृत्तियाँ उठनी बन्द हो जायें तो उसे निरोध परिणाम कहते हैं।

वृत्तियाँ संस्कार को जन्म देती हैं, संस्कार कालान्तर में वृत्तियों को जन्म देते हैं। यह क्रम सतत है क्योंकि संस्कार ही हमारे कर्माशय में एकत्र रहते हैं और उचित समय और वातावरण पाकर प्रस्फुटित होते हैं। निरोध परिणाम के समय जब कोई वृत्ति नहीं है, तब चित्त में क्या होता है? उस समय निरोध संस्कार उत्पन्न होते हैं। प्रश्न उठ सकता है कि यदि वृत्ति नहीं तो संस्कार कैसे? चित्त को वृत्तिरहित क्षणों का बोध रहता है, उसका भी संस्कार पड़ता है। निरोध परिणाम संस्कारों के स्तर पर होता है।

असम्प्रज्ञात समाधि में आये निरोध परिणाम के कारण निरोध संस्कार व्युत्थान संस्कार का स्थान लेते जाते हैं। जब निरोध संस्कार प्रबल होते हैं तो वह प्रशान्तवाहिता की स्थिति होती है। जब समाधि टूटती है तो व्युत्थान संस्कार पुनः आ जाते हैं। यह क्रम चलता रहता है, अभ्यास से, वैराग्य से, कैवल्य की प्राप्ति तक। जब कोई संस्कार शेष नहीं रहते तो मुक्ति है। जब संस्कार नहीं शेष तो वापस इस संसार में आने का कारण नहीं। और जब तक इस संसार में हैं भी, तो निर्लिप्त, विदेह, प्रकृतिलय।
यह संयोग ही रहा कि दो दिन पूर्व कोयम्बटूर जाना हुआ। वहाँ पर ईशा ध्यान केन्द्र में प्राणप्रतिष्ठित ध्यानलिंगम् के समक्ष ध्यान लगाने का अवसर मिला। अद्भुत अनुभव था वह। बाहर प्रांगण में आदियोगी की ध्यानस्थ प्रतिमा निहार कर मंत्रमुग्ध सा खड़ा रहा। अद्भुत शान्ति, अद्भुत सुख, अद्भुत तृप्त शिव समाधिस्थ थे। 

यद्यपि सिद्धियों के बारे में लिखने की पूर्वयोजना थी पर आदियोगी को रमा देखकर वे वृत्तियाँ अवसान पा गयीं। अभ्यास और वैराग्य के प्रकरण को यहीं विराम। शेष फिर कभी।

1 comment:

  1. सब कुछ भाष्य परिभाषा से भी मुक्त हो जाता है सर्वोच्च ध्यान में। संभवतः तब किसी को कुछ बताने या समझाने का अस्तित्व बिन्दु ही स्वतः सिमट जाता है। अति सहजता-सरलता से समझाया आपने।

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