8.10.19

अभ्यास और वैराग्य - १५

अष्टांग योग मन की बाहर से अन्दर की ओर की यात्रा है, बाह्य विषयों से अन्तःस्वरूप तक की व्यवस्थित विकास प्रक्रिया। यम के द्वारा सामाजिक उद्वेलन को मंद करते हुये नियम के द्वारा मन को पुनः न उद्धत होने देना, आसन के द्वारा शरीर की अन्य इन्द्रियों की स्थिरता, प्राणायाम द्वारा प्राण पर नियन्त्रण, प्रत्याहार में कूर्मरूप हो इन्द्रियों को विषयों से खींच लेना, ये पाँच एक आवश्यक और दृढ़ आधार निर्मित कर देते हैं। तत्पश्चात स्थूल से सूक्ष्म विषयों पर संयम (धारणा, ध्यान और समाधि) के द्वारा चित्त की वृत्तियों का क्रमशः संकुचन और निरोध। प्रारम्भ में संयम क्षणिक और क्षीण होता है, अभ्यास से अवधि और गहराई बढ़ती जाती है, समाधिस्थ होने तक। जैसा पहले भी कहा है कि अगले चरण में जाने के लिये पूर्वचरण पूर्णतया सिद्ध करने की बाध्यता नहीं है। कई चरणों को एक साथ साधा जा सकता है, ये एक दूसरे को प्रेरित और पोषित करते रहते हैं।

नियम ५ हैं, शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वरप्रणिधान। नियमों के द्वारा व्यक्तिगत अनुशासन, सदाचार, चारित्रिक उन्नयन और अन्ततः जीवन नियमन होता है। नियमयन्ति प्रेरयन्तीति नियमाः। नियम के लिये प्रवृत्ति करनी होती है, प्रयत्न करना होता है। यम में निवृत्ति थी, निषेध था। जहाँ प्रवृत्ति और प्रक्रिया होती है, समय देना होता है, अनुशासन लाना पड़ता है, दिनचर्या में जोड़ना पड़ता है। ऐसे कार्य करने पड़ते हैं जिससे नियम पोषित हों। कोई भी भाव आने पर या कार्य में उद्धत होने पर यह सोचना होता है कि नियमों के पालन करने पर हमारा व्यवहार कैसा होगा?

पहला नियम है, शौच, अर्थ है शुद्धि, पवित्रता। यह वाह्य और अन्तः, दो प्रकार की होती है। मिट्टी, जल से प्रक्षालन के द्वारा की गयी शुद्धि वाह्य शुद्धि है। पहले साबुन इत्यादि का प्रयोग नहीं था, मिट्टी से ही हाथ धोना, स्नानादि किया जाता था। आज भी कई प्रकार की मिट्टी त्वचा और केशों के लिये अत्यन्त लाभदायी मानी जाती है। जल वाह्य मल को अपने साथ बहा ले जाता है। पानी पावनकारी है, पवन और पावक के समान।

मन के स्तर पर भी शौच महत्वपूर्ण है। मेधा के लिये हितकर वस्तुओं को ग्रहण करना भी शौच है। इस नियम के अन्तर्गत मादक पदार्थों का निषेध किया है, मेधा के लिये अहितकर होने के कारण। मादक पदार्थों से बुद्धि शिथिल हो जाती है, चित्त मलिन हो जाता है, चित्त स्थिर नहीं रहता है, कर्मण्यता से शून्य हो जाता है। इस स्थिति में शुभ अशुभ का विचार नहीं रहता है, विवेकशून्य हो जाता है। योग में चित्त को वशीकृत करना होता है, मादक पदार्थ उसे वशीकृत नहीं होने देते हैं, अतः वे योग के शत्रु हैं। आयुर्वेद के प्रणेता चरक भी कहते हैं, “परलोक और इहलोक में जो भी हितकर और परमश्रेयः है, वे सब देही को मन की समाधि के द्वारा प्राप्त होते हैं। परन्तु मद्य से मन में अत्यन्त संक्षोभ हो जाता है। मद्य से जो अंध है तथा मद्य में जिनकी लालसा है, वे श्रेयः से विमुख होते हैं।”

ईश्वर को न मानने वाले संप्रदाय पाँचवे नियम ईश्वरप्रणिधान को नहीं मानते हैं। उसके स्थान पर वे मादक पदार्थों के सेवन के निषेध को नियम मानते हैं। यद्यपि पतंजलि ने इसे शौच में लिया है, इसका आध्यात्मिक महत्व सबने स्वीकार किया है.

आन्तरिक शौच चित्त के मल का आक्षालन है, मद, मान, असूय आदि का आक्षालन। इन चित्त विकारों के कारण व्यक्ति का आचरण विपरीत हो जाता है जो समाज के लिये अहितकर होता है। शौच के पालन में अत्यधिक सनक ठीक नहीं होती है। स्वास्थ्य सही रहे और सामने वाले को आपकी उपस्थिति अरुचिकर न लगे। बार बार वस्त्र बदलना, बार बार स्नान, कहीं कीटाणु न लग जायें उसके लिये किसी को स्पर्श न करना। ये सब सनक ही कहलायेगी और सामाजिक अप्रियता को बढ़ायेगी।

प्रकृति में स्वयं को शुद्ध रखने का अभूतपूर्व गुण हैं। प्रकृति का संतुलन ठीक रहे तो प्रकृति शुद्धता बनाये रहेगी। परिवेश स्वच्छ रहे, नदियाँ, झील, वायुमण्डल शुद्ध रहे, तन शुद्ध रहे, मन शुद्ध रहे। स्वच्छता के प्रति दृढ़ आग्रह हमारा सामाजिक दायित्व है। पर्यावरण को अशुद्ध रखने में जीवमात्र की हानि है। हमारे कार्य कहीं ऐसे न हों जो पर्यावरण को हानि पहुँचायें तो यह भी हिंसा होगी, आने वाली पीढ़ियों के स्वास्थ्य के लिये घातक, आपके अपनों के स्वास्थ्य के लिये घातक। यह हमारा सौभाग्य है कि महान प्रयास इस दिशा में फलीभूत हो रहे हैं, विकास का भारतीय परिप्रेक्ष्य विश्वपटल पर अपना स्थान पा रहा है। संसाधनों का उतना ही संदोहन हो जिससे वे पुनः पनप सकें, पुनः उठ खड़े हो सकें। यदि प्रकृति पर अतिशय अत्याचार होगा तो प्रकृति अपने पावन करने वालों तत्वों से वंचित रह जायेगी और सब कुछ धरा का धरा रह जायेगा। असंतुलन फैलेगा, रोग फैलेंगे, सामाजिक त्रास फैलेगा।

जब हम निद्रा में होते हैं, हमारा शरीर स्वाभाविक रूप से सारे तन्त्रों को शुद्ध करता रहता है। मस्तिष्क से लेकर पाचनतन्त्र तक, कोशिका से लेकर रक्त तक सभी अपना अतिरिक्त पदार्थ मल के रूप में त्याग देते हैं। शौच बनाये रखने के लिये आवश्यक है कि हमारी निद्रा गाढ़ी हो, पूरी हो। अच्छी नींद के पश्चात एक ऊर्जान्वित दिन का प्रारम्भ होता है, नित्यकर्म करने के उपरान्त। यही शौच का प्रभाव है। शौच शरीर, मन, मस्तिष्क में एक स्फूर्ति लाती है। जीवन जीने के लिये सभी अंग मल उत्सर्जित करते हैं। उनकी शुद्धि हमें पुनः एक नयी ऊर्जा के साथ जीवन में उद्धत करती है। पतंजलि कहते हैं, शौचात् स्वाङ्गजुगुप्सा परैरसंसर्गः।२.४०। शौच की सिद्धि होने से अपने शरीर के प्रति जुगुप्सा और पर के साथ असंसर्ग का भाव आता है।

अगले ब्लाग में सन्तोष।

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