19.10.19

अभ्यास और वैराग्य - १८

अष्टांग योग में ५ अंग बहिरंग हैं, ३ अंग अंतरंग हैं। यम, नियम के साथ आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार बहिरंग में आते हैं। यम और नियम द्वारा सामाजिक और व्यक्तिगत स्थिरता के पश्चात शारीरिक स्थिरता पर साधना बढ़ जाती है। आसन द्वारा शरीर की इन्द्रियों को सहज रूप से रख पाना और अच्छा स्वास्थ्य, ये दो लाभ हैं। प्राणायाम प्राण को स्थिर करता है जिससे विचारों का प्रवाह संयत होता है। प्रत्याहार सारी इन्द्रियों को उनके विषयों से अलग कर लेने का सतत यत्न है। इन पर अभ्यास होने के बाद अंतरंग योग के धारणा, ध्यान और समाधि ही रह जाते हैं, अंतरंग योग को संयम भी कहते है। पतंजलि ने दूसरे पाद तक बहिरंग को और तीसरे पाद से अंतरंग का विषय उठाया है।

स्थिरसुखासनम्, स्थिर या निश्चल सुखपूर्वक बैठने का नाम आसन है। किसी विषय पर संयम करने के लिये अधिक समय के लिये नितान्त प्रशान्त हो बैठना पड़ता है, मन को एकाग्र हो उस विषय पर लगाने के लिये। यदि स्थिर एक आसन में नहीं बैठेंगे और शरीर की स्थिति बार बार बदलते रहेंगे तो मन एकाग्र नहीं हो पायेगा। यदि अतिप्रयत्न कर एक स्थिति पर बैठे रहते हैं और कभी कोई पीड़ा प्रारम्भ हो उठने लगे तो भी मन विचलित हो जायेगा। अनेकों आसन हैं, योगी मुख्यतः किन्हीं एक या दो आसनों में सिद्धि करते हैं। व्यास भाष्य में कई आसनों के नाम दिये भी गये हैं जो कि बताते हैं उस समय भी ये आसन समुचित रूप से प्रचलित रहे होंगे। पद्मासन, वीरासन, भद्रासन, स्वस्तिकासन, पंडासन, सोपाश्रय, पर्यक, कौञ्चनिषदन, हस्तिनिषदन, उष्ट्रनिषदन, समसंस्थान इत्यादि। उस स्थिति में शरीर की सहजता, सहनशीलता, द्वन्द्व सहने की शक्ति ही आसन के प्रमुख आधार हैं।

पतंजलि आगे कहते हैं कि प्रयत्न की शिथिलता से और अनन्त में मन लगाने से आसन सिद्ध होता है। जिस समय हमें लगे कि किसी आसन में लम्बे समय तक बैठने के लिये प्रयत्न विशेष नहीं करना पड़ रहा है और मन शरीर पर न लग कर अनन्त पर स्थिर हो रहा है तो समझना चाहिये कि वह आसन हमें सिद्ध हो रहा है। हर साधक के एक या दो आसन ही होते हैं जिसमें वह बैठकर विषयों पर संयम करता है। यदि लम्बा बैठने से शरीर के अंगों में कम्प आये या रक्त का प्रवाह रुकने से सुन्न हो तो शरीर को प्रयत्न करना पड़ रहा है, वह आसन सहज नहीं है। शरीर की चेष्टाओं को त्याग देने से, ध्यान नहीं देने से छोटी मोटी पीड़ा तो सहन की जा सकती है पर यदि मन का सारा ध्यान शरीर में ही लगा रहा तो वह आसन सिद्ध नहीं होगा, संयम तो तब दूर की बात है। 

हम जिस बिछौने पर बैठते हैं, वह भी आसन कहलाता है, वह भी सुखद होना चाहिये। बहुत पतला है और चुभे या ठंड लगे तो भी आसन सुखमय नहीं होगा। सभी प्रकार के आसनों में मेरुदण्ड सीधा रहना चाहिये। त्रिरुन्नतं स्थाप्य समं शरीरम् , अर्थात वक्ष, ग्रीवा और सिर उन्नत रहना चाहिये। जिसमें किसी प्रकार की पीड़ा या कष्ट हो या शरीर के अस्थैर्य की संभावना रहे, वह अष्टांग योग वाले आसन से परिभाषित नहीं होगा।

यहाँ पर आसन को हठयोग से भिन्न देखना होगा। हठयोग शरीर को हर प्रकार की सीमाओं में प्रयुक्त कर स्वास्थ्य लाभ पाने का नाम है। कठिन मुद्राओं में शरीर को घुमाकर कई बीमारियाँ आदि सही करते हैं हठयोग के साधक पर अष्टांग योग में वर्णित आसन उस स्तर और दिशा का प्रयास नहीं है। शरीर को स्वस्थ रखना तो फिर भी आवश्यक है, उसके लिये समुचित व्यायाम ही पर्याप्त है। देखा जाये तो सूर्यनमस्कार और कुछ मूलभूत आसन ही पर्याप्त है। शरीर में तनिक ऊष्मा आ जाती है और रक्त संचार सुचारू हो जाता है। रक्त संचार ही ठीक हो जाना कई रोगों से मुक्ति दिला सकता है। कितना पर्याप्त है स्वास्थ्य के लिये और कितना योग के अंग आसन के लिये आवश्यक है, यह धीरे धीरे बढ़ाने भर से पता चल जाता है, सीमा समझ में आ जाती है कि अब इसके आगे अति हो रही है।

व्यायाम का एक भाग है आसन। कई प्रकार से शरीर को व्यायाम दिया जा सकता है। व्यायाम अत्यावश्यक है क्योंकि भोजन को पचाने के लिये जठराग्नि इसी से बनती है। आसन की अधिकता और अन्य व्यायाम की न्यूनता भी ठीक नहीं है। व्यायाम की अधिकता और तीव्रता भी घातक है क्योंकि वह वात उत्पन्न करती है जिससे कई रोग हो जाते है। अधिक व्यायाम में उन्मुख होने से हमारा शरीर के प्रति आसक्ति अधिक बढ़ जाती है। शरीराभास की अधिकता योग के लिये हानिकारक है। शरीर एक संतुलन चाहता है, भारी भरकम हाथ और पाँव से भी लाभ नहीं यदि शरीर हल्का और स्फूर्त अनुभव न करे। यदि शरीर एक स्थिति में अधिक समय तक न स्थिर रह पाये तो जिम आदि में जाकर लोहा आदि उठाने का क्या लाभ?

यदि एक आसन में अधिक समय बैठना संभव नहीं हो रहा है तो उचित होगा कि आसन बदल लें। उसी आसन में फिर भी बैठे रहने से और दुख सहने तो यह कहीं अधिक उचित होगा। आसन लगाने में स्थिरता और सुख में यदि किसी को प्राथमिकता देनी हो तो वह सुख को ही दें। आसन सिद्ध होने से द्वन्द्व आदि सहन करने की क्षमता साधक में आ जाती है।

अगले ब्लाग में प्राणायाम और प्रत्याहार।

1 comment:

  1. बहुत अच्छा विश्लेषण

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