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1.10.19

अभ्यास और वैराग्य - १३

यम सामाजिक स्थैर्य पोषित करता है, स्वस्थ समाज विकास का आधार है, सुदृढ़ अवयव शरीर को पुष्ट करते हैं। अध्यात्म उत्तरदायित्व से भागने का नाम नहीं है, प्रयत्नशीलता आवश्यक है योग के हर अंग-उपांग को साधने के लिये। उद्योग करना होता है, सही दृष्टि के साथ, सही ज्ञान के साथ। साथ ही आवश्यक है धैर्य और उत्साह। उत्साह इतना कि जैसे ध्येय अगले क्षण ही मिल जाने वाला हो और धैर्य इतना कि अनन्तकाल तक न भी मिले फिर भी उत्साह लेशमात्र भी कम नहीं हो। बस विश्वास रखें कि विधान अपना कार्य न्यायपूर्वक ही करेगा।

सत्य और अहिंसा के बाद अगला उपांग है, अस्तेय। स्तेय है, अशास्त्रपूर्वकम् द्रव्याणां परतः, अशास्त्रपूर्वक कोई द्रव्य लेना। स्तेय का निषेध और उसकी स्पृहा न करना अस्तेय है। अस्तेय का प्रचलित अर्थ चोरी है और वह अत्यन्त सरलीकृत और सीमित अर्थ है। अस्तेय का स्वरूप उससे कहीं अधिक व्यापक और गहरा है। शास्त्र को सामाजिक और धार्मिक अर्थों में समझना होगा। शास् धातु से शास्त्र शब्द निकला है, अर्थ है शिक्षा देना, शासन करना, आज्ञा देना, निर्देश देना, दण्ड देना, सलाह देना। जिन नियमों से हमारी सामाजिक और आध्यात्मिक व्यवस्था निर्धारित होती है, वे हमारे लिये शास्त्र हैं।

शास्त्रसम्मत अधिकार को परिभाषित करने के लिये ईशावास्योपनिषद का प्रथम श्लोक समझना होगा। जब यह श्लोक पहली बार पढ़ा था, त्याग और भोग को एक साथ पढ़कर आश्चर्यचकित हो गया, मंत्रमुग्ध हो गया था भारतीय विचारसंतुलन पर। चलिये समझते हैं।
ईशावास्यमिदम् सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत। तेनत्येक्तेन भुञ्जीथा मा गृध: कस्य स्विद्धनम॥(इस संसार में जो कुछ है, वह ईश्वर से व्याप्त है, वह ईश्वर का है, उसका त्यागपूर्वक भोग करो, लालच मत करो, यह धन किसका है।) जब कुछ अपना है ही नहीं, तो उस पर अधिकार कैसा, लगाव कैसा, स्पृहा कैसी? 

अब जब यह निश्चित हो गया कि धन किसका है और उसका त्यागपूर्वक भोग करना है, प्रश्न यह उठता है कि उसको प्राप्त कैसे करें? गीता(३.१२) इसका निराकरण कर देती है।
इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः। तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः।(यज्ञ करने से देवता तुम्हें वांछित भोग देंगे, प्रदत्त भोग बिना उन्हें चढ़ाये भोग करने वाला निश्चय ही चोर है।) यज्ञ प्राप्य हेतु किये गये समुचित उद्योगकर्म को कहते हैं। कालान्तर में यज्ञ का अर्थ हवन तक ही सीमित रह गया है। यज्ञ शब्द के तीन अर्थ हैं, देवपूजा, दान, संगतिकरण। संगतिकरण का अर्थ है संगठन। अतः यज्ञ का तात्पर्य है, त्याग, बलिदान, शुभ कर्म। परमात्मा के लिये किया कोई भी कर्म यज्ञ है। बिना कर्म के कुछ प्राप्त करना और जिससे प्राप्त किया है उसको धन्यवाद न देना चोरी ही है।

किसी और का धन या द्रव्य लेना तो निश्चय ही अपराध की श्रेणी में आयेगा। अधिकार के साथ कर्तव्य मूलभूत रूप से जुड़े हुये हैं। बिना कुछ किये कुछ अर्जित करने की इच्छा ही करना स्तेय होगा, हस्तगत करना एक अपराध। जो नहीं हैं, उस रूप में स्वयं को प्रस्तुत कर स्वार्थ सिद्ध करना स्तेय है। आवश्यकता से अधिक संसाधनों का उपयोग करना स्तेय है क्योंकि हमारा अधिकार हमारी आवश्यकता तक ही सीमित है। अन्न या जल व्यर्थ करना स्तेय है। आवश्यकता से अधिक खरीद कर रखना और कालान्तर में व्यर्थ कर देना स्तेय है। 

अधिकारी न होकर भी सुविधाओं का अनुचित उपयोग स्तेय है। हड़पने की बात तो दूर, सरकारी धन का दुरुपयोग तक स्तेय है क्योंकि आपका अधिकार या दायित्व उसके सदुपयोग का था, सर्वजनहिताय का था। कोई वचन देकर, आश्वासन देकर मुकर जाना या भूल जाना स्तेय है। किसी पद पर पहुँचने का भाव, कुछ बन जाने का भाव, बिना किसी योग्यता के, बिना समुचित कर्तव्य के। परिवारवाद, भाईभतीजावाद, चाटुकारितावाद से प्रभावित अन्य का अधिकार हड़प लेना भी स्तेय है। वह व्यक्ति आहत होता है जो उसका अधिकारी था।

प्रकृति, समाज और ईश्वर के प्रति कृतज्ञता का भाव हमें संयमित रखता है, कम से कम यह याद दिलाता रहता है कि हर वस्तु के लिये हम किसी न किसी के प्रति कृतज्ञ अवश्य रहें। इससे अधिकार का भाव क्षीण होता है, यदि वह भाव आये भी तो कम से कम कर्तव्यों के पूर्ण और सम्यक निर्वहन के बाद आये। अपने आप को अधिकारी मान बैठना, दूसरे से श्रेष्ठ मान लेना, प्रतियोगी मानसिकता में दग्ध रहना, ये सब स्तेय को बढ़ावा देते हैं। विनम्रता से अधिक सहायक कोई गुण नहीं है यदि अस्तेय को परिपोषित करना है। अपने को अधिकारी न मानने का भाव, सबकी सेवा में प्रस्तुत रहने का भाव लाना होगा। मुझे चैतन्य महाप्रभु के शब्द झंकृत कर जाते हैं, जब वह कहते हैं, तृणादपि सुनीचेन, तरोरपि सहिष्णुना, अमानिना मानदेन, कीर्तनया सदा हरिः। अद्बुत विनम्रता का भाव है यह।

कुछ लोग स्तेय को दान आदि से ढकने का उपक्रम करते हैं। चोरी का धन दान देना, यह दान नहीं माना जायेगा क्योंकि वह धन उसका तो था ही नहीं। यह करणीय कर्मों में नहीं माना जायेगा। इससे अच्छा होगा कि न चोरी करें, भले ही दान न दे पायें। अच्छा तो होगा कि ऐसा दान न लिया जाये, पर वह धन यदि समाज के कार्यों में लग सके तो विचार हो सकता है, बस यह मानकर कि धन के साथ अधर्म लिपटकर नहीं आ रहा है। सबका अपना अलग कर्माशय हैं, पाप और पुण्य पृथक पृथक प्रभावित करते हैं।

पतंजलि कहते हैं कि अस्तेय की सिद्धि पर रत्न स्वयं उपस्थित हो जाते हैं।(२.३७)

अगले ब्लाग में ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह।

25.5.13

अच्छा लगता है, जब बच्चे सिखाते हैं

बच्चे, पता ही नहीं चलता है, कब बड़े हो जाते हैं? कल तक लगता था कि इन्हें अभी कितना कुछ सीखना है, साथ ही साथ हम यही सोच कर दुबले हुये जा रहे थे कि कैसे ये इतना ज्ञान समझ पायेंगे? अभी तक उनकी गतिविधियों को उत्सुकता में डूबा हुआ स्वस्थ मनोरंजन समझते रहे, सोचते रहे कि गंभीरता आने में समय लगेगा।

बच्चों की शिक्षा में हम सहयोगी होते हैं, बहुधा प्रश्न हमसे ही पूछे जाते हैं। उत्सुकता एक वाहक रहती है, हम सहायक बने रहते हैं उसे जीवन्त रखने में। जैसा हमने चीज़ों को समझा, वैसा हम समझाते भी जाते हैं। बस यही लगता है कि बच्चे आगे आगे बढ़ रहे हैं और हम उनकी सहायता कर रहे हैं।

यहाँ तक तो सब सहमत होंगे, सब यही करते भी होंगे। जो सीखा है, उसे अपने बच्चों को सिखा जाना, सबके लिये आवश्यक भी है और आनन्दमयी भी। यहाँ तक तो ठीक भी है, पर यदि आपको लगता है कि आप उनकी उत्सुकता के घेरे में नहीं हैं, तो पुनर्विचार कर लीजिये। यदि आपको लगता उनकी उत्सुकता आपको नहीं भेदती है तो आप पुनर्चिन्तन कर लीजिये।

प्रश्न करना तो ठीक है, पर आपके बच्चे आपके व्यवहार पर सार्थक टिप्पणी करने लगें तो समझ लीजिये कि घर का वातावरण अपने संक्रमण काल में पहुँच गया है। टिप्पणी का अधिकार बड़ों को ही रहता है, अनुभव से भी और आयु से भी। श्रीमतीजी की टिप्पणियों में एक व्यंग रहता है और एक आग्रह भी। बच्चों की टिप्पणी यदि आपको प्राप्त होने लगे तो समझ लीजिये कि वे समझदार भी हो गये और आप पर अधिकार भी समझने लगे। उनकी टिप्पणी में क्या रहता है, उदाहरण आप स्वयं देख लीजिये।

बिटिया कहती हैं कि आप पृथु भैया को को ठीक से डाँटते नहीं हैं। जब समझाना होता है, तब कुछ नहीं बोलते हो। जब डाँटना होता है, तब समझाने लगते हो। जब ढंग से डाँटना होता है, तब हल्के से डाँटते हो और जब पिटाई करनी होती है तो डाँटते हो। ऐसे करते रहेंगे तो वह और बिगड़ जायेगा। हे भगवान, दस साल की बिटिया और दादी अम्मा सा अवलोकन। क्या करें, कुछ नहीं बोल पाये, सोचने लगे कि सच ही तो बोल रही है बिटिया। अब उसे कैसे बतायें कि हम ऐसा क्यों करते हैं? अभी तो प्रश्न पर ही अचम्भित हैं, थोड़ी और बड़ी होगी तो समझाया जायेगा, विस्तार से। उसके अवलोकन और सलाह को सर हिला कर स्वीकार कर लेते हैं।

पृथु कहते हैं कि आप इतना लिखते क्यों हो, इतना समय ब्लॉगिंग में क्यों देते हो? आपको लगता नहीं कि आप समय व्यर्थ कर रहे हो, इससे आपको क्या मिलता है? थोड़ा और खेला कीजिये, नहीं तो बैठे बैठे मोटे हो जायेंगे। चेहरे पर मुस्कान भी आती है और मन में अभिमान भी। मुस्कान इसलिये कि इतना सपाट प्रश्न तो मैं स्वयं से भी कभी नहीं पूछ पाया और अभिमान इसलिये कि अधिकारपूर्ण अभिव्यक्ति का लक्ष्य आपका स्वास्थ्य ही है और वह आपका पुत्र बोल रहा है।

ऐसा कदापि नहीं है कि यह एक अवलोकन मात्र है। यदि उन्हे मेरी ब्लॉगिंग के ऊपर दस मिनट बोलने को कहा जाये तो वह उतने समय में सारे भेद खोल देंगे। पोस्ट छपने के एक दिन पहले तक यदि पोस्ट नहीं लिख पाया हूँ तो वह उन्हें पता चल जाता है। यदि अधिक व्यग्रता और व्यस्तता दिखती है तो कोई पुरानी कविता पोस्ट कर देने की सलाह भी दे देते हैं, पृथुजी। लगता है कि कहीं भविष्य में मेरे लेखन की विवेचना और समीक्षा न करने लगें श्रीमानजी।

आजकल हम पर ध्यान थोड़ा कम है, माताजी और पिताजी घर आये हैं, दोनों की उत्सुकता के घेरे में इस समय दादा दादी हैं। न केवल उनसे उनके बारे में जाना जा रहा है, वरन हमारे बचपन के भी कच्चे चिट्ठे उगलवाये जा रहे हैं। कौन अधिक खेलता था, कौन अधिक पढ़ता था, कौन किससे लड़ता था, आदि आदि। मुझे ज्ञात है कि इन दो पीढ़ियों का बतियाना किसी दिन मुझे भारी पड़ने वाला है। माताजी और पिताजी भले ही बचपन में मुझे डाँटने आदि से बचते रहे, पर मेरे व्यवहार रहस्य बच्चों को बता कर कुछ न कुछ भविष्य के लिये अवश्य ही छोड़े जा रहे हैं।

कई बच्चे अपने माता पिता को अपना आदर्श मानते हैं, उनकी तरह बनना चाहते हैं। पर जब उनके अन्दर यह भाव आ जाये कि उन्हे थोड़ा और सुधारा जा सकता है, थोड़ा और सिखाया जा सकता है तो वे अपने आदर्शों को परिवर्धित करने की स्थिति में पहुँच गये हैं। उनके अन्दर वह क्षमता व बोध आ गया है जो वातावरण को अपने अनुसार ढालने में सक्षम है। समय आ गया है कि उन्होंने अपनी राहों की प्रारम्भिक रूपरेखा रचने का कार्य भलीभाँति समझ लिया है।

पता नहीं कि हम कितना और सुधरेंगे या सँवरेंगे, पर जब बच्चे सिखाते हैं तब बहुत अच्छा लगता है।

18.8.12

यह कैसी आतंक पिपासा

यज्ञ क्षेत्र यह विश्व समूचा, होम बने उड़ते विमान जब,
विस्मय सबकी ही आँखों में, देखा उनको मँडराते नभ।
मूर्त रूप दानवता बनकर, जीवन के सब नियम भुलाकर,
तने खड़े गगनोन्मुख, उन पर टकराये थे नभ से आकर।

ध्वंस बिछा, ज्वालायें उठतीं,
चीखें अट्टाहस में छिपतीं,
कहाँ श्रेष्ठता, दिग्भ्रम फैला,
सिसके वातावरण विषैला,
क्या अलब्ध है, क्या पाना है,
मृत-देहों ने क्या जाना है,
मन की आग नहीं बुझती है,
धधक रही, रह रह बढ़ती है।

और चढ़ें कितनी आहुतियाँ, यह कैसी आतंक पिपासा,
इतने नरमुण्डों को पाकर, यह ज्वाला बढ़ती ही जाती।