12.4.15

उलझी लट सुलझा दो

मन की उलझी लट सुलझा दो,
मेरे प्यारे प्रेम सरोवर ।
लुप्त दृष्टि से पथ, दिखला दो,
स्वप्नशील दर्शन झिंझोड़कर ।।१।।

ढूढ़ा था, वह लुप्त हो गया,
जागृत था, वह सुप्त हो गया ।
मार्ग विचारों को दिखला दो,
मन की उलझी लट सुलझा दो ।।२।।

कागज पर कुछ रेखायें थीं,
मूर्ति उभरने को उत्सुक थी ।
बना अधूरा चित्र बना दो,
मन की उलझी लट सुलझा दो ।।३।।

समय बिताने जीवन बीता,
कक्ष अनुभवों का था रीता ।
प्रश्नों के उत्तर बतला दो,
मन की उलझी लट सुलझा दो ।।४।।

मेरे प्यारे प्रेम सरोवर,
अनुयायी पर कृपा-हस्त धर ।
प्रेम, दया के दीप जला दो,
मन की उलझी लट सुलझा दो ।।५।।

14 comments:

  1. चिर आह्वान शाश्वत चाह

    ReplyDelete
  2. लट जो उलझी, भला कब सुलझी

    ReplyDelete
  3. लोहड़ी की हार्दिक मंगलकामनाओं के आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल सोमवार (13-04-2015) को "विश्व युवा लेखक प्रोत्साहन दिवस" {चर्चा - 1946} पर भी होगी!
    --
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    ReplyDelete
  4. आपका ब्लॉग मुझे बहुत अच्छा लगा, और यहाँ आकर मुझे एक अच्छे ब्लॉग को फॉलो करने का अवसर मिला. मैं भी ब्लॉग लिखता हूँ, और हमेशा अच्छा लिखने की कोशिस करता हूँ. कृपया मेरे ब्लॉग पर भी आये और मेरा मार्गदर्शन करें.

    http://hindikavitamanch.blogspot.in/
    http://kahaniyadilse.blogspot.in

    ReplyDelete
  5. जल्दी से सुलझ जाए, यही कामना है...

    ReplyDelete
  6. मन बड़ा जटिल होता है .यह क्या और क्यों चाहता है कुछ पता नहीं चलता . ऐसे में उस अनंत असीम से मांगना ही एकमात्र उपाय लगता है .

    ReplyDelete
  7. पूरा जीवन सूत्र उलझी लटों की तरह है।

    ReplyDelete
  8. उलझन सुलझे न ...

    ReplyDelete
  9. मन की उलझी लट सुलझा दो...बहुत अच्छी कविता है भैया!

    ReplyDelete
  10. मन का काम ही उलझन है. भावपूर्ण कविता।

    ReplyDelete
  11. उलझन न सुलझे मुई

    ReplyDelete