21.12.11

आत्मीय अनुपात

एक बड़े होटल का परिवेश, सामने रखे विविध प्रकार के व्यंजन, विकल्पों में भ्रमित होती आपकी चयन प्रक्रिया, क्या लें, क्या न लें, किसमें कितना मसाला है, किसमें कितनी कैलोरी है, फाइबर है या नहीं, देश विदेश की सांस्कृतिक महक समेटे, कलात्मकता में सजे, आप के द्वारा आस्वादित किये जाने की राह देख रहे हैं, सब के सब। आपको क्या अच्छा लगता है? बड़ा ही व्यक्तिगत प्रश्न है, ढेरों विमायें समेटे है, भोजन को स्वाद का उद्गम मानने वाले भक्तगण बड़ा ही निश्चयात्मक उत्तर देंगे, भोजन को पोषण का आधार मानने वाले अनिश्चय की स्थिति में रहेंगे, बहुतों के लिये कुछ स्पष्ट सा, कुछ अस्पष्ट सा, या कुछ भी।

स्वाद, पोषण और संतुष्टि। स्वाद और पोषण का पुराना बैर है। विशुद्ध प्राकृतिक अवयवों में स्वाद भले ही न हो, पोषण पूर्ण रहता है। तेल, मसाले, घी आदि में स्वाद निखरता है पर शरीर उससे सशंकित रहता है। संतुष्टि का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है, परिभाषित करना भी कठिन है। खुलकर भूख लगना संतुष्टि का प्रमुख कारक है, जब जठराग्नि धधकती है तो स्वाद भी आता है, पोषण भी होता है और संतुष्टि भी होती है। संतुष्टि मापने का एक आधार हो सकता है कि आपको भोजन के बाद कैसा लगता है, उत्साह आता है, उबाल आता है, उनींदापन आता है या उन्माद आता है। कहने को तो भोजन भी त्रिगुणी होता है, सतो, रजो और तमो, गीता में इसकी विस्तृत व्याख्या भी की गयी है। भोजन का गुण उसके प्रभाव में छिपा रहता है।

आप याद कीजिये कि आपको सबसे अधिक संतुष्टि कहाँ का भोजन करने के बाद प्राप्त होती है। बहुत कम ही लोग ऐसे होंगे जो किसी होटल का नाम लेंगे। बहुत से लोग अपनी माताजी या श्रीमतीजी का नाम लेंगे। घर में बनी एक कटोरी दाल और चार रोटी के सामने किसी बड़े होटल का पूरा मीनू लघुतर लगता है। बाहर जाकर न खाने की मेरी प्रवृत्ति को श्रीमतीजी द्वारा मेरी कृपणता से जोड़ने के कारण ही बाहर जाना पड़ता है। वैसे भी महीने में दो-तीन बार बाहर जाकर अन्य स्वादों को चखने में घर की अन्नपूर्णा को ही विश्राम मिलता है और हमारा स्वाद भी बदल जाता है।

ऐसा क्या है घर के खाने में जो इतनी संतुष्टि उत्पन्न करता है। कहते हैं जिस भाव से भोजन बनाया जाता है वह भाव हम भोजन के साथ ग्रहण करते हैं। घर में अशिक्षित माँ के हाथों से प्रेमपूर्वक बना हुआ भोजन, बड़े होटल के प्रशिक्षित रसोईये के हाथों से बने पकवानों से कहीं सुस्वादु और संतुष्टिकारक होता है। माँ के लिये बेटे का महत्व, रसोईये के लिये ग्राहक के महत्व से कहीं अधिक प्रेमासित व वात्सल्यपूर्ण होता है। वह भाव जब भोजन में पड़ता है तो स्वाद निराला हो जाता है। इसके विपरीत एक बार एक छात्रावास में आत्महत्यायें बढ़ने का विशेष कारण नहीं मिल रहा था, कारण का अनुमान तब लगा जब वहाँ के प्रमुख रसोईये ने भी आत्महत्या कर ली। आत्महंता मनःस्थिति में भोजन बनाने का कुप्रभाव यदि भोजन करने वाले पर पड़ जाये तो आश्चर्य नहीं होना चाहिये।

भले ही इस अवधारणा का कोई वैज्ञानिक आधार न हो, भले ही भौतिक और मानसिक धरातलों के बीच के संबंध के सूत्र न मिले हों, भले ही भोजन-पाचन को रसायनिक क्रियाओं के परे न समझा जा सका हो, भले ही आज भी कई घरों में भोजन बनाने वाले के ऊपर पवित्रता की घोर कटिबद्धता हो, भले ही चुपके से बाहर भोजन करना कई घरों में हीन दृष्टि से देखा जाता हो, पर हम सब कहीं न कहीं यह अनुभव अवश्य करते हैं कि प्यार से बनाये खाने में एक आत्मीय अनुपात होता है।

भोजन पौष्टिक तत्वों से बने, स्वादपूर्ण हो, प्रेमनिहित हो और घर की आर्थिक क्षमता के अनुरूप हो, संभवतः यही आत्मीय अनुपात हो हमारे भोजन का।

69 comments:

  1. भोजन पौष्टिक तत्वों से बने, स्वादपूर्ण हो, प्रेमनिहित हो और घर की आर्थिक क्षमता के अनुरूप हो, संभवतः यही आत्मीय अनुपात हो हमारे भोजन का।

    जी हाँ , ऐसा आत्मीय अनुपात लिए भोजन ही सच्ची आत्मिक संतुष्टि दे सकता है...... भोजन के बहाने बेहद सार्थक बातें समझाती पोस्ट......

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  2. अधिकतर तो हम भूख लगने पर ही खाते हैं और घर पर ही वह मिटती भी है.बाहर तो कभी-कभी जायके के लिए जाते हैं किसी दोस्त के साथ क्योंकि श्रीमतीजी को बाहर खाना बिलकुल पसंद नहीं है.हम अपना स्वाद बदलने के लिए भले होटल जाएँ पर खाते तो घर में ही हैं !

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  3. @भोजन पौष्टिक तत्वों से बने, स्वादपूर्ण हो, प्रेमनिहित हो और घर की आर्थिक क्षमता के अनुरूप हो, संभवतः यही आत्मीय अनुपात हो हमारे भोजन का।

    सुन्दर! कीरत करो, नाम जपो, वंड छको! अगर भोजन सात्विक हो बेझिझक सबमें बाँटा भी जा सकता है!

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  4. हमारी बेटी इन सबसे ऊपर उठ चुकी है 1. उसे उसी होटल जाना होता है जहां डोसा मिलता हो 2. और उसे केवल प्लेन डोसा ही खाना होता है. बात ख़तम :)

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  5. इसके विपरीत एक बार एक छात्रावास में आत्महत्यायें बढ़ने का विशेष कारण नहीं मिल रहा था, कारण का अनुमान तब लगा जब वहाँ के प्रमुख रसोईये ने भी आत्महत्या कर ली। आत्महंता मनःस्थिति में भोजन बनाने का कुप्रभाव यदि भोजन करने वाले पर पड़ जाये तो आश्चर्य नहीं होना चाहिये।
    Aisa bhee hota hai?

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  6. भोजन पौष्टिक तत्वों से बने, स्वादपूर्ण हो, प्रेमनिहित हो और घर की आर्थिक क्षमता के अनुरूप हो, संभवतः यही आत्मीय अनुपात हो हमारे भोजन का।

    भावनाओं का खाने पर बहुत असर होता है ...प्रेम से पकाया गया खाना निश्चित रूप से स्वादिष्ट होता है ...!!बहुत सार्थक आलेख है ...

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  7. भूख लगी है ............खाना दो .....! !

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  8. घर ही अपनेआप में परिपूर्ण है ... तो स्वाद घर का ही सेहतमंद और स्वादिष्ट होता है

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  9. हमारे भाई साहब ने एक बार कहा कि कब वो वक्‍त आएगा जब होटल में खाने का आर्डर देते हुए हम वामपंथी बन जाएं और मेन्‍यू की सूची में नजर बाएं कालम पर ही दौड़े और अपनी पसंद का फैसला कर सकें, दाहिनी ओर नजर ही न डालना पड़े.

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  10. भोजन में स्वाद तभी है जब स्नेह के साथ खिलाया जाये ...
    शुभकामनायें आपको !

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  11. वाह! पोस्ट पढ़के मज़ा आ गया...हमारे तरफ भी यही कहते हैं कि हाथ में स्वाद होता है. नानी मेरी अगर सब्जी में बस छौंक भी डाल दे तो इतना अच्छा स्वाद आ जाता था. हम भी कितने दिन मम्मी से कहते थे तुम बस एक बार छोलनी चला दो...तुम्हारा हाथ लगते स्वाद आ जाता है.

    बहुत अच्छा लगा ये वाली पोस्ट पढ़ के :)

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  12. लगे रहो प्रवीण जी ।

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  13. कोई बात तो है नवनीत रोटी के बजाय कहीं और ....बस और क्या घर की दाल रोटी खाओ और घरवाली के गुण गाओ!
    बस यहीं तो है चारोधाम!

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  14. सार्थक बातें समझाती पोस्ट......

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  15. इन्द्रिय जनित समस्त आहार पर यही सूत्र लागू होते हैं .

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  16. घर की दाल मुर्गी बराबर!!

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  17. भोजन पौष्टिक तत्वों से बने, स्वादपूर्ण हो, प्रेमनिहित हो और घर की आर्थिक क्षमता के अनुरूप हो, संभवतः यही आत्मीय अनुपात हो हमारे भोजन का।
    बिल्‍कुल सही कहा ... बेहद सहज़ता से कितनी सार्थकता समेटे हुए है यह आलेख ..बधाई ।

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  18. Bahut he sahi baat kahi hai aapne, jo satisfaction ghar ka khana khane se milte hai,vo bahar ka khana khane se kabhi nhi mil sakti.

    Aur jaisa ki aapne kaha agar vo khana maa ke haathon ka banaya ho toh bass aur kuch nhi chaheye

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  19. यह तो Universal जवाब रहेगा की घर का खाना(खास कर के माँ के हाथ का बना खाना) ही सबसे अच्छा होता है :)
    मस्त पोस्ट!!

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  20. घर के खाने की तो बात ही कुछ और है मैं भी बाहर मज़बूरी में खाता

    हूँ अन्यथा नहीं.

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  21. खुलकर भूख लगना संतुष्टि का प्रमुख कारक है, जब जठराग्नि धधकती है तो स्वाद भी आता है, पोषण भी होता है और संतुष्टि भी होती है। संतुष्टि मापने का एक आधार हो सकता है कि आपको भोजन के बाद कैसा लगता है, उत्साह आता है, उबाल आता है, उनींदापन आता है या उन्माद आता है।
    हाँ भोजन में बनाने वाले की भास्ना आजाती है .कोई कुढ़ फुन्कके भोजन बनाए और कोई प्रसन्न वदन रहते दोनों का अर्थ एक नहीं होगा .ब्रह्माकुमारीज़ शिवबाबा की याद में रहते भोजन बनातीं हैं .मंदिर के प्रसाद का स्वाद भी इसी लिए अलग होता है .यह सब अनुभव सिद्ध ही है .प्रयोग आधारित है .गुरद्वारे का लंगर -प्रसादा हाथ फैलाकर मांगने की याचक की मुद्रा में लेना अलग अर्थ रखता है .बड़ी सूक्ष्म विवेचना से संसिक्त है यह पोस्ट .बधाई .जैसा अन्न वैसा मन ,जैसा पानी वैसी वाणी .

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  22. भोजन पौष्टिक तत्वों से बने, स्वादपूर्ण हो, प्रेमनिहित हो और घर की आर्थिक क्षमता के अनुरूप हो, संभवतः यही आत्मीय अनुपात हो हमारे भोजन का।
    ..बहुत सही कहा ..सार्थक पोस्ट..

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  23. घर का बनाया भोजन हर माने में उत्तम होता है ... उसमें न सिर्फ भाव बल्कि भविष्य का चिंतन भी होता है प्रियजनों का ...

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  24. ghar ki baat ghar ke bahar kahan ???

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  25. ghar ki baat ghar ke bahar kahan ???

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  26. प्रवीण जी, बहुत सुदर

    मेरा तो दाल रोटी से नहीं चलने वाला है। कई बार हम परिवार के साथ बाहर होते हैं, तो डिनर कहां लिया जाए, इस पर बातें शुरू हो जाती हैं। मैडम का कहना होता है कि फलां रेस्त्रा में चलते हैं, वहां घर जैसा खाना होता है, अब मेरी समझ में नहीं आता कि भाई जब घर जैसा ही खाना है तो घर पर ही क्यों नहीं खाना चाहिए...

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  27. हम तो घर की दाल-रोटी को ही छप्‍पन पकवान कहते हैं।

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  28. बाहर के भोजन में स्वच्छता -शुद्धता पर ही ध्यान नहीं पौष्टिकता की कौन सोचेगा उन्हें तो अपने लाभ से मतलब.ऊपरी टीम-टाम खूब असलियत कौन जाने!- एकाध जगह देखा भी है कि क्या-क्या होता है . मेरा मन नहीं होता बाहर खाने का .

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  29. माँ के लिये बेटे का महत्व, रसोईये के लिये ग्राहक के महत्व से कहीं अधिक प्रेमासित व वात्सल्यपूर्ण होता है। वह भाव जब भोजन में पड़ता है तो स्वाद निराला हो जाता है.
    वाकई में भोजन पकाना और खिलाना दोनों के माध्यम से भाव संचरण होता है.

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  30. घर के खाने की तो कोई तुलना ही नहीं..

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  31. गोभी बहुत बढ़िया है....

    इरफ़ान का वोडाफोन एड याद आ गया...

    जय हिंद...

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  32. ऐसा क्या है घर के खाने में जो इतनी संतुष्टि उत्पन्न करता है। कहते हैं जिस भाव से भोजन बनाया जाता है वह भाव हम भोजन के साथ ग्रहण करते हैं.

    बहुत सटीक बात कही है ...
    कहा गया है कि भूख लगने पर किवाड भी पापड़ लगता है .. सबसे ज्यादा सन्तुष्टि भोजन से तभी मिलती है जब भूख लगी हो .. प्रेम से बनाया और खाया गया भोजन बनाने वाले और खाने वाले दोनों को ही आत्मसंतुष्टि देता है ...

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  33. कहते भूख में किवाड भी पापड़ लगती है.

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  34. बचपन की तुझे फिर से बड़ी याद आयेगी
    तुम कोयले की आंच पे रोटी तो पकाओ


    कोयले की आंच पर बनी रोटी का कौनसा होटल मुकाबला करेगा?



    नीरज

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  35. बहुत सार्थक लेख...
    वाकई घर का, चाव से पकाया और स्नेह से परोसा खाना किसी भी ५ सितारा होटल से स्वादिष्ट है..
    मगर ऐसा आज कल कम लोग मानते हैं...
    या तो उन्हें बाहर के भोजन का चस्का लग चुका है या फिर आज कल माताये भी व्यस्त हैं सो चाव/स्नेह का वक्त उनके पास भी कहाँ है???

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  36. खाना प्यार से पकाया जाय तो स्वाद के क्या कहने हाँ यह बात भी सच कि जब भूख लगी हो तो कुछ भी अच्छा लगता है क्योंकि जब तक यह समझ आता है कि खाना कैसा है वह खत्म हो चुका होता है. और कलोरी या पौष्टिकता तो बिलकुल ध्यान नहीं आती.

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  37. दुश्मनी क्या है-
    टुकड़े रोटी के,
    दोस्ती क्या है-
    दालरोटी है!
    [डॉ. दिनेश अंदाज़]

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  38. अच्छा खाना बनाने वाला/वाली का मोटिवेशन सामने वाले की पूर्ण संतुष्टि होता है !

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  39. अजी घर के खाने में जो मजा है वो बाहर के खाने में कहाँ,.....रोचक आलेख मेरी नई पोस्ट के लिए काव्यान्जलि मे click करे

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  40. घर में बनी एक कटोरी दाल और चार रोटी के सामने किसी बड़े होटल का पूरा मीनू लघुतर लगता है।
    @ सत्य वचन

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  41. विचार पूर्ण,रोचक एवं सार्थक पोस्ट पढ़ना अच्छा लगा।

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  42. अधिक वेराइटी में सरल उपाय यह है कि सादा पेट भरने वाला भोजन ले लें और अपने को तृप्त कर लें।

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  43. आपका निष्‍कर्ष, भारतीय सन्‍दर्भों में, 'वैश्विक सत्‍य' है।

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  44. सादा किन्तु पौष्टिक भोजन के बारे में निरामिष ब्लॉग पर काफी अच्छे लेख उपलब्ध हैं.
    कहते हैं कि जैसा खाओ अन्न, वैसा बने मन.

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  45. भोजन पौष्टिक तत्वों से बने, स्वादपूर्ण हो, प्रेमनिहित हो और घर की आर्थिक क्षमता के अनुरूप हो, संभवतः यही आत्मीय अनुपात हो हमारे भोजन का।

    सार्थकता समेटे हुए है यह आलेख ..बधाई ।

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  46. आपके निबंध ने माँ के हाथ के बने खाने याद
    दिला दी। सहजता से, सरल शब्दों में, अतीत
    के झरोखे में पहुँचाने वाली सुन्दर रचना।

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  47. सहज एवं सरल शब्दों से लिखे लेख ने अतीत के
    झरोखे में पहुँचाकर, माँ के हाथ से बने भोजन की
    याद दिला दी। सटीक एवं सुन्दर निबंध।
    आभार एवं बधाई........

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  48. हाथों का स्वाद होता है...अपनी माँ के हाथ का बना भोजन बच्चा बचपन से पहले स्वाद का आधार बना बाकी सब आंकता है..उसमें जिस प्यार और दुलार का अवयव शामिल होता है...वो भला कौन कर पायेगा....वही माईल स्टोन होता है...उससे बेहतर कुछ नहीं.....बस, पत्नी से भी अंतर्मन में एक उम्मीद रहती है कि उस स्वाद के कितना नजदीक तक पहुँच पाई...पार करना तो शायद कभी भी संभव नहीं...वही मानक है अंतिम सबका. वो स्वाद उस दुलार का, उस प्यार का, उस छांव का कौन स्वाद में शामिल कर पायेगा भला जो माँ के खाने में होता था......कदाचित मन बदलने को कभी गालिब ख्याल अच्छा हो भी जाये तो क्या....

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  49. जी ,भोजन में भाव का बड़ा महत्व होता है। जहाँ भावना व स्नेह जुड़ा होता है, उसी भोजन में स्वाद भी मिलता है। वो कहते है न- दुर्योधन के मेवा त्यागो, साग विदुर घर खायी। सुंदर व भावप्रद लेख।

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  50. delicious post... :)
    the sentiments n emotions behind the food makes it more tasty !!

    Nodding my head in full agreement.

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  51. सार्थक, सामयिक पोस्ट, आभार.

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  52. ये तो सब ठीक है पांडेजी पर पत्नी का भी तो मन करता है कि कभी कभी तो उसे भी पकी पकाई खाने के मिल जाये । मै भुक्तभोगी हूँ इसीसे कह रही हूँ मेर पति चाहे हम सफर से थके हों या सफर में हें छोटे वाले एक दिन के घर पर आकर खाना ही पसंद करते थे ।

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  53. जैसा अन्न वैसा मन, और इसका विपरीत भी सत्य है जैसा बनाने वाले का मन वैसा अन्न... बहुत सार गर्भित पोस्ट!

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  54. अपने-पन में बसा है खाने का स्वाद ...!

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  55. चलिये भोजन के गुणों के साथ-साथ कम से कम आपने तो गृह लक्ष्मी को थोड़ा आराम देने के बारे में सोचा :-) यदि इस तरह का बदलाव थोड़ा बहुत जीवन में आता रहे तो सभी के लिए अच्छा है। अकाहीर परिवर्तन भी प्रकृति का नियम है ....

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  56. ghar ke khane mein pyar ka tadka jo laga hota hai tabhi to wah supachya hota hai..
    bahut badiya prasuti..

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  57. prem se parosa bhojan hi sabse achchha hai fir chahe vo dal roti hi ho
    aapki kahi baat bahut hi sahi hai
    badhai
    rachana

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  58. "रहिमन रहिला ही भली जो परसे चित लाये.."


    प्रेम और स्नेह रस में डूबा घर का खाना तो लाजवाब होता ही है ,कभी गुस्से में भी घर का भोजन जब परोसा जाये ,तो रुचिकर तो होता ही है ,बस थोड़ा तामसी प्रवृत्ति का हो जाता है..

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  59. जो कहना चाह रहा था, वह कही जा चुकी है. यह प्रेम ही है जो स्वाद को परिभाषित करती है.

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  60. बहर के खाने में macronutrients होतें हैं घर के में micro -nutrients मौजूद रहतें हैं .वहां ट्रांस -फेट्स हैं कार्बो -हाइड्रेट्स का जोर है यहाँ फाइबर्स ,विटामिन्स ,मिनरल्स का .आत्मीय अनुपात बाहर नदारद है .

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  61. स्वामी श्रद्धानंद जी जेल में थे और एक दिन उनके मन में अपनी श्रद्धेय माता के प्रति कुछ आलोचनात्मक विचार आये। ग्लानि अनुभव करते हुये उन्होंने इसका कारण खोजने का प्रयास किया तो ज्ञात हुआ कि उस दिन उनका खाना जिसने बनाया था, वह एक विचाराधीन कैदी था जिसपर अपनी माता की हत्या का आरोप था। ’जैसा अन्न वैसा मन’ के अलावा बनाने-परोसने वाले की भावना भी भोजन पर असर डालती है।

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  62. बिलकुल सही बात कही आपने..."आत्मीयता" भोजन में स्वाद बढ़ा देती है, वाकई में ऐसी ना जाने कितनी बातें हैं जिनका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं मिलता, पर इनका होना जीवन जीने के लिए सहायक है...
    इतनी स्वादिष्ट पोस्ट ...दिल बागबान हो गया...पोस्ट में छुपा स्वाद दर्शाता है कि पोस्ट पूरे मन से स्वाद लेते हुए लिखी गयी है :)

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  63. प्यारे प्रवीण जी
    अभिवादन
    आप इतने अच्छे और सुलझे प्रतीत होते हैं की कभी कभी आपसे ईर्ष्या सी होती है.
    भोजन के रस के दो मूल श्रोत हैं एक भोक्ता की क्षुधा और दूजी दाता का प्रेम. बाकी सब तो इनके बाद ही हैं.
    भोजन की बात उठी तो कुछ वैज्ञानिक तथ्य मन मे उठे. अगर भोजन मे आहार के ४ मूल तत्व - सही अनुपात मे हों- तो भोजन रूचिकार और संतोषप्रद हो जाता है. ये तत्व हैं कारबोहाइड्रेट (चावल, रोटी, आलू, मक्का आदि) प्रोटीन (दाल, माँस, मछली, दूध) और वसा( थोड़ा सा घी, तेल, मक्खन) और अंतत कू विटामिन और लवण (सलाद, सब्जी, अंकुरित बीज).
    कोई भी खाना अगर इन सभी तत्वों को सामिल करत है तो वह संतुलित और संतोषप्रद होगा. रोटी / चावल , दाल, और सब्जी को एक साथ खाने की खोज हमारे पूर्वजों (माताओं और श्रीमतियों) की अनुपम वैज्ञानिक उपलब्धि है. और इसीलिए यह किसी भी रेस्तराँ के क्षणिक लुभावने व्यंजनों से कहीं सर्वदेशिक और सर्वकालिक है. राकेश रवि

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  64. ये आत्मीय अनुपात घर की रोटी ही कमतर होती जाय है मुंबई में .जहां सुविधाओं का अभाव है वहां आत्मीय अनुपात चीज़ रहा है .

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  65. "जिस भाव से भोजन बनाया जाता है वह भाव हम भोजन के साथ ग्रहण करते हैं।"
    एसा ही होता है। पूरी तरह सहमत हूं। सार्थक पोस्ट।

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  66. घर में रोटी जिस आंच पर पकती है वह सिर्फ चूल्हे की नहीं होती. यह वैसे ही है जैसे परिचित लोगों से आप चाहे जितनी बातें कर लें, किसी मित्र के साथ कुछ पल बिताने के लिए आप तरसते रहते हैं.यहाँ भी आंच की तलाश है. अपनेपन की आंच.

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  67. घर में रोटी जिस आंच पर पकती है वह सिर्फ चूल्हे की नहीं होती. यह वैसे ही है जैसे परिचित लोगों से आप चाहे जितनी बातें कर लें, किसी मित्र के साथ कुछ पल बिताने के लिए आप तरसते रहते हैं.यहाँ भी आंच की तलाश है. अपनेपन की आंच.

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  68. घर और बाहर के बने भोजन में मूल अंतर सिर्फ यही होता है की बाहर का खाना सिर्फ विविध अत्याधुनिक संयंत्रों पर बनता है और घर में उन्हीं संयंत्रों में स्नेह की ऊर्जा भी मिल जाती है ...... व्यंजन-विधि जो भी हो सामग्री का अनुपात घरवालों के स्वादानुसार बदल दिया जाता है .... आपकी आजकी पोस्ट पढ कर माँ की छौंकी हुई सादी सी दाल याद आ गयी .....

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  69. दो दिन बाहर भकोस लें तो घर के खाने की तलब बहुत बढ़ जाती है!

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