22.6.11

कार्य की बस चाह मेरी

कार्य की बस चाह मेरी, राह मिल जाया करें,
देख लेंगे, कष्ट दुष्कर, आयें तो आया करें।

व्यक्त है, साक्षी समय है, मन कभी डरता नहीं,
दहकता अस्तित्व-अंकुरहृदय में मरता नहीं।

कब कहा मैंने समय से, तनिक तुम अनुकूल हो,
सब सहा जो भी मिला पथ, विजय हो या भूल हो।

लग तो सकते हैं हृदय में, तीर शब्दों के चले,
मानसिक पीड़ा हुयी भी, वो हलाहल विष भरे।

एक दिन सहता रहा मैं, वेदना की पूर्णता,
चेतना पर लक्ष्य अंकित, खड़ा जीवट सा बढ़ा।

भूत मेरे निश्चयों की कोठरी में बंद है,
आज का दिन और यह पल, यहीं से आरम्भ है।

समय संग में चल सके तो, बढ़ा ले गति तनिक सी,
अब नहीं विश्राम लेना, अब नहीं रुकना कहीं।

आश्रितों की वेदना से व्यक्त यह संसार है
यही मेरे परिश्रम का, ध्येय का आधार है।

नहीं चाहूँ पद, प्रतिष्ठा, स्वयं पर निष्ठा घनेरी,
नहीं आशा प्रशंसा की, कार्य की बस चाह मेरी ।

78 comments:

  1. वाह जी बहुत उम्दा...उत्हसावर्धक!!

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  2. उम्दा रचना

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  3. काश ! यह चाह सब के मन में हो
    बहुत सुंदर रचना , बधाई

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  4. ऐसी चाह अवश्य पूरी होंगी।

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  5. बहुत खूब ...अब इसे तो सुनाना ही होगा ..

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  6. कार्य की बस चाह मेरी, राह मिल जाया करें,
    देख लेंगे, कष्ट दुष्कर, आयें तो आया करें।

    बहुत खूब प्रवीण जी - खूबसूरत पंक्तियाँ


    मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं
    कोशिशें गर दिल से हों तो जल उठेगी खुद शमां

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com
    http://meraayeena.blogspot.com/
    http://maithilbhooshan.blogspot.com/

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  7. प्रेरक, क्रियाशील उद्यम से सब सध स‍कता है.

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  8. बहुत अच्छी रचना....

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  9. चेतना पर लक्ष्य अंकित, खड़ा जीवट सा बढ़ा
    बहुत सुन्दर ......
    कार्य की बस चाह मेरी ...
    एक उत्कृष्ट रचना ..
    अपनी सभी काव्य-रचनाओं का पोडकास्ट पाठ अवश्य किया करें !

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  10. बहुत सुन्दर प्रेरणादाइ रचना| धन्यवाद|

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  11. नहीं चाहूँ पद, प्रतिष्ठा, स्वयं पर निष्ठा घनेरी,
    नहीं आशा प्रशंसा की, कार्य की बस चाह मेरी ।

    गहन ...उत्कृष्ट लेखन......बहुत अच्छी रचना है ..!!बधाई.

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  12. स्वेद से है तेरे सुशोभित ,पुरुषार्थ की परिभाषा
    पाषाण उर से निकले है निर्झर,ऐसी हो अभिलाषा

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  13. 'भूत मेरे निश्चयों की कोठरी में बंद है,
    आज का दिन और यह पल, यहीं से आरम्भ है।'

    इन्हीं पंक्तियों में काफी-कुछ सन्देश है.अगर आप वर्तमान में जियें,सही राह पर (अपने ज्ञान और अनुभव के आधार पर )चलते चलें,निश्चित ही जीवन -पथ सुगम हो जायेगा !

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  14. नहीं चाहूँ पद, प्रतिष्ठा, स्वयं पर निष्ठा घनेरी,
    नहीं आशा प्रशंसा की, कार्य की बस चाह मेरी ।

    मेरा भी यही ध्‍येय वाक्‍य है। बहुत अच्‍छी रचना, बधाई।

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  15. अद्‍भुत, प्रेरक, अनुकरणीय...।
    अरविन्द जी की फरमाइश पूरी करें।
    मैं जानता हूँ ईश्वर ने आपको सुरीला कंठ दिया है।

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  16. भूत मेरे निश्चयों की कोठरी में बंद है,
    आज का दिन और यह पल, यहीं से आरम्भ है।


    समय संग में चल सके तो, बढ़ा ले गति तनिक सी,
    अब नहीं विश्राम लेना, अब नहीं रुकना कहीं।
    - बहुत प्रेरक पंक्तियाँ हैं,केवल आपके नहीं हम सभी के लिये .

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  17. उत्तम अभिलाषा और प्रेरणादायक रचना.

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  18. व्यक्त है, साक्षी समय है, मन कभी डरता नहीं,
    दहकता अस्तित्व-अंकुर, हृदय में मरता नहीं।

    कब कहा मैंने समय से, तनिक तुम अनुकूल हो,
    सब सहा जो भी मिला पथ, विजय हो या भूल हो।

    इन चार पंक्तिओं मे ही जीवन का सार, मंज़िलों का पता और जीवन की सार्थकता है। यथार्थ के धरातल बहुत कठोर होते हैं लेकिन जो उन पर चलते हुये आपनी आदर्श बनाये रखता है निश्चित ही वो महान है। प्रेरना देती रचना के लिये बधाई।

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  19. कब कहा मैंने समय से, तनिक तुम अनुकूल हो,
    सब सहा जो भी मिला पथ, विजय हो या भूल हो।

    रचना की हर पंक्ति प्रेरणादायी है.... अति सुंदर

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  20. कार्य की बस चाह हो तो राह मिलती है जरुर
    कष्ट दुष्कर लाख आयें, वे उड़ेंगे बन कपूर.
    प्रवीण जी , गद्य और पद्य में भाषा पर आपका असाधारण अधिकार , भावाभिव्यक्ति का अनूठापन ,अतुलनीय है.
    कर्म का सन्देश देती सार्थक कविता.

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  21. कार्य की बस चाह मेरी
    -प्रवीण पाण्डेय

    22.6.11
    १. कार्य की बस चाह मेरी, राह मिल जाया करें,
    देख लेंगे, कष्ट दुष्कर, आयें तो आया करें।

    २. व्यक्त है, साक्षी समय है, मन कभी डरता नहीं,
    दहकता अस्तित्व-अंकुर, हृदय में मरता नहीं।

    ३.कब कहा मैंने समय से, तनिक तुम अनुकूल हो,
    सब सहा जो भी मिला पथ, विजय हो या भूल हो।

    ४. लग तो सकते हैं हृदय में, तीर शब्दों के चले,
    मानसिक पीड़ा हुयी भी, वो हलाहल विष भरे।


    ६. भूत मेरे निश्चयों की कोठरी में बंद है,
    आज का दिन और यह पल, यहीं से आरम्भ है।

    ७. समय संग में चल सके तो, बढ़ा ले गति तनिक सी,
    अब नहीं विश्राम लेना, अब नहीं रुकना कहीं।

    ८. आश्रितों की वेदना से व्यक्त यह संसार है
    यही मेरे परिश्रम का, ध्येय का आधार है।

    ९. नहीं चाहूँ पद, प्रतिष्ठा, स्वयं पर निष्ठा घनेरी,
    नहीं आशा प्रशंसा की, कार्य की बस चाह मेरी ।
    ============================================
    "कार की चाह"
    -एम्. हाश्मी

    [ग़ज़ल से हज़ल बन जाती है..............यह कविता से 'व्यंजल' बनाने की कौशिश है, प्रवीण पाण्डेय जी की रचना से, क्षमा याचना सहित....]

    १.कार की ही चाह मैरी, 'किस्तों' से भी गर मिल सके,
    देख लेंगे 'चुक न पायी' गर तो कोई रास्ता.
    ==================================
    २. 'गुप्त' है ये, 'सुप्त' है ये, थपकिया देकर इसे,
    मैं सुला रखता हूँ इसको मन कभी जगता नहीं.
    ===============================
    ३. मैं समय के साथ ही बहता रहा, जब-जब चला,
    रुख़ फिराया, राह में जब-जब मुझे पत्थर मिला.
    =================================
    ४. अनसुना कर मैंने 'अपशब्दों' को फिर पलटा दिया,
    विष भरे बाणों को उसके घर पे फिर लौटा दिया.
    =================================
    ६. "भूत" को बोटल से मैंने ही निकाला, और फिर,
    "आज" की 'चुड़ैल से जाके उसे भिड्वा दिया.
    ================================
    ७. है समय तो तेज़, तुम ठहरो, तनिक विश्राम कर,
    इस दफा तो रेंगते 'कछुए को शर्मिंदा करो.
    ================================
    ८. जो 'निराश्रित' है उसी का दर्द है दिल में मैरे,
    'आश्वासन' साथ लेकर घूमता रहता हूँ मैं !
    ================================
    9. पद, प्रतिष्ठा मुझको ही, पार्टी से मिलना तय रही,
    पारिवारिक पृष्ठभूमी पर ही मुझको नाज़ है.
    ==================================
    http://aatm-manthan.com


    --
    mansoor ali hashmi

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  22. देख लेंगे, कष्ट दुष्कर, आयें तो आया करें। व्यक्त है, साक्षी समय है, मन कभी डरता नहीं, दहकता अस्तित्व-अंकुर, हृदय में मरता नहीं।
    bahut hi sunder rachna.....

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  23. कर्मवीर हैं आप !
    बड़ों का स्नेह साथ है आपके ! आप अपने कार्यों को बखूबी निभायेंगे प्रवीण !
    शुभकामनाएं आपको !

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  24. कर्म की प्रधानता ही जीवन को उत्कृष्ट बनाती है आपकी चाह पूरी ऐसी कामना है

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  25. प्रवीण पाण्डेय जी
    बहुत सुन्दर भाव भरी रचना सुन्दर कथ्य और आवाहन , काश ये सीख लोगों के मन में छा जाती -


    नहीं चाहूँ पद, प्रतिष्ठा, स्वयं पर निष्ठा घनेरी,
    नहीं आशा प्रशंसा की, कार्य की बस चाह मेरी


    शुक्ल भ्रमर ५

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  26. अति उत्तम चाह है ।
    आपकी रचना यहां भ्रमण पर है आप भी घूमते हुए आइये स्‍वागत है
    http://tetalaa.blogspot.com/

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  27. बहुत सुन्दर रचना ...

    कब कहा मैंने समय से, तनिक तुम अनुकूल हो,
    सब सहा जो भी मिला पथ, विजय हो या भूल हो।

    लग तो सकते हैं हृदय में, तीर शब्दों के चले,
    मानसिक पीड़ा हुयी भी, वो हलाहल विष भरे।

    एक दिन सहता रहा मैं, वेदना की पूर्णता,
    चेतना पर लक्ष्य अंकित, खड़ा जीवट सा बढ़ा

    यह पंक्तियाँ कुछ विशेष लगीं

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  28. नहीं चाहूँ पद, प्रतिष्ठा, स्वयं पर निष्ठा घनेरी,
    नहीं आशा प्रशंसा की, कार्य की बस चाह मेरी ।

    वाह .. भावमय करते शब्‍दों के साथ बेहतरीन शब्‍द रचना ।

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  29. Inspiring creation !

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  30. भूत मेरे निश्चयों की कोठरी में बंद है,
    आज का दिन और यह पल, यहीं से आरम्भ है।

    हर एक पंक्ति जानदार है...
    बहुत ही सुदर रचना ..प्रेरणाप्रद..
    बधाइयाँ बंधू

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  31. सुन्दर काव्य रचना....

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  32. आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल कल २३-६ २०११ को यहाँ भी है

    आज की नयी पुरानी हल चल - चिट्ठाकारों के लिए गीता सार

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  33. आश्रितों की वेदना से व्यक्त यह संसार है
    यही मेरे परिश्रम का, ध्येय का आधार है।
    वाह वाह वाह ..क्या भाव हैं.
    उम्दा कविता.

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  34. आश्रितों की वेदना से व्यक्त यह संसार है
    यही मेरे परिश्रम का, ध्येय का आधार है।

    बहुत सुंदर.. अच्छी रचना है

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  35. वाह भैया, इतने दिनों बाद आपके ब्लॉग पे आया और इतनी शानदार कविता..इन्स्पाइरिंग :)

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  36. राह पकड़ तू एक चला चल,
    पा जायेगा मधुशला.
    ---बहुत खूब, प्रवीन भाई.

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  37. व्यक्त है, साक्षी समय है, मन कभी डरता नहीं,
    दहकता अस्तित्व-अंकुर, हृदय में मरता नहीं।
    waah, utkrisht chaah

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  38. प्रेरणादायक रचना है |

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  39. आदरणीय प्रवीण पाण्डेय जी

    सादर अभिवादन !

    भूत मेरे निश्चयों की कोठरी में बंद है,
    आज का दिन और यह पल, यहीं से आरम्भ है।


    कितना प्रेरक है आपका गीत ! … और कितना सुंदर !!

    नहीं चाहूँ पद, प्रतिष्ठा, स्वयं पर निष्ठा घनेरी,
    नहीं आशा प्रशंसा की, कार्य की बस चाह मेरी ।


    आद्योपांत श्रेष्ठ !

    पूरी रचना के लिए
    हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं !

    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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  40. praveenji aapke lekh hon ya kavita sabhi men darshn ka put bakhubi dekhne milta hai....sundar prastuti..

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  41. प्रवीण जी,
    अच्छा है ! सब को काम पर लगा दिया ...

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  42. Anonymous22/6/11 18:07

    सब लोग ऐसा सोचें तो कितने अच्छा होगा |

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  43. समय संग में चल सके तो, बढ़ा ले गति तनिक सी

    सुन्दर-सुन्दर-सुन्दर भाई|

    उत्तम-उत्तम-उत्तम भाई ||

    सुन्दर भाई-उत्तम भाई-

    मस्त बनाई-मस्त लिखाई||

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  44. बनी रहे यह चाह उत्तरोत्तर प्रगति के लिये!!

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  45. मर्मस्पर्शी एवं भावपूर्ण काव्यपंक्तियों के लिए कोटिश: बधाई !

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  46. आपके सशक्त और दॄढ़ चेहरे के पीछे का यही संकल्प है..


    बहुत ही सराहनीय.....

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  47. बहुत प्रेरणादायी रचना
    शुक्रिया
    इसे प्रस्‍तुत करने का

    हंसी के फवारे में- अजब प्रेम की गजब कहानी

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  48. Jai ho......aapke kavyaktitv ko naman...sadhuwaad swikaren

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  49. नहीं चाहूँ पद, प्रतिष्ठा, स्वयं पर निष्ठा घनेरी,
    नहीं आशा प्रशंसा की, कार्य की बस चाह मेरी ।

    श्रेष्ट पंक्ति

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  50. kash sabki bhavna aise hi ho..
    sunder bhav

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  51. सभी कर्मयोगियों के लिये प्रेरक. उत्तम प्रस्तुति...

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  52. Anonymous22/6/11 23:58

    नहीं चाहूँ पद, प्रतिष्ठा, स्वयं पर निष्ठा घनेरी,
    नहीं आशा प्रशंसा की, कार्य की बस चाह मेरी ।
    एकदम मेरे जैसे हो बाबू! यही सोच...यही विचार...और एक निश्चित लक्ष्य ...कोई बाधा क्या रास्ता रोक सकेगी फिर?
    इस ज़ज्बे का सम्मान करती हूँ,प्यार करती हूँ.ईश्वर तुम्हे सफलता दे .'पार उतरेगा वो ही खेलेगा जो तूफ़ान से ,मुश्किलें डरती रही नौजवान इन्सान से,मिल ही जाते हैं किनारे जिंदगी साहिल भी है.'
    जिंदगी को जोश उमंग,उत्साह से जीने वाले लोग मुझे बहुत अच्छे लगते हैं.ये आपकी कविता में दिख रहा है.आप जैसे इंसान मेरे रोल मोडल रहे हैं.
    प्यार
    बुआ

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  53. भूत मेरे निश्चयों की कोठरी में बंद है,
    आज का दिन और यह पल, यहीं से आरम्भ है।

    बहुत ही प्रेरक ।

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  54. भूत मेरे निश्चयों की कोठरी में बंद है

    आपके गद्य आलेखों की तरह मुक्तकीय प्रस्तुतियाँ भी प्रभावित करती हैं| बधाई|

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  55. भले ही ऐसी सकारात्मक बातों का अनुसरण ईमानदारी से नहीं कर पाऊँ , यह साकारात्मक सोच वन्दनीय है |

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  56. एक दिन सहता रहा मैं, वेदना की पूर्णता,
    चेतना पर लक्ष्य अंकित, खड़ा जीवट सा बढ़ा।

    ये पंक्तियाँ बहुत अच्छी लगीं सर!

    सादर

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  57. वाह जी ...क्या बात ,... इतना सुन्दर लिखा ..जीवटता से भरी अआपकी कविता बेहद सुन्दर ..

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  58. बिना मिले, बिना जाने भी जैसे ही आपका नाम ध्यान में आता है,जो कुछ शब्द त्वरित रूप से मानस पटल पर तैरते हैं,वे हैं- सरल,संस्कारी, सात्विक, सुस्पष्ट सुलझे विचारों वाला,प्रतिभाशाली,कुशाग्रबुद्धि, ईमानदार एक कर्मठ व्यक्तित्व...

    इसलिए इस प्रकार की बातें (भाव) जब आपकी रचनाओं में दीखते हैं तो मन को कोई आश्चर्य नहीं होता,बल्कि यह आश्वस्त होता है कि, यह व्यक्ति ऐसा तो सहज भाव से सोचेगा ...विशेष बात जो आपकी कविताओं के पाठ काल में लगा करती है,वह है कविता के शिल्प और प्रवाहमयता से मिलने वाली रस तृप्ति..

    आज कविता लेखन में जिस प्रकार से शिल्प को सिरे से नकारने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है, आप जैसे कुछ लोगों की कवितायें पढ़ दग्ध ह्रदय को असीम सुख और शांति मिलती है...आपसे अनुरोध है कि यह प्रयास अबाधित रखें...

    ---------

    मंसूर अली जी की टिपण्णी का आशय समझ में नहीं आया...

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  59. "भूत मेरे निश्चयों की कोठरी में बंद है "
    बहुत अच्च्र्र रचना बधाई
    आशा

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  60. कब कहा मैंने समय से, तनिक तुम अनुकूल हो,
    सब सहा जो भी मिला पथ, विजय हो या भूल हो।

    बहुत सारगर्भित और प्रेरक प्रस्तुति..

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  61. समय संग में चल सके तो, बढ़ा ले गति तनिक सी,अब नहीं विश्राम लेना, अब नहीं रुकना कहीं।

    आश्रितों की वेदना से व्यक्त यह संसार है
    यही मेरे परिश्रम का, ध्येय का आधार है।
    --क्या बात है !
    बहुत उम्दा.
    आगे बढ़ते रहने का हौसला देती रचना.

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  62. बहुत बढ़िया।

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  63. भूत मेरे निश्चयों की कोठरी में बंद है,
    आज का दिन और यह पल, यहीं से आरम्भ है।

    बहुत अच्‍छी रचना,

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  64. भाई मैं तो आपके लेखन का पहले से ही मुरीद हूँ. बहुत ही अच्छी रचना. :)

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  65. कार्य की बस चाह मेरी
    22.6.11

    कार्य की बस चाह मेरी, राह मिल जाया करें,
    देख लेंगे, कष्ट दुष्कर, आयें तो आया करें।
    ...sahaj ..sunder ..umang bharne wali ...

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  66. दहकता अस्तित्व-अंकुर, हृदय में मरता नहीं। सर लाजबाब ! साहस हो तो सब कुछ सहज !

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  67. आश्रितों की वेदना से व्यक्त यह संसार है
    यही मेरे परिश्रम का, ध्येय का आधार है।

    नहीं चाहूँ पद, प्रतिष्ठा, स्वयं पर निष्ठा घनेरी,
    नहीं आशा प्रशंसा की, कार्य की बस चाह मेरी ।

    वाह ! शायद हम सबको ऐसी सोच मन में भरने की जरूरत है।

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  68. खूब..

    काम करते रहने के लिए इंस्पायर करती रचना.

    मनोज

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  69. चाह की चाह किसे है
    राह मिले तो,
    मंज़िल की परवाह किसे है

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  70. क्या बात है. जिंदगी के प्रति आस्था को मजबूत करती कविता.

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  71. देख लेंगे, कष्ट दुष्कर, आयें तो आया करें।

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  72. अत्यंत प्रेरक कविता...किस-किस पंक्ति को उद्धृत करूँ... एक से बढ़ कर एक... मनुष्य के उद्दाम कर्म प्राबल्य का बोध कराने वाली अनुपम कृति ... पढ़ कर स्वतः ही निज संकल्पों की तरफ ध्यान चला गया. एक बार फिर से पढूंगी.

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  73. बहुत खूब, प्रवीण जी. बार बार पढ़ता हूँ; और आनंद बढ़ता जाता है.
    अपने मित्रों के साथ share किया; और सभी को बहुत पसंद आयीं ये lines.

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