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28.1.12

सुकरात संग, मॉल में

अपने अनुशासन से बुरी तरह पीड़ित हो गया तो आवारगी का लबादा ओढ़ कर निकल भागा। कहाँ जायें, सड़कों पर यातायात बहुत है, एक दशक पहले बंगलुरु की जिन सड़कों पर बिना किसी प्रायोजन के ४-५ किमी टहलना हो जाया करता था, वही सड़कें आज धुँये की बहती धारा अपनी चौड़ाई में समेटे हुये हैं, रही सही कसर वाहनों के कर्कशीय कोलाहल ने व उनके उन्मत्त चालकों ने पूरी कर दी है। सड़कों पर निष्प्रायोजनीय भ्रमण एक रोमांचपूर्ण खेल खेलने जैसा है और उसके बाद सकुशल घर पहुँचना उस दिन की एक विशेष उपलब्धि।

सड़कों पर टहलने का विचार शीघ्र ही छोड़ मॉल में चला गया, न समर्थक के रूप में, न विरोधी के रूप में, बस एक दृष्टा के रूप में, दृष्टि बाहर नहीं, दृष्टि अन्दर भी नहीं, बस कहीं भी और हर जगह, आवारगी और वह भी विशुद्ध अपनी ही तरह की। मॉल को बहुत लोग विलासिता को प्रतीक मानते हैं, मैं नहीं मान पाता। जितनी बार भी जाता हूँ, तन से थका हुआ और मन से सजग हो वापस आता हूँ, विलासिता से बिल्कुल विपरीत। वातानुकूलित वातावरण में घन्टे भर टहलने भर से ही शरीर का समुचित व्यायाम हो जाता है। दृष्टि दौड़ाने पर दिखते हैं, उत्सुक और पीड़ित चेहरे, संतुष्ट और असंतुष्ट चेहरे, निर्भर करता है कि कौन खरीदने आया है और कौन खरीदवाने। थोड़ा सा ध्यान स्थिर रखिये किसी एक दिशा में, बस दस मिनट, किसी की निजता का हनन तो होगा पर लिखने के लिये न जाने कितने रोचक सूत्र मिल जायेंगे।

आगे बढ़ा, एक स्टोर में खड़ा सामान देख रहा था, वहाँ पर एक और व्यक्ति भी थे, लम्बी दाढ़ी, बाल घुँघराले और चेहरे पर आनन्द, ध्यान से देखते ही यह विश्वास हो गया कि ये सुकरात ही हैं। बड़े दार्शनिक थे, नये विचारों के प्रणेता, अपने समय में उपेक्षित, फिर भी अपना ज्ञान बाटते रहे, शासक वर्ग भी जितना झेल सकता था, झेलता रहा, पर जब पक गया तो जहर पिला कर जग से प्रयाण करने को कह दिया। बड़ा आश्चर्य हुआ उन्हें देखकर, सोचा कि दार्शनिकों के देश में भला सुकरात क्या ज्ञान बाटेंगे, जहाँ हर व्यक्ति दार्शनिक है वहाँ सुकरात को क्यों कोई सुनेगा? ईश्वर को यदि किसी को भेजना था तो निर्जीव देश में किसी साहस जगाने वाले को भेज देते।

बात बढ़ी तो उन्होने स्वयं ही बता दिया कि मॉल इत्यादि घूमना तो उनका बड़ा पुराना व्यसन रहा है, मुझे भी निशान्तजी और रवि रतलामीजी के लिखे लेख याद आ गये। सुकरात बोले, पहले तो मैं बस यही सोचकर प्रसन्न हो लेता था कि बिना इन सब सामानों के भी उनका जीवन कितनी प्रसन्नता से बीत रहा है। धीरे धीरे और बार बार वही प्रसन्नता अनुभव करने की आवश्यकता व्यसन बन गयी। पहले तो बाजार आदि छोटे छोटे होते थे, धूल और गन्दगी रहती थी, कई दुकानों में जाना पड़ता था, पास से देखने की स्वतन्त्रता भी नहीं थी, अब बड़ा अच्छा हो गया है, मॉल में ढेरों सामान भी रहता है, समय बड़े आराम से कट जाता है।


उनके आनन्द के सहभागी बनने का लोभ तो सदा ही था, मैं भी साथ हो लिया। उनके साथ मॉल का सामान देखने में उतना ही आनन्द आने लगा जितना उन्हें आया करता था। उनके लिये जो कारण होता था बाजार घूमने का, वही कारण लगभग मेरा भी आंशिक सत्य था, दार्शनिक भी, बौद्धिक भी। मैं और भी ध्यान से देखने लगा कि किन किन सामानों के न होने पर भी जीवन कितने आनन्द से बिताया जा सकता है, न जाने कितना ही सामान हमारी आवश्यकताओं की दृष्टि से व्यर्थ था। न जाने कितने ही सामानों से हमने अपनी माँग हटानी प्रारम्भ कर दी। माँग कम होने से मूल्य कम हो जाता है, इस तरह हमारे दो घंटे के भ्रमण ने न जाने कितने सामानों के मूल्य को कम कर दिया होगा। हर भ्रमण के साथ पूँजीवादी की हानि और शोषित वर्ग का लाभ। मॉल को समर्थक की दृष्टि से देखकर, उसके विरोधियों का ही हित करते थे सुकरात, हम दोनों बस वही करते रहे, आज मॉल में संग संग टहलते हुये।

आज किसी मँहगे सामान को अधिक देखकर उसके प्रति सुकरातीय निस्पृहीय निरादर का भाव तो नहीं जगा सका, पर अपने लिये आवश्यक न जान, उसके लिये चाह जगाते विज्ञापनीय सौन्दर्य से प्रभावित भी नहीं हुआ। आभूषणों की दुकानें भावनात्मक लूटशालायें लगने लगीं, सलाह, जब तक विवश न हों तब तक बचे रहना चाहिये। कपड़ों की दुकानें, जूतियों की कतारें, पर्स और न जाने क्या क्या? मन किया कि हर्षवर्धन बन वर्ष में एक बार एक मॉल खरीद गरीबों में बाट दूँ।

भारतीय नारी तो फिर भी सब देख समझ कर व्यय करती हैं श्रंगार पर, बस यही भाव बना रहे, सुकरात का साथ देने के लिये तो हम हैं ही। अब लगता है कि कितना अच्छा हुआ कि इमेल्दा मारकोस भारत में पैदा नहीं हुयीं, कहीं उनके ऊपर लिखा अध्याय हमारी भावी पत्नियों को पढ़ने को मिल जाता तब तो निश्चय ही मॉल देश के आधुनिक उपासनास्थल बन गये होते।

6.10.10

आवारा हूँ

कुछ शब्द स्मृतिपटल पर स्थायी रूप से विराजमान हो जाते हैं, विशेषकर जब उनके साथ कोई घटना सम्बद्ध हो। बचपन, दस वर्ष से कम की आयु, एक दिन विद्यालय के बाद घर यह सोच कर नहीं आया कि अभी घर में माताजी और पिताजी को आने में देर है। मित्र के साथ नदी किनारे निकल गया, रेतीले किनारे, छोटे छोटे पत्थर नदी में डब्ब डब्ब फेंकता रहा। नदी की धार में बालसुलभ प्रश्नों की श्रंखला डुबकी लगा लेती थी पुनः सूखने के पहले। समय चुपके से कई घंटों सरक गया। सायं घर पहुँचता हूँ, कुछ कहता उसके पहले पड़ा चेहरे पर एक सन्नाट झापड़ और शब्द सुनाई पड़ा, आवारा हो गया है। आँख में बसी नदी आँख से पुनः बाहर आ गयी। माँ ने दौड़कर चिपटा लिया, समझाती रही, बहुत देर तक। हाथ पकड़ भैया के दुख भी बाँटने के प्रयास में छोटे भाई-बहन। पिता की व्यग्रता, पिछले चार घंटे से, पूरे नगर को जा जा कर टटोल डाला, अनर्थ की सम्भावनायें मन में बार बार। उस समय तो समझ नहीं आया कि व्यग्रता दोषी है या आवारगी, बस आवारा शब्द एक पूरी घटना बन स्मृति से चिपक गया।

तब से अब तक आवारगी और व्यग्रता एक दूसरे के विरोधी से लगते हैं।

जब भी कोई विचार, व्यक्ति या घटना घेरने का प्रयास करती है, छिपा हुआ आवारा जाग जाता है। पहले मुझे लगता था कि इस तरह का उन्मुक्त दिशाहीन भ्रमण, सड़कों पर, कल्पना पर, दृष्टिपथ पर, यह एक अभिरुचि है और इसे पाले जाने की आवश्यकता है। स्वयं से साक्षात्कार करने पर यह लगने लगा कि मेरी यथासंभव न हिलने की अजगरीय प्रवृत्ति में आवारगी कहाँ से आ गयी? देर से सही पर पता लग गया है कि बन्धनों की व्यग्रता मे छिपा है, मेरी आवारगी का स्रोत।

टीशर्ट, जीन्स, स्पोर्ट्स जूते और उन्मुक्तता पहन, काले चश्में में मन के भाव छिपा, विचार प्रक्रिया को रिसेट मोड पर वापस ला, कोई भी अवधि सीमा न रख, सरक लेता हूँ घर से। 5-6 किमी निष्प्रयोजनीय भ्रमण सड़कों पर, मॉल में, पार्क में, कॉफी की दुकान में, नितान्त अकेले, अपने भूत से विलग, भविष्य से विलग, वर्तमान को धोखा देते, किसी से कोई बात ऐसे ही अकारण, दिशाहीन, अन्तहीन, ध्येयहीन। न किसी को प्रसन्न रखने की बाध्यता, न किसी को दुख देने का मन, मैं और मेरी आवारगी, समय से उचटी, अपने में रमी। दृश्य रोचक हैं तो मुख में स्मित मुस्कान, दृश्य कटु हैं तो तनिक संवेदनीय खेद। पुनः चार घंटों के बाद घर में, अब कोई आवारा नहीं कहता है। दृष्टि से पर पढ़ लेता हूँ, ये नहीं सुधरेंगे। बच्चों को लगता है कि अब इतने हुड़दंग के बाद थोड़ा पढ़ते हुये प्रतीत हुआ जाये।

राजकपूर के गाने भाते हैं, आवारा हूँ, जीना इसी का नाम है, जूता है जापानी। मन कुछ पहचाना सा पा जाता है, उस फिल्मीय आवारगी में। बिली जोयेल भाता है, वी डिन्ट स्टार्ट द फायर, इन द मिडिल ऑफ द नाइट। संस्कृतियों से परे आवारगी आधार ढूढ़ने लगती है, बन्धनों को तोड़ने लगती है, व्यग्रता के बन्धनों को।

वैचारिक आवारापन, बौद्धिक आवारापन, दैनिक आवारापन, सब के संग जीवन के अंग बन गये हैं, व्यग्रता से जूझने को तत्पर। अब आवारापन में बँधता जा रहा हूँ, पुनः बन्धन। दवा दर्द बन रही है। आवारगी से बाहर कैसे आऊँ, या पड़ा रहूँ दिशाहीन, जीवनपर्यन्त।