दर्पण देखता गया, पंथ खुलता गया। चेहरे पर दिखता, त्वचा का ढीला पड़ता कसाव, जो यह बताने लगा है कि समय भागा जा रहा है। शरीर की घड़ी गोल गोल न घूमकर सिकुड़ सिकुड़ सरकती है, शक्ति और सौन्दर्य के प्रतिमानों को धूमिल करती हुयी सरकती है, समय अपना प्रभाव धीरे धीरे व्यक्त करता है। शरीर सरलता की ओर सरकता है, निर्जीव पड़े केश-गुच्छ कम हो जाते हैं, श्वेतरंगी हो जाते हैं, बाहों और वक्ष के माँसल अवयव सपाट और कोमल होने लगते हैं, चेहरे पर पल पल बदलते भाव एकमना हो जाते हैं, जीवन प्रतीक्षारत सा दिखने लगता है। अन्त दिखते ही जीवन ठिठक जाता है, संशय अपना लेता है, गतिहीन होने लगता है, धीरे धीरे।
थोड़ा और ध्यान से दर्पण देखता हूँ। मन यह विश्वास दिलाना चाहता है कि तुम अब भी वही हो, दर्पण के असत्य को स्वीकार मत करो, तनिक और ध्यान से देखो, कुछ भी तो नहीं बदला है। मन की बात का विश्वास होता ही नहीं है, सच भी हो तब भी नहीं, इतने छल सहने के बाद भला कौन विश्वास करेगा मन का। आज दर्पण को देख रहा हूँ तो मन की मानने का मन नहीं कर रहा है। मन समझ जाता है कि दर्पण सत्य बता रहा है, मन की माया रण हार रही है। मन आँख बन्द कर सोचने को कहता है, क्षय का पीड़ामयी आक्रोश तो वैसे भी नहीं सम्हाला जा रहा था आँखों से, आँखें बन्द हो जाती हैं।
आँख बन्द कर जब शरीर का भाव खोता है तो लगता है कि हम अभी भी वही हैं जो कुछ वर्ष पहले थे, कुछ दिन पहले भी स्वयं के बारे में जो अनुभूति थी, वह अभी भी विद्यमान है, कुछ भी नहीं बदला है, सब कुछ वही है। बन्द आँखों में एक भाव, खुली में दूसरे। मन की माया सच है या कि दर्पण का दर्शन। कठिन प्रश्न है, काश अपना चेहरा न दिखता, काश दर्पण ही न होता।
चिन्तन की लहरें उछाल ले रही हों तो किसी और कार्य में मन भी तो नहीं लगता है। सामने दर्पण है, मन के भाव अस्त-व्यस्त कपड़ों से फैले हुये हैं, न समेटने की इच्छा होती है, न ही दृष्टि हटाने का साहस। स्मृतियों का एक एक कपड़ा निहारने लगता हूँ, लगा कि सबको एक बार ढंग से देख लूँगा तो मन शान्त हो जायेगा। जीवन बचपन से लेकर अब तक घूम जाता है, संक्षिप्त सा।
बचपन की प्रथम स्मृति से लेकर अब तक के न जाने कितने रूप सामने दिखने लगते हैं, सब के सब स्पष्ट से सामने आ जाते हैं, मानो वे भी सजे धजे से राह देख रहे थे, स्मृतियों की बारात में जाने के लिये। बचपन की अथाह ऊर्जा, निश्छल उच्श्रंखलता और अपरिमित प्रवाह अब भी अभिभूत करता है। फिर न जाने क्या ग्रहण लग गया उसे, उस पर सबकी आशाओं और आकांक्षाओं की धूल चढ़ने लगी, दायित्वों और कर्तव्यों के न जाने कितने गहरे दलदल में फँसा हुआ है अभी तक। हर दिन कुछ न कुछ बदलता गया, धीरे धीरे। जब इतना कुछ बदल गया तो क्यों मन यह दम्भ पाले है कि कुछ नहीं बदला है? आँख खुली रहने पर दर्पण मन को झुठलाता है, आँख बन्द करने पर भी मन की नहीं चलती, स्मृतियाँ मन को झुठलाने लगती हैं।
आँखे फिर खुल जाती हैं, दर्पण आपके सामने आपका चेहरा फिर प्रस्तुत कर देता है। निष्कर्ष अब भी दूर हैं, साम्य नहीं है, अन्दर और बाहर। क्यों, कारण ज्ञात नहीं, पर दर्पण से कभी इतना गहरा संवाद हुआ ही नहीं। जब भी चिन्तन हुआ, मन उस पर हावी रहा, सारी परिभाषायें, सारे परिचय, सारे अवलोकन, सारे निर्णय मन के ही रास्ते होकर आये। दर्पण के रूप में आज कोई मिला है जो मन को ललकार रहा है।
मन हारता है तो आपको भरमाने लगता है। दर्पण आज मन का एकाधिकार ध्वस्त करने खड़ा है, वह बताना चाह रहा है कि आप बदल चुके हैं, सब बदल चुके हैं, मन है कि यह मानने को तैयार ही नहीं, किसी भी रूप में नहीं। यह उहापोह वातावरण गरमा देती है, वहाँ से हटना असंभव सा हो जाता है। मैं दर्पण फिर देखता हूँ, कभी मुझे एक पुरुष दिखता है, कभी एक भारतीय, कभी एक हिन्दू, कभी एक हिन्दीभाषी, कभी एक लेखक, और अन्दर झाँकता हूँ तो कुछ और नहीं दिखता है, सब की सब उपाधियाँ अलग अलग झलकती हैं। पलक झपकती है, तो कभी एक पुत्र, कभी एक भाई, कभी एक पति, कभी एक पिता, संबंधों के जाल दर्पण पुनः धुँधला देते हैं। आँख फाड़ कर और ध्यान से देखता हूँ, तो परिचितों की आकाक्षाओं से निर्मित भविष्य के व्यक्तित्व दिखने लगते हैं। लोगों की आशाओं पर खरा न उतर पाने का भाव भला दर्पण को कैसे ज्ञात हुआ? नहीं, नहीं, चेहरा ही नहीं छिपा पा रहा है, यह भाव।
मन झूठा सिद्ध हो चला था, वह यह समझा ही नहीं पा रहा था कि मैं अब भी वही हूँ, जो पिछले ४० वर्षों से उसके निर्देशों पर नृत्य किये जा रहा हूँ। आज दर्पण ने मुझे मेरे इतने रूप दिखा दिये थे कि किसी पर कोई विश्वास ही नहीं रहा, व्यक्तित्व बादलों सा हो गया, हर समय अपना आकार बदलने लगा। कुछ भी पहचाना सा नहीं लगता है, कोई ऐसी डोर नहीं दिखती है जो मुझे मुझसे मिला दे।
स्वयं के खो जाने की पीड़ा अथाह है, एक गहरी सी लहराती हुयी रेख उभर आती है पीड़ा की, विश्वास हो उठता दर्पण पर, विश्वास हो आता है अपने खोने का। मन थक हार कर शान्त बैठ जाता है, एक निर्धन और गृहहीन सा।
आँखे धीरे धीरे फिर खुलती हैं, दर्पण अब भी सामने है, कुछ धँुधला सा दिखता है, आँखों का खारापन पोंछता हूँ। चेहरा पूर्ण संयत हो चला है, सारी उपाधियाँ चेहरे से विदा ले चुकी हैं, चेहरे के कोई भाव नहीं दिखते हैं, बस दिखती हैं तो आँखें। अहा, कोई जाना पहचाना सा दिखता है, अपनी आँखों में अपनी पहचान दिखने लगती है, वह आँखे जिससे अभी तक सारी दुनिया मापते आयें हैं। आँखों में और गहरे देखता हूँ, उसमें बिखरे हुये सारे व्यक्तित्वों का केन्द्र दिखने लगता है। कुछ और देर देखता रहता हूँ, सब कुछ सिमटने लगता है, सब कुछ व्यवस्थित होने लगता है। मन सहसा ऊर्जा पा जाता है, उसे स्वयं को सत्य सिद्ध करने का अवसर मिल जाता है, मन इस बार धैर्य नहीं खोता है, बस यही कहता है…
ध्यान से देखो, थोड़ा और ध्यान से...