26.4.15

आस कैसी

सोचता हूँ सहज होकर,
भावना से रहित होकर,
अपेक्षित संसार से क्या ?
हेतु किस मैं जी रहा हूँ ?

भले ही समझाऊँ कितना,
पर हृदय में प्रश्न उठता,
किन सुखों की आस में फिर,
वेदना-विष पी रहा हूँ ?

17 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (27-04-2015) को 'तिलिस्म छुअन का..' (चर्चा अंक-1958) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

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  2. प्रश्न सदा अनुत्तरित...!

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  3. उम्मीद पर दुनिया कायम है।......सुन्दर अभिव्यक्ति.......

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  4. वेदना का यह विष संवेदना के कारण ही होगा

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  5. चिरन्तन चिन्तन

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  6. चिरन्तन चिन्तन

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  7. किन सुखों की आस में फिर,
    वेदना-विष पी रहा हूँ ?
    गंभीर प्रशन ....मगर जिन्दगी सिर्फ़ एक रास्ता है मंजिल नहीं

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  8. यह शाश्वत निरुत्तिरित प्रश्न ..........किसी को नहीं मिला उत्तर ..
    काव्य सौरभ (कविता संग्रह ) --द्वारा -कालीपद "प्रसाद "

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  9. गंभीर , सुन्दर अभिव्यक्ति.....

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  10. यह तो है......पता नहीं किन सुखों की आस में?

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  11. बहुत बढ़िया ! आपका नया आर्टिकल बहुत अच्छा लगा www.gyanipandit.com की और से शुभकामनाये !

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  12. सम्वेद्ना है तो चिंतन भी!

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  13. यही डोर है जो बांधे है हम सबको .

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  14. सुंदर मंथन! खुद की वजूद के कारण को तलाश करती कविता.

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  15. यही सत्य है

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  16. वेदना को अत्यधिक व्यक्त करने से निराशा का अधिक संचार होता है।

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  17. बहोत सुन्दर और वास्तविकता से भरी रचना

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