3.5.14

तुम्हीं पर

प्रश्न कुछ भी पूछता हूँ,
उत्तरों की विविध नदियाँ,
ज्ञान का विस्तार तज कर,
मात्र तुझमें सिमटती हैं ।

नेत्र से कुछ ढूँढ़ता हूँ,
दृष्टियों की तीक्ष्ण धारें,
अन्य सब आसार तजकर,
तुम्हीं पर कब से टिकी हैं ।

जब कभी कुछ सोचता हूँ,
विचारों की दिशा सारी,
व्यर्थ का संसार तजकर,
तुम्हीं पर आ अटकती हैं ।

नहीं खुद को रोकता हूँ,
हृदय के खाली भवन में,
जब तुम्हारी ही तरंगें,
अनवरत ही भटकती हैं ।

www.astrodynamics.net

26 comments:

  1. Great concentration. We have to aggregate selves to attain the bliss. Regards.

    ReplyDelete
  2. उम्दा अभिव्यक्ति ...... खूबसूरत रचना .....

    ReplyDelete
  3. Great concentration. We have to aggregate selves to attain the bliss. Regards.

    ReplyDelete
  4. जब कभी कुछ सोचता हूँ,
    विचारों की दिशा सारी,
    व्यर्थ का संसार तजकर,
    तुम्हीं पर आ अटकती हैं ।

    उत्कृष्ट भाव ।

    ReplyDelete
  5. उद्दिष्ट वही है - सारे प्रश्नों का उत्तर और सभी खोजों का लक्ष्य !

    ReplyDelete
  6. जब कभी कुछ सोचता हूँ,
    विचारों की दिशा सारी,
    व्यर्थ का संसार तजकर,
    तुम्हीं पर आ अटकती हैं ।.... very meaningful.. utkrisht abhivyakti

    ReplyDelete
  7. नहीं खुद को रोकता हूँ,
    हृदय के खाली भवन में,
    जब तुम्हारी ही तरंगें,
    अनवरत ही भटकती हैं ।
    .. बहुत सुन्दर

    ReplyDelete
  8. जब कभी कुछ सोचता हूँ,
    विचारों की दिशा सारी,
    व्यर्थ का संसार तजकर,
    तुम्हीं पर आ अटकती हैं ।

    bahut sundar bhav aur usase bhi achchhi abhivyakti ..

    ReplyDelete
  9. नहीं खुद को रोकता हूँ,
    हृदय के खाली भवन में,
    जब तुम्हारी ही तरंगें,
    अनवरत ही भटकती हैं ।

    मन के भाव को शब्दों में लिखा है ...!!!

    ReplyDelete
  10. उम्दा अभिव्यक्ति

    ReplyDelete
  11. Kya bat .....Adbhut shabd winyas....utkrisht

    ReplyDelete
  12. एक गाना याद आ गया> मेरी हर होशियारी़़़बस तुम तक़़़ > रांझना

    ReplyDelete
  13. इस जग का अति अद्भुत प्राणी इस पृथ्वी पर क्यों कर आया
    यह रहस्य तो बना हुआ है किसने क्या खोया क्या पाया ?
    कोSहमस्मि यह प्रश्न तरंगित रहा निरन्तर मानव मन में
    उत्तर पाता रहा मनुज नित आश्रम के पावन जीवन में ।
    पुरुषार्थ चतुष्टय बीज रूप में बसा हुआ है मानव मन में
    धर्म अर्थ औ काम मोक्ष की सतत् कामना है चिन्तन में।
    पाएगा जब तक न मनुज यह भटकेगा जीवन उपवन में ।
    आस्था का यह स्वर है जीवित आज भी ताज़ा सबके मन में।
    देवासुर संग्राम हो रहा नित-प्रति हर युग में हर बार
    सही - गलत की समझ कठिन है ज्यों हो दोधारी तलवार ।
    हुआ पराजित नर षड्-रिपु से नित्य निरन्तर बारम्बार
    लक्ष्य हेतु तत्पर है फिर भी उसे चुनौती है स्वीकार ।

    ReplyDelete
  14. अर्थात सब रास्ते तुम्हारी तरफ ही जाते हैं

    ReplyDelete
  15. ये शून्य जहां सब कुछ एक हो जता है बस उसी की तो तलाश रहती है ...
    बहुत खूब ...

    ReplyDelete
  16. बहुत खूब , मंगलकामनाएं आपको !

    ReplyDelete
  17. Dil ko chu lene wala lekh

    ReplyDelete
  18. बहुत सुन्दर रचना..

    ReplyDelete
  19. बहुत ही सुंदर, शुभकामनाएं.

    रामराम.

    ReplyDelete
  20. प्रेम गली अति सांकरी या मेँ दो न समाहिं।
    कविता के हर शब्द में बनारस है और कबीर भी।

    ReplyDelete
  21. विश्व में तुम हो अखिल अस्तित्त्व में तुम हो ,नही हूँ मैं कहीं कुछ भी जहाँ देखूँ वहीं तुम हो । --हमेशा की तरह गहन चिन्तनमयी रचना ।

    ReplyDelete
  22. दृष्टि की तीक्षणता ही जीवन को गतिमान करती है।

    ReplyDelete
  23. सुन्दर रचना। ……।

    नेत्र से कुछ ढूँढ़ता हूँ,
    दृष्टियों की तीक्ष्ण धारें,
    अन्य सब आसार तजकर,
    तुम्हीं पर कब से टिकी हैं ।

    पंक्तियाँ कबीर का दर्शन परिलक्षित करती प्रतीत होती है।

    आभार …।

    ReplyDelete
  24. सुन्दर रचना। ……।

    नेत्र से कुछ ढूँढ़ता हूँ,
    दृष्टियों की तीक्ष्ण धारें,
    अन्य सब आसार तजकर,
    तुम्हीं पर कब से टिकी हैं ।

    पंक्तियाँ कबीर का दर्शन परिलक्षित करती प्रतीत होती है।

    आभार …।

    ReplyDelete