9.2.13

आईआईटी - एक आनन्द यात्रा

मेरे लिये तो आईआईटी किसी भी छात्र के विकास के लिये विश्व के सर्वश्रेष्ठ संस्थानों में एक है, विशेषकर उस छात्र के लिये जो अपने जीवन के महत्वपूर्ण पड़ाव में पाँव धरने जा रहा है। मैं कभी सोचता हूँ कि मैं क्यों गया वहाँ, और लोग भी क्यों जाते हैं वहाँ? मैंने वहाँ चार वर्षों में तीन तरह के लोग देखे। पहले वे जो यह सोच कर आये कि यहाँ आने से नौकरी पक्की हो गयी, लगभग ७५ प्रतिशत, ये लोग किसी तरह चार साल तक ग्रेडों और एसाइनमेन्ट से जूझ कर निकल जाते हैं, नौकरी मिलती है और उनकी आईआईटी यात्रा का ध्येय पूरा हो जाता है। हो सकता है मैं भी कई दिनों तक इसी मानसिकता में रहा हूँ पर वहाँ उपस्थित संभावनाओं ने मुझे शीघ्र ही दूसरी श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया। ये श्रेणी अपनी बौद्धिक क्षमता को पैना करने और उसे सबके सामने सिद्ध करने यहाँ आती है। संभवतः उसे ज्ञात रहता है कि नौकरी तो मिल ही जानी है, आईआईटी की संभावनायें एक नौकरी से कहीं अधिक हैं। सघन बौद्धिक वातावरण फिर कहाँ मिलेगा भला, उसका उपयोग करना अधिक आवश्यक है, किसी क्षेत्र में अनुसंधान कर पैनापन प्राप्त करना यहाँ आने की सार्थकता होगी। इस श्रेणी में लगभग २४ प्रतिशत लोग आगे हैं।

मेरे आशाओं की धारा उन १ प्रतिशत पर आकर बाँध बनाने लगती है, जिन्हें न नौकरी की चाह होती है, न किसी विषय विशेष में अपनी बौद्धिक श्रेष्ठता सिद्ध करने की चाह। जो यहाँ आते हैं, अद्भुत बौद्धिक स्थिति में, अल्पप्रयास में ही विषय की बाधायें पार कर लेते हैं, जो अच्छा लगता है वही पढ़ते हैं और संस्थान को छोड़ देते हैं। वे यहाँ आर्थिक और बौद्धिक यात्रा में सहायता लेने नहीं आते, वे आते हैं बस अपना आत्मविश्वास व्यक्त करने, अपने आप में। सर्वश्रेष्ठ संस्थान, सर्वश्रेष्ठ शिक्षा, सबका थोड़ा सा अंश लेकर कुछ अपने ही स्वप्न साकार करने चल देते हैं, चार सालों बाद। उसे मानसिक उन्मुक्तता बोलें या आध्यात्मिक आवारगी, अजब श्रेणी में आते हैं ये लोग, बहुत कम ही पैसे या अपने विषय में स्थिर रहते हैं। इस श्रेणी की असीम संभावनाओं की चर्चा आगे करेंगे, क्योंकि ये ही बदलाव के सूत्रधार बनने की क्षमता रखते हैं।

जैसे जैसे जीविका के साधनों की कमी हुयी है, नौकरी की निश्चितता प्रदान करने वाले संस्थान की माँग इतनी बढ़ चुकी है कि प्रतियोगी छात्र येन केन प्रकारेण इसमें आना चाहते हैं। कई वर्ष पहले से तैयारी, यान्त्रिक तैयारी, प्रश्नों और उनके उत्तरों के अस्त्र शस्त्रों से सज्जित, युद्ध सा व्यवहार। एक बार अन्दर आने के बाद वही प्रतियोगी मानसिकता, वहाँ भी आने निकलने की होड़, चार साल इसी उठापटक में निकल जाते हैं। आईआईटी एक फैक्टरी बन कर रह जाता है, कमाऊ पूत वहाँ की गयी प्रतियोगिता को अपना वैशिष्ट्य समझते हैं, जगत रण में जूझने को तैयार। हतभागा आईआईटी अपना माथा पीटकर रह जाता है, एक प्रश्न हर वर्ष पूछता है, क्या यही उसकी संभावनायें थीं। निश्चय ही ये उसके ७५ प्रतिशत उत्पाद अवश्य हैं, पर ये उसके श्रेष्ठ उत्पाद तो कदापि नहीं हैं।

अंकों की प्रतियोगिता एक आवश्यकता है यहाँ, पर वही सब कुछ नहीं। निश्चय ही अच्छे ग्रेड की चाह सबको रहती है, पर उसी में सर्वस्व समय न्योछावर कर दिया तो रीते हाथ ही बाहर आयेंगे। सीखने के लिये कितना कुछ है, आँखों से रथ में हाँके घोड़े के पट्टे हटाकर देखें तो। वहाँ के पुस्तकालय में विज्ञान विषय के अतिरिक्त कितना ज्ञान छिपा है। वहाँ के गहन बौद्धिक परिवेश में ज्ञान की कितनी और शाखायें अपना स्वरूप ले रही हैं। खेल, रुचियाँ, चर्चायें, संस्कृति और न जाने कितने अध्याय लिखे जाते हैं वहाँ, हम तनिक प्रतियोगिता से बाहर आकर उन पर दृष्टि तो डालें। जो सबसे अधिक महत्वपूर्ण योगदान इस संस्थान का मानता हूँ, वह है देश के श्रेष्ठ मस्तिष्कों को एक साथ आने का सुयोग और मुझे उनके बीच रहने का मिला सौभाग्य। यहाँ आकर पहली बार आश्चर्य होना प्रारम्भ हुआ कि जिन समस्याओं का समाधान हम एकमार्गी माने बैठे रहते हैं, उनके मार्ग हर चर्चा के साथ चौराहे में बदलते जाते हैं। विज्ञान और तकनीक में उलझ जाने से हम उन मस्तिष्कों और उनकी क्षमताओं को भूल बैठते हैं जिनसे हमारी वर्तमान समस्याओं के सभी हल मिलना नियत हैं।

व्यक्तित्व विकास की असीम संभावना से भरे इस संस्थान में दबावमुक्त वातावरण की वकालत नहीं कर रहा हूँ मैं, दबाव आवश्यक है अपने आलस्य को तज कुछ नया ढूढ़ने के लिये, दबाव आवश्यक है अपनी क्षमताओं को उभारने के लिये, दबाव आवश्यक है सतत सोचने के लिये और नये मार्ग निकालने के लिये और दबाव निश्चय ही आवश्यक है हमें उस कठोर सत्य के प्रति तैयार करने के लिये जिसका सामना यहाँ से तुरन्त बाहर निकलने के बाद होने वाला है। असंभव जैसे शब्द पर विजय पाने के लिये हमें उन छोटे छोटे कठिन कार्यों को सिद्ध करना होता है, जिससे एक बड़े असंभव का निर्माण होता है। वहीं पर यह आत्मविश्वास हमें मिला, जिसने किसी भी कार्य के लिये हमें न कहना सिखाया ही नहीं।

वेतन के आगे लगे शून्य गिने जायें और उसके आधार पर संस्थान की श्रेष्ठता निर्धारित की जाये तो, यहाँ से निकलने वाले स्नातकों के वेतन में शून्य की संख्या निसंदेह सर्वाधिक होगी। पर क्या वही सब कुछ है? वेतन को एकमात्र मानक और कर्मफल मान बैठे स्नातकों की संख्या क्या कभी ७५ प्रतिशत से घटकर २५ प्रतिशत तक आ पायेगी? आईआईटी को यदि अपनी पूरी क्षमता में जीना है, विश्वस्तरीय मानक तय करने हैं, तक्षशिला और नालन्दा से अपना स्तरीय साम्य स्थापित करना है तो यह प्रतिशत हर वर्ष गिरना होगा, वह भी ५ प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से। अगले १० वर्षों में जब यह २५ प्रतिशत तक ही रह जायेगा तब कहीं जाकर आईआईटी अपनी ७५ प्रतिशत सार्थकता सिद्ध कर पायेगा। वेतन के आगे शून्य तब भी रहेंगे, उतने ही रहेंगे, तब भविष्य तनिक अलग होगा, तब भविष्य केवल कल्पना में नहीं जियेगा, साक्षात अनुभव किया जा सकेगा।

श्रेष्ठ संस्थानों से श्रेष्ठ की अपेक्षा यदि देश नहीं करेगा तो अपनी मुक्ति का मार्ग ढूढ़ने किसके द्वारे जाकर भिक्षापात्र फैलायेगा? श्रेष्ठ मस्तिष्क यदि अतिशय आत्मसंशय में पड़े रहे, भविष्य की पीढ़ियों के लिये धन जुटाते रहे तो वर्तमान पीढ़ियों को लुप्त होने की कगार से कौन बचायेगा? अपेक्षायें अधिक नहीं हैं पर स्पष्ट हैं। मस्तिष्कों का श्रेष्ठ समूह केवल धन कमाने की मशीन बनकर नहीं रह सकता, उसे ऊँचे ध्येय रचने और साधने होंगे। समाज के प्रति योगदान की दृष्टि किसी व्यक्तिगत त्याग के पथ से होकर नहीं जाती है, बस तनिक ऊँचा सोचने की आवश्यकता है, और अधिक भयरहित होने की आवश्यकता है। व्यक्तिगत धन कमाने से अधिक हमारा ध्यान उन तन्त्रों और व्यवस्थाओं को स्थापित करने में हो जो न केवल हजारों को जीविका दे सकें, वरन दस गुना धन कमा कर सम्मिलित सुख स्थापित कर सके। इस प्रयास में व्यक्तिगत रूप से भी हम वर्तमान से कहीं अधिक धन कमा पायेंगें, पर स्वयं को पुरुषार्थ के पथ पर स्थापित करने के बाद। मेरे कई मित्र हैं जो इसका महत्व समझते हैं और जिनके अन्दर यह क्षमता भी है, कई इस कार्य में लग चुके हैं और कई अपना मन बना रहे हैं।

बौद्धिक नेतृत्व के साथ आध्यात्मिक संतुष्टि का भावना दौड़ी चली आती है। समाज से एक बार जुड़ कर देखने की परिणिति उसके प्रति सतत कुछ करते रहने में होती है। एक बार लत लगने की देर है, तब जो आनन्द सम्मिलित विकास में आता है, सम्मिलित सुख में आता है, उसके समक्ष शेष व्यक्तिगत सुख बौना पड़ने लगता है।

आईआईटी में प्रवेश आपको एक राजमार्ग की संभावना देता है, यदि आप स्वार्थ की पगडंडी में त्यक्त से चले जायेंगे और अपनी जीविका में संतुष्ट हो जायेंगे तो संभवतः न आपको अपनी क्षमता पर तनिक विश्वास है और न ही संस्थान के वातावरण पर। जहाँ पर देश के श्रेष्ठ मस्तिष्क साथ बैठकर चार वर्ष निकाल देते हैं, वहाँ यदि एक वर्ष में चार टाटा-बिड़ला, चार नोबल विजेता, चार राजनेता और चार समाज सुधारक न निकलें तो श्रेष्ठ समूह का क्या प्रायोजन? जो समाज, देश, विज्ञान, राजनीति, अर्थव्यवस्था को दिशा दिखाने के लिये बने हैं, उन्हें चार वर्ष प्रतियोगिता के परिवेश में हाँक दिया जाये और जिनमें सागर लाँघ जाने की क्षमता है, वे भी हनुमान की तरह अपनी क्षमताओं को भुला बैठें, तो किसके सहारे देश अपने उत्कर्ष की आस लगायेगा? जामवन्त भला कब तक याद दिलाते रहेंगे, संस्थानों को अपनी श्रेष्ठता और सामाजिक अपेक्षायें की स्मृति कब आयेगी? कब मेरा आईआईटी एक आनन्द यात्रा में चल पड़ेगा?


(आईआईटी कानपुर में विनीत सिंह के साथ एक कमरे में तीन वर्ष बिताये हैं, आईआईटी के बारे में उनके ये विचार मेरे चिन्तन पथ पर बेधड़क अपनी छाप छोड़ गये, बस अनुवाद और कुछ शब्द मेरे हैं। विनीत अभी टाटा स्टील में महत्वपूर्ण पद पर हैं।)

51 comments:

  1. ...विनीत जी और आपके अनुभव कई पाठ पढ़ाते हैं ।

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  2. बहुत बढ़िया विवेचन किया विनीत जी ने आईआईटी |

    खेल, रुचियाँ, चर्चायें, संस्कृति और न जाने कितने अध्याय लिखे जाते हैं वहाँ, हम तनिक प्रतियोगिता से बाहर आकर उन पर दृष्टि तो डालें।
    @ जैसा कि आपने ऊपर बताया ज्यादातर की दृष्टि सिर्फ मोती तनखा वाली नौकरी के पैकेज पर ही रहती है ! काश यहाँ आने के बाद उपरोक्त अध्याय पढने लिखने वालों का प्रतिशत बढे !

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  3. उँची सोच उँचे व्यक्तित्व की पहचान है ...किसी भी क्षेत्र में हो,किसी भी जगह रहकर सबके लिए कार्य करने की भावना होना ही महत्वपूर्ण है...

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  4. चित को चिंतन की तरफ अग्रसर करती पोस्ट ....!

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  5. एक संतुलित सम्यक दृष्टि! इन महान संस्थानों को केवल नौकारी पाने के साधन के रूप में देखना इनका अवमूल्यन करना है !

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  6. विनीत जी का दृष्टिकोण विचारणीय है ....
    सच में आगे बढ़ने के मायने सिर्फ मोटी तनख्वाह पाना भर नहीं है | ऐसे संस्थानों में जाने वालों को जैसा वातावरण मिलता है वे बदलाव में महती भूमिका निभा सकते हैं |

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  7. यह पत्र आई आई टी के क्षात्रों को सुलभ होना चाहिए...
    विनीत सिंह और आपका आभार

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  8. श्रेष्ठ समूह को पारदर्शिता के साथ प्रमाण देना ही चाहिए ताकि अद्भुत बौद्धिक स्थिति का व्यापक प्रसार हो.

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  9. बौद्धिक वर्ग को अपनी भूमिका की जाँच-पड़ताल हमेशा करनी चाहिए।

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  10. विनीत सिंह जी के आईआईटी के बारे में विचार और आपका चिन्तन एवं अनुवाद विचारणीय है,,,

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  11. सुन्दर लेख....

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  12. चिन्तन की श्रेष्ठता, श्रेष्ठ कर्म की ओर प्रेरणादायी होता है।

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  13. नितान्‍त गूढ़ सामाजिक दृष्टिकोण..........................................................................विज्ञान और तकनीक में उलझ जाने से हम उन मस्तिष्कों और उनकी क्षमताओं को भूल बैठते हैं जिनसे हमारी वर्तमान समस्याओं के सभी हल मिलना नियत हैं।
    ................................................................मौलिक चिंतन बहुत अनुकरणीय
    व्यक्तिगत धन कमाने से अधिक हमारा ध्यान उन तन्त्रों और व्यवस्थाओं को स्थापित करने में हो जो न केवल हजारों को जीविका दे सकें, वरन दस गुना धन कमा कर सम्मिलित सुख स्थापित कर सके। इस प्रयास में व्यक्तिगत रूप से भी हम वर्तमान से कहीं अधिक धन कमा पायेंगें, पर स्वयं को पुरुषार्थ के पथ पर स्थापित करने के बाद।

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  14. मस्तिष्कों का श्रेष्ठ समूह केवल धन कमाने की मशीन बनकर नहीं रह सकता, उसे ऊँचे ध्येय रचने और साधने होंगे। समाज के प्रति योगदान की दृष्टि किसी व्यक्तिगत त्याग के पथ से होकर नहीं जाती है, बस तनिक ऊँचा सोचने की आवश्यकता है, और अधिक भयरहित होने की आवश्यकता है।


    सार्थक और प्रेरक भाव विनीत सिंह जी के ...!!

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  15. आईआईटी में प्रवेश आपको एक राजमार्ग की संभावना देता है, यदि आप स्वार्थ की पगडंडी में त्यक्त से चले जायेंगे और अपनी जीविका में संतुष्ट हो जायेंगे तो संभवतः न आपको अपनी क्षमता पर तनिक विश्वास है और न ही संस्थान के वातावरण पर। जहाँ पर देश के श्रेष्ठ मस्तिष्क साथ बैठकर चार वर्ष निकाल देते हैं, वहाँ यदि एक वर्ष में चार टाटा-बिड़ला, चार नोबल विजेता, चार राजनेता और चार समाज सुधारक न निकलें तो श्रेष्ठ समूह का क्या प्रायोजन?
    क्या यह बात सभी उच्च शिक्षा केन्द्रों पर लागू नहीं होती..काश ऐसा हो...सार्थक पोस्ट !

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  16. college life... serves as solid base.. for our whole life.

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  17. आपकी अवधारणाओं से सहमत लेकिन फिल वक्त हो वही रहा है 75% खेल -खिलवाड़ खुद अपने साथ ,देश के साथ .इसी के चलते शीर्ष दौ सौ विश्व स्तरीय संस्थानों में आज हमारे ये भारतीय

    प्रोद्योगिकी संस्थान कहाँ है .यह चिंतनीय होना चाहिए .

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  18. अर्थ केन्द्रित लक्ष्यों से हम आगे निकलें .

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  19. आज तो और भी बेड़ा गर्क है अब पैकेज वाले आ गए हैं तनखा गए ज़माने की बात हो गई है .इसीलिए समाज भी टूट रहा है बौद्धिक क्षय भी हो रहा है .आप लक्ष्य पूरे करने वाले एक पुर्जे बन गए हैं

    निगमित (निगमीकृत )भारत के .

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  20. विचार उत्तेजक पोस्ट .

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  21. बढ़िया विवेचन ...

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  22. जामवन्त-हनुमान की शृंखला चलती रहे

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  23. बहुत उम्दा विवेचन...बहुत बहुत बधाई...

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  24. एक बढिया बौद्धिक विवेचन!

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  25. आईआईटी पर बहुत सुंदर पोस्ट, ये २५ प्रतिशत लोग भी काफी हैं देश के लिए और बहुत अच्छा काम कर रहे हैं शतप्रतिशत ये हो जाएं तो फिर देश को कितना लाभ हो जाएगा इसकी कल्पना भी मुश्किल है। इंजीनियरिंग के अंतिम वर्षों में मैंने सोचा था कि आईआईटी जाऊँ, इसलिए नहीं कि अच्छी सैलरीड जॉब मिल जाए, इसलए कि वहाँ के श्रेष्ठ अकादमिक वातावरण का आनंद लूँ, इसलिए जब आनंद यात्रा शीर्षक पढ़ा तो मुझे यह बेहद सार्थक शीर्षक लगा। टेक्निकल नॉलेज की कमी के चलते यह संभव नहीं हो पाया। आईआईटी के युवाओं को केवल टेक्निकल परिधि से निकालने की जरूरत है। अंततः उन्हें मैनेजेरियल रोल अदा करने होते हैं और इसकी स्किल उन्हें सिखाई जानी चाहिए, स्किल इस रूप में ताकि वो अपने ज्ञान का लाभ एक वृहत्तर समुदाय को दे सकें, शायद जैसे नेहरू की इच्छा थी।

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  26. आईआईटी को लेकर बनी हुई सामान्‍य जन छवि से एकदम हटकर यह चिन्‍तन, इन संस्‍थानों के अघोषित और अज्ञात सुदपयोग का परामर्श देता है। बात गले उतरती है। सम्‍बन्धितों तक यह चिन्‍तन पहुँचना चाहिएा आपकी और आपके सम्‍प्रेषण-तन्‍त्र की क्षमताओं का अनुमान होते हुए भी कह रहा हूँ कि इसमें यदि मेरा कोईउपयोग हो सकता हो तो सूचित कीजिएगा।

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  27. सार्थक चिंतन इन संस्थानों की सम्पूर्ण उपयोगिता को लक्षित करता है !

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  28. -- किसी भी उच्च-शिक्षा संस्थान के आदर्श, उद्देश्य व सामाजिक-सरोकार हेतु गुणवत्ता का सुन्दर विवेचन... हाँ ...

    "विज्ञान और तकनीक में उलझ जाने से हम उन मस्तिष्कों और उनकी क्षमताओं को भूल बैठते हैं जिनसे हमारी वर्तमान समस्याओं के सभी हल मिलना नियत हैं।"

    --- विज्ञान व तकनीक एवं उनकी उत्तरोत्तर प्रगति के साथ उनका सामाजिकता हेतु प्रयोग ही तो मस्तिष्क की क्षमताओं से हमारा परिचय है ..

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  29. बकौल अपने पुत्र के जाना आई आई टी मद्रास का लक्ष्य पूरी क्लास को ही एक न्यूनतम स्तर मुहैया करवाना रहता है . उपलब्धियों का .उस दौर में साहब जादे कम्युनिकेशन सिस्टम्स में एम्टेक कर

    रहे थे .भारतीय नौ सेना की योग्यता सूची के मुताबिक़ .

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  30. मद्रास प्रोद्योगिकी संस्थान की लाइब्रेरी भी दर्शनीय है .

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  31. पिछले चार वर्षों से अमूमन प्रत्येक माह ही एक बार आई आई टी ,कानपुर जाना होता है , दोनों बेटों से मिलने और मैं भी हमेशा यही कहता हूँ कि आई आई टी से इतने अच्छे बच्चों के समूह से अपेक्षित कीर्तिमान स्थापित करने वाले परिणाम क्यों नहीं मिलते । लीक से हटकर कुछ भी नया नहीं हो पा रहा है यहाँ से । मेधा विस्तार पाने के बजाय बस जीविकोपार्जन के रास्ते तय करने में ही 'die out'हो रही है ।

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  32. हमने तो आईआईटी कैसी होती है उसकी शक्ल ही नहीं देखी और न ही हमारी बैच से कोई आईआईटी तक पहुंचा। लोगों से ही सुना और जाना। :) बढिया पोस्ट

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  33. जहाँ इतनी क्षमताएँ बिखरी पड़ी हों,एक से एक उत्तम साधन विद्यमान हों, वहाँ जिसे अध्ययन करने को मिला है उसका विवेक जगानेवाली पोस्ट !

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  34. बहुत ही सारगर्भित जानकारी मिली, शुभकामनाएं.

    रामराम.

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  35. सामाजिक चिंतन करती सार्थक पोस्ट ...

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  36. sarthak Lekh ... Sadhuwad
    http://ehsaasmere.blogspot.in/2013/02/blog-post_11.html

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  37. सर जी | शिक्षित जीरो की माया से हट कर समाज को आत्मनिर्भर भी बनायें |

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  38. आज इस शिक्षण को हर एक की जरूरत है ताकि युवा अपने पैरों पर खड़े हो सके,बहुत ही सारगर्भित जानकारी शेयर किये,आभार आपका।

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  39. दुर्लभ सिद्धान्त व विचार । वरना आज छात्रों के लिये सिर्फ सर्टिफिकेट पाना ही शिक्षित होना है।परिणामतः डिग्रियाँ तो मिल रहीं हैं पर शिक्षा नही । और अनेक स्तरों पर उसके दुष्परिणाम भी दिख रहे हैं ।

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  40. सर बहुत ही ज्ञानवर्धक और उपयोगी आलेख |आप द्वारा किया किसी भी विषय पर किया गया विश्लेषण मन को छू जाता है |

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  41. विनीत जी और आपका चिंतन सार्थक है ... नौकरी पाना ही महज़ एक लक्ष्य नहीं होना चाहिए ... कुछ नया करने का अदम्य साहस भी जगाना चाहिए ॥

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  42. बेहद सार्थकता लिये सटीक बातें कहता यह आलेख ... आभार

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  43. शुक्रिया आपकी टिपण्णी के लिए बेहतीन पोस्ट के ज्ञानवर्धक विश्लेषण के लिए .

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  44. सही प्रश्न उठाए हैं आपके मित्र ने इस आलेख द्वारा..

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  45. आई.आई.टी. में देश के सबसे अच्छे बच्चे जाते हैं लेकिन कुछ तो लफ़ड़ा है कि निकलने के बाद देश का सबसे ज्यादा भला नहीं हो पाता। माहौल में कुछ तो गड़बड़ है कि कानपुर आई.आई.टी. में हर साल एक आत्महत्या हो जाती है। कानपुर के इन्फ़ोठेला का बहुत हल्ला सुना अब लगता है पंक्चर खड़ा है कहीं।

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  46. विनीत जी का दृष्टिकोण विचारणीय है ....

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  47. बहुत प्रेरक लेख ।सतत खोज ही ही ऐसे संस्थानों की उत्कृष्ट ता को बनाये रखती है वह जीवन या समाज से जुड़े कोई भी क्षेत्र से हो ।
    ऐसे ही अध्यात्म के क्षेत्र में कर्नाटक में ही कोई मठ (मुझे नाम यद् नहीं आ रहा है ।)के स्वामी मुख्य श्री बालगंगाधर भी आई आई टी से पास आउट है शायद आप जानते ही होंगे ।

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  48. आपने सही चिन्तन किया है ... कभी-कभी मुझे तो इसका कारण अनावश्यक राजनीतिक हस्तक्षेप लगता है । जब प्रवेश -प्रक्रिया में इन संस्थानों ने अपना अलग विचार रखा तो उनको किस प्रकार विवश किया गया ये तो सब जानते हैं ।

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