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7.7.12

त्याग भोग के बीच कहीं पर

उर्वशी पढ़ने बैठा तो एक समस्या उठ खड़ी हुयी। पता नहीं, पर जब भी श्रृंगार के विषय पर उत्साह से लगता हूँ, कोई न कोई खटका लग जाता है, कामदेव का इस तरह कुपित होने का कारण समझ ही नहीं आता है। पिछले जन्मों में या तो किसी ऋषि रूप में कामदेव के प्रयासों को व्यर्थ किया होगा जो अभी तक बदला लिया जा रहा है, या तो इन्द्रलोक में ही साथ रहते रहते कोई प्रतिद्वन्दिता पनप गयी होगी , या तो उर्वशी ही कारण रही होगी। तप में विघ्न पहुँचाने, इन्द्र द्वारा भेजी अप्सराओं की सुन्दरता का उपहास उड़ाने के लिये ऋषि नरनारायण ने अपनी उरु (जाँघ) काट कर उन सबसे कई गुना अधिक सुन्दर उर्वशी को बना दिया था और उसे वापस इन्द्र को भेंट कर दिया था। तब से ही उर्वशी के पाठकों के लिये कामदेव ऐसे ही समस्या उत्पन्न कर रहे होंगे।

अथाह सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति उर्वशी की उत्पत्ति त्याग का एक उत्तर था, भोग के उपासकों के लिये। ऐसा उत्तर जिसका होना प्रश्न अधिक खड़ा कर जाता है, ऐसा उत्तर जिसको समझना त्याग और भोग के पारस्परिक संबंधों को जानने के लिये आवश्यक है। भोग में अधिक शक्ति है या त्याग में, भोग त्याग से सदा इतना सशंकित क्यों रहता है, त्याग भोग को व्यर्थ क्यों समझता है? भोगमयी प्रवृत्ति और त्यागमयी निवृत्ति के बीच सौन्दर्य किस रूप में प्रस्तुत होता है? एक के लिये सयत्न प्राप्त कर सर धरने की वस्तु, दूसरे के लिये जाँघ से निकाल कर भेंट कर देने की वस्तु।

काम कभी भी संस्कृति का त्यक्त विषय नहीं रहा है, सदा ही उपस्थित रहा है। उर्वशी का वर्णन वेदों में है, शतपथ ब्रह्नण में उल्लेख है, कालिदास का नाटक विक्रमोर्वशीयम् की कथावस्तु ही यही है, दिनकर का काव्य है उर्वशी, राजा रविवर्मा के चित्रों में छलकता है उर्वशी का सौन्दर्य, तमिल कहावतों का हिस्सा है उर्वशी। प्रेम पर एक विस्तृत अध्ययन है, उर्वशी का पाठ। नर क्या होता है और क्या चाहता है, नारी के सौन्दर्य का प्रवाह कितना गतिमय होता है, इसका व्याख्यान है उर्वशी।

बरस गयी बूँदें यदि बादल का स्वरूप बताने में सक्षम होतीं तो एक आलिंगन भी भोग के सिद्धान्त समझा जाता। भावनाओं का घुमड़ना, रह रह उमड़ना, विचारों के बवंडर कैसे समझ आयेंगे? भोग के विषय में हमारा शाब्दिक ज्ञान तो औरों की अभिव्यक्ति के सहारे ही सीखा गया है। अज्ञेय जैसा विदग्ध हो, आहुति बन प्रेम की ज्वाला में कूद कर सीखने का उपक्रम ही रहस्य उद्घाटित कर सकता है, त्याग और भोग के। जो न त्याग में डूबा, जो न भोग में डूबा, उसके लिये तो ये दोनों शब्द विलोम ही बने रहेंगे। जो न त्याग समझा, जो न भोग समझा, उसके लिये ये दोनों विषय शरीर से परे जा ही नहीं पाते हैं, शरीर का बिछुड़ना त्याग और शरीर का मिलना भोग।

समाज में व्याप्त, प्रेम की यही जड़वत समझ एक कारण रहा होगा, जिसने दिनकर को नर के भीतर एक और नर और नारी के भीतर एक और नारी की परिकल्पना प्रस्तुत करने को बाध्य किया होगा। संभवतः इसी बहाने हम कुछ और गहरा उतरेंगे, कुछ और गहरा जहाँ त्याग और भोग परस्पर विलोम शब्द नहीं होंगे, साथ साथ खड़े होंगे, क्षण में पृथक, क्षण में संयुक्त।

त्याग और भोग पृथक शब्द नहीं है, इसका भान ईशोपनिषद का दूसरा श्लोक पढ़ते ही हो गया था हमें, तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा, अर्थ कि उसका त्यागपूर्वक भोग करो। अध्यापक से समझाने के लिये कहा पर संतुष्टि भरा उत्तर नहीं मिला, मन में प्रश्न बना रहा, कोई उत्तर देने वाला ही नहीं मिला। कहते हैं कि प्रेम में भोग भी है, त्याग भी। इन दोनों का परस्पर संबंध जैसे जैसे खुलता जाता है, प्रेम परिष्कृत होता जाता है। ईश्वर करे, उर्वशी का पढ़ना प्रेम की उस अनसुलझी गुत्थी समझने का माध्यम बने।

पुस्तक पढ़कर स्वयं को थोड़ा और ढंग से समझ सकूँ, अपने संबंधों को ढंग से समझ लूँ, कौन तृषा उन्मुक्त सी घूम रही है, उसे संतुष्ट कर सकूँ। विद्वता पुस्तक से ही मिलती तो सब पढ़ पढ़ विद्वान हो गये होते। प्रेम विशेषज्ञ बनना किसी के मन में हो तो उन्हें मैल्कम ग्लैडवेल की "आउटफ्लायर" पढ़नी चाहिये। जिन्होंने भी अपने क्षेत्रों में सिद्धहस्तता प्राप्त की है, उन्होनें लगभग दस हजार घंटे अभ्यास में लगाये हैं, कोई भी उपलब्धि स्वतः नहीं मिलती है। बस ६६ मिनट प्रतिदिन दीजिये, अपने प्रेम को, आप २५ वर्ष के गृहस्थ जीवन में प्रेमसिद्ध हो जायेंगे। बस घंटा भर ही अपने प्रेम को दीजिये।

देखिये, त्याग और भोग की प्राथमिक भँवर में ही फँस गये और यह बताना भूल गये कि समस्या क्या आ गयी थी? हुआ यह कि उर्वशी के पहले २० पन्नों में ही लगभग २० शब्द ऐसे निकल आये जिनका अर्थ ही समझ नहीं आ रहा था, कोई शब्दकोष नहीं था और बार बार इण्टरनेट में ढूढ़ने से पढ़ने की तारतम्यता टूटती थी। अरविन्द मिश्र जी को समस्या बताई तो उन्होंने एक वृहत शब्दकोश भेज दिया, बनारस से बंगलुरु। हाथ में आ गया है, कल से पुनः उर्वशी के पन्नों में उतराने को मिलेगा, त्याग भोग के बीच कहीं पर।