Showing posts with label सज्जन. Show all posts
Showing posts with label सज्जन. Show all posts

21.8.22

सज्जन-मन


सब सहसा एकान्त लग रहा,

ठहरा रुद्ध नितान्त लग रहा,

बने हुये आकार ढह रहे,

सिमटा सब कुछ शान्त लग रहा।


मन का चिन्तन नहीं व्यग्रवत,

शुष्क हुआ सब, अग्नि तीक्ष्ण तप,

टूटन के बिखराव बिछे हैं,

स्थिर आत्म निहारे विक्षत।


सज्जन-मन निर्जन-वन भटके,

पूछे जग से, प्रश्न सहज थे,

कपटपूर्ण उत्तर पाये नित,

हर उत्तर, हर भाव पृथक थे।


सज्जन-मन बस निर्मल, निश्छल

नहीं समझता कोई अन्य बल,

सब कुछ अपने जैसा लगता,

नहीं ज्ञात जग, कितना मल, छल।

 

साधारण मन और जटिल जन,

सम्यक चिन्तन और विकट क्रम,

बाहर भीतर साम्य नहीं जब,

क्या कर लेगा, बन सज्जन-मन।