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7.8.22

धर बल, अगले पल चल जीवन


शत पग, रत पग, हत पग जीवन,  

धर बल, अगले पल चल जीवन।


रथ रहे रुके, पथ रहे बद्ध

प्रारम्भ, अन्त से दूर मध्य,

सब जल स्वाहा, बस धूम्र लब्ध,

निश्चेष्ट सहे, क्या करे मनन,

धर बल, अगले पल चल जीवन।


बनकर पसरा वह बली स्वप्न,

चुप चर्म चढ़ा, बन गया मर्म,

सब सुख अवलम्बन गढ़े छद्म,

मन मुक्ति चहे, पोषित बंधन,

धर बल, अगले पल चल जीवन।


ऋण रहा पूर्ण, हर घट रीता,

श्रमसाध्य सकल, उपक्रम बीता,

मन सतत प्रश्न, तब क्या जीता,

भय भ्रमित अनन्तर उत्पीड़न,

धर बल, अगले पल चल जीवन।


जो है प्रवर्त, क्षण प्राप्त वही,

तन मन गतिमयता व्याप्त अभी,

गति ऊर्ध्व अधो अनुपात सधी,

आगत श्वासों का आलम्बन,

धर बल, अगले पल चल जीवन।

17.7.22

जीवन जीने चढ़ आता है


जब छूट गया, सब टूट गया,

विधि हर प्रकार से रूठ गया,

मन पृथक, बद्ध, निश्चेष्ट दशा,

सब रुका हुआ हो, तब सहसा,

वह उठता है, बढ़ जाता है,

जीवन जीने चढ़ आता है।


जब घोर अन्ध तम आच्छादित,

सिमटे समस्त उपक्रम बाधित,

जब आगत पंथ विरक्त हुये,

आश्रय अवगुंठ, विभक्त हुये,

तब विकल प्रबल बन जाता है,

जीवन जीने चढ़ आता है।


जब लगता अर्थ विलीन हुये,

जब स्पंदन सब क्षीण हुये,

सब साधे जो, प्रत्यंग विहत,

तब नाभि धरे अमरत्व अनत,

अद्भुत समर्थ, जग जाता है।

जीवन जीने चढ़ आता है।


क्या जानो, कितना है गहरा,

कितना गतिमय, कितना ठहरा,

कब उगता, चढ़ता और अस्त,

कब शिथिल और कब अथक व्यस्त,

बस, साथ नहीं तज पाता है,

जीवन जीने चढ़ आता है।

3.8.19

दुख सहना पर पीर पिरोना

बाहर तीखे तीर चल रहे,
सीना ताने वीर चल रहे,
प्यादे हो, हद में ही रहना,
दोनों ओर वजीर चल रहे।

मन अतरंगी ख्वाब न पालो,
पहले अपने होश सम्हालो,
क्यों समझो शतरंजी चौखट,
बचपन है, आनन्द मना लो।

आड़ी, तिरछी, फिरकी चालें,
कुछ बोलें और कुछ कर डालें,
अन्तस्थल तक बिंध जाओगे,
तन पर कितनी ढाल सजा लें।

घात और प्रतिघात प्रदर्शित,
छद्म धरे संहारक चर्चित,
हेतु विजय छलकृत पोषित पथ,
गुण के शिष्टाचार समर्पित।

शत युद्धस्थल और प्रहार शत,
मन अन्तरतम बार बार हत,
पर जिजीविषा अजब विकट है,
जीवट जूझी, सब प्रकार रत,

धैर्य धरो कल खेल ढलेगा,
गिरते मोहरे, ढेर सजेगा,
होंगे सारे छद्म तिरोहित,
अंतिम चालें काल चलेगा।

माना सहज नहीं बीता है,
माना अभी बहुत रीता है,
नहीं गर्भ से प्राप्त रहा कुछ,
अनुभव, देख देख सीखा है।

नहीं बने जो चाहे होना,
किञ्चित मन उत्साह खोना,
हो प्रतिकूल सकल जग फिर भी,
दुख सहना पर पीर पिरोना।

1.3.15

जीवन-सार

नहीं पुष्प में पला, नहीं झरनों की झर झर ज्ञात मुझे,
नहीं कभी भी भाग्य रहा जो सुख सुविधायें आकर दे ।
इच्छायें थी सीमित, सिमटी, मन-दीवारों में पली बढ़ीं,
आशायें शत, आये बसन्त, अस्तित्व-अग्नि शीतल कर दे ।।१।।

शीतल, मन्द बयार हृदय में ठिठुरन लेकर आती है,
तारों की टिमटिम, धुन्धों में जा, चुपके से छिप जाती है ।
रिमझिम वर्षा की बूँदों ने, प्लावित बाँधों को तोड़ दिया,
लहरों की कलकल ना भाती, रह रहकर शोर मचाती है ।।२।।

फिर भी जीवन में कुछ तो है, हम थकने से रह जाते हैं,
भावनायें बहती, हृद धड़के, स्वप्न दिशा दे जाते हैं,
नहीं विजय यदि प्राप्त, हृदय में नीरवता सी छाये क्यों,
संग्रामों में हारे क्षण भी, हौले से थपकाते हैं ।।३ ।।