30.9.21

राम का निर्णय (सीता)


लक्ष्मण आगे कुछ नहीं कहते हैं, तर्क का उद्देश्य निर्णय के सभी विकल्पों के पक्षों को सामने लाना था। सब जानकर और सब सुनकर राम ने अपना निर्णय नहीं बदला था। लक्ष्मण निर्णय का मान करते हैं। लक्ष्मण का क्रोध तो शान्त हो गया था पर शोक स्वाभाविक था। मन क्षुब्ध था पर राम का निर्णय अब उनका भी था।


राम माँ कौशल्या के पास जाकर उन्हें पुनः सान्त्वना देते हैं और वन जाने की अनुमति माँगते हैं। अपने राम के लिये माँ अपने शोक से सयत्न बाहर आती है और भारी मन से वनगमन की अनुमति देती है। जो सामग्री अभिषेक के लिये रखी थी, उसी को उपयोग में लाकर विधिपूर्वक स्वस्तिवाचन कर्म करती है।


माँ का स्वर तनिक रुद्ध है पर मन्त्रों का गाम्भीर्य वातावरण को स्थिर करने लगता है। अन्तरिक्ष, पृथिवी, जल, औषधि, वनस्पति, दिशा, काल, देव, ब्रह्मा, सबको आह्वान करता शान्ति पाठ कौशल्या के मन को निश्चिन्त नहीं कर पा रहा था। पुत्र के कल्याण की जो कामना वनगमन से रोक रही थी अब वही कामना सभी देवों से प्रार्थना कर रही थी कि राम जहाँ जायें, सब देव उनकी रक्षा करें। वन से, वृक्ष से, वन्य जीवों से, नदियों से, सबसे अपने राम की रक्षा के मन्त्र उच्चार रही थी माता। सबसे आह्वान कर चुकने के बाद माता पुत्र को निहारने लगती है। आँसू झर झर बह रहे हैं। स्वस्तिकर्म का समापन पुत्र की परिक्रमा कर समाप्त करती है माँ। पुत्र के चारों ओर अपनी शक्ति का घेरा स्थापित करती है माँ। अन्ततः हृदय से लगा लेती है अपने राम को। एक क्षण रुकते हैं राम, माँ की आज्ञा पाने की अनुकूलता है और माँ की पीड़ा का शोक भी, दोनों का अनुभव होता है राम को। राम झुककर प्रणाम करते हैं, बार बार माँ के चरणों का स्पर्श करते हैं और लक्ष्मण के साथ महल के बाहर निकल जाते हैं।


मार्ग के प्रतीक्षा कर रहे जनसमुदाय की मनःस्थिति भ्रमित थी। राम वन जा रहे हैं, यह कुछ को ज्ञात था, कईयों को यह तथ्य ज्ञान नहीं था, कुछ को ज्ञात हो रहा था, यह दुखद समाचार नगरवासियों में फैल रहा था। राम के मुख की शान्ति यथावत थी, वह चाह कर भी प्रसन्नमना हो अभिवादन स्वीकार नहीं कर पा रहे थे। एक तो वनगमन की शीघ्रता, पिता दशरथ और माँ कौशल्या के शोकसंतप्त चेहरे की छवि, लक्ष्मण का क्रोध और सीता की संभावित स्थिति और अनिश्चितता, इन सबके तात्कालिक प्रभाव से राम अपनी सर्वप्रियता के अभिवादन का यथायोग्य उत्तर नहीं दे पा रहे थे। साथ ही माँ कैकेयी के महल से निकलते ही उन्होंने युवराज पद मानसिक रूप से त्याग दिया था अतः जनसमुदाय के उस रूप में किये गये उल्लास पर सप्रयास ध्यान नहीं दे रहे थे। यथासंभव स्वयं को संयतकर प्रजा के बीच से निकलते हुये राम सीता के महल पहुँचते हैं।


सीता को राम के वनगमन प्रकरण का समाचार ज्ञात नहीं था। वह सकल सामयिक कर्तव्यों का पालनकर, सारे देवताओं की अर्चना कर प्रसन्नचित्त मन से अपने प्रिय राम की प्रतीक्षा कर रही थीं। अन्तःपुर में पहले से उपस्थित जनसमुदाय की दृष्टि से स्वयं को छिपाते हुये राम महल में प्रवेश करते हैं, उस समय लज्जा से उनका मुख झुका हुआ था। राम की यह छवि सीता के हृदय में कम्प उत्पन्न कर देती है। वह सहसा खड़ी हो जाती हैं और चिन्ता से इस प्रकार व्याकुल अपने पति को निहारने लगती हैं।


राम सीता के सम्मुख पहुँचने पर अपना मानसिक वेग रोक नहीं पाते हैं और उनका शोक सकल अंगों से प्रकट हो जाता है। सीता पति की दशा समझ जाती है। राम के मुखमण्डल पर सतत दमकती कान्ति को अनुपस्थित पा सीता अनर्थ की आशंका से अश्रु-प्लावित हो जाती है। शुभ लक्षणों की अनुपस्थिति को इंगित करते हुये अपने प्रिय राम से इसका कारण पूछती है। मन के भावों और वेगों को बिना छिपाये राम व्यग्र हो सीता को बताते हैं। सीते, आज पिताजी मुझे वन भेज रहे हैं। राम सीता को प्रातः से घट रहे प्रकरण की पृष्ठभूमि बताते हैं। पिता की प्रतिज्ञा के पालन हेतु वनगमन के औचित्य पर चर्चा न करते हुये सीता को इस कालखण्ड हेतु आवश्यक मंत्रणा देना प्रारम्भ करते हैं।


जहाँ राम सारे कथन यह मानकर कर रहे थे कि वह स्वयं ही वन जा रहे हैं, वहीं सीता शोक और आश्चर्य से राम को देखे जा रही थी। किस विषय की शीघ्रता है कि बिना कुछ बात किये इस कालखण्ड में सीता के क्या कर्तव्य उचित होंगे, क्या नहीं, राम कहे ही जा रहे हैं। सीते धैर्य धारण करना, सीते भरत को राजा का मान देना, भरत के समक्ष मेरी प्रशंसा मत करना, माँ कौशल्या और पिताजी की सेवा करना, किसी को कोई मानसिक कष्ट मत देना, धर्म का आचरण करना।


सीता हतप्रभ थी और पति की व्याकुलता पर आर्द्र भी। पति की दशा पर मन में शोक था और उनके स्वयं ही सब निर्णय लिये जाने पर क्रोध भी। पति ने वनगमन का निर्णय पिता की प्रतिज्ञा के पालन हेतु ले लिया। वह उनका अधिकार क्षेत्र था और परिस्थितियाँ देखते हुये इतना समय भी नहीं था कि निर्णय प्रक्रिया में पत्नी को सम्मिलित किया जाता। पर राम अब स्वयं ही जाने का प्रलाप किये जा रहे हैं, यह अधिकार उन्हें किसने दिया? माना, पति के रूप में पत्नी का योगक्षेम उनके हाथों में है और उस संदर्भ में उपदेश उचित भी हैं। पर अकेले ही वन जाने का निर्णय सीता को स्वीकार नहीं है। सीता राम के प्रवाह को रोकती नहीं है अपितु उस समय को अपने संवाद व्यवस्थित करने में लगाती है। राम अपनी बात समाप्त करते हैं तब सीता तात्कालिक शोक भुला कर स्पष्ट कुपित स्वरों में राम से कहती है। 


हे नरश्रेष्ठ, आप मुझे अत्यन्त लघु या ओछा समझ कर किस प्रकार बात कर रहे हैं? आपकी यह बातें सुनकर मुझे हँसी आ रही है। आप जो कह रहे हैं, वह धर्म के जानने वालों के योग्य नहीं है और न ही आप जैसे राजकुमार के योग्य है। आर्यपुत्र, सभी सम्बन्धी, माता, पिता, भाई, पुत्र आदि जीवन में अपने अपने भाग्य के अनुसार जीवन निर्वाह करते हैं। केवल पत्नी ही अपने पति के भाग्य का अनुसरण करती है। केवल इसी कारणमात्र से मुझे आपके साथ वन जाने की अनुमति प्राप्त हो जाती है। यदि आप वन में प्रस्थान करने का निर्णय कर चुके हैं तो मैं कुश और काँटों को कुचलती आपके आगे आगे चलूँगी। यदि आपको मेरे इस निर्णय से ईर्ष्या हो कि कैसे एक स्त्री वन जाने का साहस कर रही है या आपको रोष हो कि कैसे मेरी पत्नी मेरी आज्ञा का पालन नहीं कर रही है तो इन दोनों ही भावों को अपने मन से दूर कर दीजिये और जिस प्रकार पीने से बचा शेष जल भी यात्रा में साथ रखा जाता है, मुझे भी अपने साथ ले चलिये। मैंने कोई भी ऐसा पाप या अपराध नहीं किया है कि आप मुझे यहाँ त्याग दें।


मेरे लिये जीवन की सभी सुख सुविधायें तभी तक कुछ मूल्य रखती है जब आप उनमें सम्मिलित हों। किस सम्बन्धी से मुझे किस प्रकार का व्यवहार करना है, इस विषय ने मेरे माता पिता ने मुझे हर प्रकार से शिक्षा दी है, इस विषय में इस समय मुझे आपके उपदेश की आवश्यकता नहीं है। मैं आपके साथ वन अवश्य चलूँगी।


राम का शोक सहसा वाष्पित हो चला था। मन के द्रवित भाव पत्नी सीता के स्पष्ट और सपाट कथन सुनकर स्थिर हो गये थे। माँ कैकेयी के कुटिल वचन, दशरथ का मौन, माँ कौशल्या की दैन्यता और लक्ष्मण का क्रोध, उन सबके भावों से दग्ध होने के बाद सीता के ये वचन उद्विग्नता को सहसा विश्राम दे देते हैं। पत्नी की प्रेमपूरित रूप की परिकल्पना की परिधि में यह गुणश्रेष्ठता संभवतः छिपी रह जाती। सीता ने एक बार भी किसी पर प्रश्न नहीं उठाया, एक बार भी रुकने के लिये नहीं कहा और एक बार भी इस बारे में आशंका व्यक्त नहीं की। साथ ही जब सीता को अपने न जाने की बात पता लगी तो जिस तीक्ष्णता और तीव्रता से उसका विरोध किया, वह देखकर राम के मन में सीता के लिये गर्व की अनुभूति हो आयी।


गर्वानुभूति के वह क्षण वनजीवन की कठिनाइयों से पुनः विचलित हो उठे। सीता अपना मन्तव्य स्पष्ट कर चुकी थी।

4 comments:

  1. पढ़ने के समय हर चरित्र मुझे साक्षात दिख रहा है यह आपके लेखन के कारण है।
    राम सीता संवाद आपने जो लिखा है उसका शब्दो मे बयान नही कर सकता। आगे का इंतज़ार है।

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    1. राम का वनगमन साधारण घटना नहीं थी। सबके अपने भिन्न मत थे। राम ने कैसे संयोजन किया होगा?

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  3. बहुत सुंदर भावपूर्ण लिख रहे हैं आप । छायाचित्र जैसा ।बहुत बहुत शुभकामनाएं ।

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