29.6.21

सात जन्म - मन

 

मन है तो गति करेगा, स्वाभाविक है। कहाँ तक गति करेगा? जहाँ तक उसकी सामर्थ्य है। कब किस काल में रहेगा, क्या पता? क्यों नहीं हमें सारी स्मृतियाँ एक साथ याद आती हैं? क्यों नहीं हमारा सारा जीवनकृत्य स्मृतियों में परिणित हो जाता है? क्या वह कारण है जो स्मृति विशेष को आकर्षित करता है? क्या कुछ होता है उन घटनाओं में जो वे स्मृति बन इतने गहरे चिपक जाती हैं? और क्या होता है उन घटनाओं में जो होती तो विशेष हैं पर स्मृति में नहीं आती हैं या कहें कि काल में कवलित हो जाती हैं।


मन की गति विशिष्ट है। वह एक पल स्मृतियों में जीता है, दूसरे पल कल्पना में, तीसरे पल वर्तमान को समझता है और चौथे पल कर्म में ध्यानस्थ हो जाता है। विश्लेषण करें कि कितने समय किस काल में रहा मन? और जिस काल में भी रहा, अन्य कालों से कितना प्रभावित रहा मन? जब सुख और दुख उसी मन की अनुकूलता और प्रतिकूलता से व्यक्त हों, जब मन की गति जीवन के दिशा और दशा बदलने में सक्षम हो, जब भविष्य अनिश्चित हो और निर्णय अंधकूप के निष्कर्षसम हों, तो मन की गति के आधारभूत नियम जानना आवश्यक हो जाता है। यदि हम दृष्टा हैं तो कौन मन की यह गति नियन्त्रित कर रहा है? यदि कोई और नियन्त्रण में है तो सुख और दुख हमारे भाग में क्यों?


बड़ा असहाय सा लगता है जब दृष्टा मन के आन्दोलनों को झेल रहा होता है। तब मन न जाने कौन सी स्मृति सामने लाकर रख दे और आपको पुनः भयग्रस्त कर दे। सफलता की निर्मल आस को पुरानी असफलता की निर्मम स्मृतियों से ध्वस्त कर दे। एक पुरानी चोट की स्मृति आपके वर्तमान को अतिसावधान कर जाये। स्मृति में पड़ा एक छल का प्रकरण स्वस्थ परिवेश के प्रति भी अविश्वास उत्पन्न कर दे।


यदि हम अपनी स्मृतियों से इतने बद्ध हैं, या इतने प्रभावित हैं, या इतने प्रताड़ित हैं, तो हम क्या वह हो पा रहे हैं जो हमें उस परिस्थिति में होना चाहिये? वर्तमान की स्मृतियों पर अतिनिर्भरता निश्चय ही भविष्य के लिये भी उचित नहीं है। यदि ऐसा है तो निश्चय ही हम एक पूर्वनिर्धारित जीवन जी रहे हैं। तब वह कल्पनाशीलता कहाँ से आयेगी। सृजन के साथ यह अन्याय होगा कि कल्पनाशीलता सुप्तप्राय हो जाये। तब क्या हम पशुवत नहीं हो जायेंगे?


कल्पनाशीलता के लिये आवश्यक है कि स्मृतियाँ बाधक न हों, अपितु साधक हों। स्मृतियों की अधिकता और प्रबलता दोनों ही बाधक होने की संभावना रखती हैं। साधक स्मृतियाँ प्रबल हों और बाधक निर्बल, तभी कल्पना प्रखर हो सकेगी। कल्पनाशीलता ही क्यों, वर्तमान में सामान्य रूप से कार्य करने के लिये भी स्मृतियों के उछाह का समुचित निस्तारण आवश्यक है।


तब एक सहज सा प्रश्न उठ सकता है कि अच्छा जीवन तो वह होता है जिसमें ढेर सी स्मृतियाँ हों। इसी मानसिकता में हम स्मृतियाँ बनाते रहते हैं, समेटते रहते हैं, इस तथ्य से सर्वथा अनभिज्ञ कि यही एक दिन बोझ बन जायेंगी, एक पग भी आगे नहीं बढ़ने देंगी, बद्ध कर लेंगी।


कभी कभी स्मृतियों की इस आधिपत्य से हम विद्रोह कर बैठते हैं। कष्टमय भूत को भुलाकर, मार्ग के विरुद्ध एक नये मार्ग पर हठ करके बढ़ जाते हैं। भूत से यह बलात विलगता आपको स्वतन्त्र करने के स्थान पर और भी क्षीण कर देती है। पहली इसलिये कि आप अपनी गति और मति के विरुद्ध जाते हैं जिससे आपको सामान्य से कहीं अधिक ऊर्जा लगती है, साथ ही आपका निर्मित आधार आपके काम नहीं आता है। दूसरी इसलिये कि भूत से बलात विलगता आपको अपने भूत से और भी बद्ध कर देती है।


जहाँ स्मृति का तांडव भय उत्पन्न करता है, आपको आवश्यकता से अधिक सावधान, संचय और उपक्रम एकत्र करने में लगा देता है, कल्पना का भी विषादपूर्ण योगदान कम नहीं है। कल्पना के द्वारा निर्मित आगत की आकृति और उसे पूर्ण करने की चिंता। भविष्य की चिंता में डूबा अस्तित्व व्यर्थ ही ऊर्जाहीन हो जाता है। आश्चर्य है कि यह दुख भूत के भय की तुलना में कई गुना होता है। जहाँ भूत में घटित घटना एक ही होती हैं, कल्पनाजनित संभावित भविष्य कई प्रकार के हो सकते हैं। हर संभावित भविष्य में जाकर उसे पूर्ण करने या न कर पाने की चिंता में हमारे द्वारा प्राप्त मानसिक दुख कई गुना बढ़ जाता है, शारीरिक पीड़ा के तुलना में तो सैकड़ों गुना। क्योंकि बहुत कुछ संभव है कि असफलता की संभावित परिस्थितियाँ आयें ही नहीं। 


भूत के भय और भविष्य की चिंता, दोनों ही मिलकर वर्तमान को अस्तव्यस्त करने की क्षमता रखते हैं। बहुधा हम जीवन इसी उठापटक में निकाल देते हैं और वर्तमान पर तनिक भी ध्यान नहीं देते हैं। वर्तमान पर क्षिप्त विक्षिप्त सी प्रतिक्रिया परिस्थितियों को और भी प्रतिकूल कर देती है और तब लगता है कि जीवन में सब कुछ हमारे नियन्त्रण से बाहर चला गया।


वर्तमान हमारे लिये अत्यन्त महत्वपूर्ण है। स्मृति में कोई घटना जायेगी कि नहीं इसका निर्धारण वर्तमान से ही होगा। भविष्य पीड़ासित होगा कि नहीं, इसका भी निर्धारण वर्तमान से होगा। इस तथ्य के विपरीत हम वर्तमान को दोनों ही ओर से खो देते हैं। संभवतः यही हमारे जीवन की सबसे बड़ी विडम्बना है।


भूत, भविष्य और वर्तमान को साधने का क्रम अत्यन्त रोचक है। ऊर्जा, साम्य और एकता के पथ पर सध कर जाना पड़ता है। जानेंगे अगले ब्लाग में। 

8 comments:

  1. गहराई से मन की गति और स्मृतियों के औचित्य पर सुंदर विश्लेषण करता विचारपारख लेख !! साधुवाद !

    ReplyDelete
    Replies
    1. मन की गति समझना बहुत कठिन है और समझना भी मन से ही है। आभार आपका।

      Delete
  2. कल्पनाशीलता के लिये आवश्यक है कि स्मृतियाँ बाधक न हों, अपितु साधक हों। स्मृतियों की अधिकता और प्रबलता दोनों ही बाधक होने की संभावना रखती हैं। साधक स्मृतियाँ प्रबल हों और बाधक निर्बल, तभी कल्पना प्रखर हो सकेगी।
    बहुत सटीक विश्लेषण...
    सारगर्भित एवं चिन्तनपरक लेख।

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी बहुत आभार आपका सुधाजी

      Delete
  3. मन पर न जाने क्या क्या हावी होता रहता है । बहुत बार न चाहते हुए भी कोई बात ऐसी जम जाती है कि उन यादों को झटकना ही कठिन हो जाता है ।
    आत्मविश्लेषण के लिए बेहतरीन लेख ।

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी सच कहा आपने कि यादों को झटकना कठिन हो जाता है। बहुत आभार आपका।

      Delete

  4. तब एक सहज सा प्रश्न उठ सकता है कि अच्छा जीवन तो वह होता है जिसमें ढेर सी स्मृतियाँ हों। इसी मानसिकता में हम स्मृतियाँ बनाते रहते हैं, समेटते रहते हैं, इस तथ्य से सर्वथा अनभिज्ञ कि यही एक दिन बोझ बन जायेंगी, एक पग भी आगे नहीं बढ़ने देंगी, बद्ध कर लेंगी।..... आपका लेख अपने मन का आंकलन करने को प्रेरित कर गया,सच ही तो है,हम किसी भी स्थिति से बाहर निकल सकते हैं,पर हमे स्मृतियों का को मकड़जाल है,हमेशा उलझाए रहता है। सार्थक लेख।

    ReplyDelete
    Replies
    1. स्मृतियाँ बहुत जकड़ कर पकड़े रहती हैं, बाहर तो फिर भी निकलना ही होता है। आभार आपका।

      Delete