22.6.21

सात जन्म - एक प्रश्न

 

शीर्षक पढ़ते ही स्वाभाविक विचार आता है कि संभवतः चर्चा विवाह सम्बन्धों के कालखण्ड की होगी, एक के बाद एक, जीवनोत्तर। बहुधा इसी संदर्भ में सात जन्मों को अभिव्यक्त भी किया जाता है। तब विनोदवश प्रश्न यह भी उठता है कि सात जन्म ही क्यों? जब प्रेम इतना अधिक है तो सदा के लिये क्यों नहीं? जिनके लिये यह सम्बन्ध कठिन होने लगता है, उस क्षुब्धमना के लिये प्रश्न उठ सकता है कि जब एक नहीं सम्हाला जा रहा तो सात जन्म कैसे निभाये जायेंगे? जिज्ञासुमना को यह जानने की चाह हो सकती है कि अभी उनका कौन सा जन्म चल रहा है? प्रयोगधर्मियों के लिये हर बार नये प्रयोग करने के स्थान पर सात बार एक ही प्रयोग की बाध्यता क्यों? क्यों न ऐसा हो कि जब तक सामञ्जस्य की श्रेष्ठतम सीमा नहीं मिलती, प्रयोग चलते रहें और उसके बाद वही सम्बन्ध जन्मजन्मान्तर बने रहें।


यद्यपि यह देखा गया है कि लोग एक चित परिचित समूह में ही जन्म लेते हैं, जन्म जन्मान्तरों तक। ब्रायन वीज़ अपनी पुस्तकों में इस तथ्य को प्रयोगों द्वारा स्थापित करते हैं। “रिग्रेसन” पद्धति पर आधारित उनके प्रयोग व्यक्तियों को उनके पूर्वजन्मों में ले जाते हैं, जहाँ पर वे अपने वर्तमान सम्बन्धियों को पहचानते हैं पर किसी अन्य सम्बन्धी के रूप में। कभी कोई मित्र भाई के रूप में आता है, पिता पुत्र के रूप में आता है, शत्रु बान्धव बन कर आता है, परिचित पति बनकर आ धमकता है, सब गड्डमड्ड। कई बार पुराने सम्बन्ध उनके वर्तमान व्यवहार को भी समझने में सहायक होते हैं और केवल यह रहस्य जानकर ही उससे सम्बन्धित सारे अवसाद तिरोहित हो जाते हैं। आधुनिक वैज्ञानिक समाज भले ही अपनी परिधि से बाहर होने पर स्वीकार न करे पर पुनर्जन्म पर विश्वास रखने वालों के लिये और उसे दर्शन का स्थायी आधार मानने वाले हम भारतीयों के लिये यह सहज सा निष्कर्ष है।


पतंजलि के योगसूत्र में अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश, ये पाँच क्लेश कहे गये हैं। जब तक ये शेष रहते हैं, जन्म मिलता रहता है। साथ में रहने वालों के प्रति राग और द्वेष तो स्वाभाविक ही हैं। उन भावों की जब तक पूर्ण निष्पत्ति नहीं हो जाती, भोगक्रम चलता रहेगा। जिनके प्रति निष्पत्ति होनी है, उनके साथ जन्मक्रम चलता रहेगा। यद्यपि परम ध्येय इस चक्र से मुक्ति है, पर कर्मफल का सिद्धान्त समझना जीवन का एक अत्यन्त व्यवहारिक अंग है। देहान्तर के बाद भी चित्त में कर्मजनित संस्कार बने रहते हैं और वही कारण बनते हैं अगले जन्म का। स्मृतियों के रूप में जब यह संस्कार किसी तकनीक से कुरेदे जाते हैं तो वह पुनः संज्ञान में आ जाते हैं। पिछले जन्म की बातों को “रिग्रेसन” की पद्धति से याद कर पाना भी तभी संभव हो सकता है जब वे स्मृतियाँ चित्तपटल पर शेष हैं। योगसूत्र ही बताता है कि स्मृतियों के वे संस्कार कई परतों में ढके रहते हैं और सामान्यतः स्वतः बाहर नहीं आते हैं। अपरिग्रह विधि से जब वे सारी परतें धीरे धीरे हटती हैं तो सारे जन्मों के कृतान्त और वृत्तान्त स्पष्ट दीखते हैं।


जब कालखण्ड की परिकल्पना इतनी विस्तृत हो, जब कालचक्र से बाहर निकल आने वाली मुक्ति को श्रेयस्कर माना जाता हो, तब सात जन्म को इतना महत्व क्यों? क्या सम्बन्धों की मधुरता सात जन्म तक ही सीमित रहे? क्या सात जन्म तक इतनी मधुरता से साथ रहने के बाद राग नहीं रहेंगे? यदि किसी और से राग नहीं है तो वह कैसे अगली बार सम्बन्ध में आ बसेगा? यदि कोई राग में इतना ही अवलेहित है तो हमारे यहाँ पर तो चौरासी लाख का विधान है, उसे तो हर एक में भोगना पड़ेगा। प्रेमराग रहे भी और वह भी केवल सात जन्म, यह तथ्य सिद्धान्तसम्मत नहीं जान पड़ता है। यदि मुक्ति ही परम साध्य है तो क्यों न इसी जन्म में मुक्ति मिल जाये? यदि ऐसा है तो सांसारिक प्रेम का निरूपण मुक्ति से कैसे व्याख्यायित हो? यदि शास्त्रों पर विहंगम दृष्टि डालें तो एक सफल वैवाहिक सम्बन्ध को मुक्ति में सहायक माना गया है। पति और पत्नी एक दूसरे के पूरक और प्रेरक बने हुये मुक्ति को ओर संयुक्त रूप से बढ़ते हैं।


इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो “सात जन्म” का आशीर्वादात्मक उच्चार समझ नहीं आता है। यदि व्यवहारिकता के भाव में जायें तो “सात जन्म का साथ” वाक्य का प्रयोग उस पूर्णता के लिये किया जाता है जो सम्बन्धों से अपेक्षित है। यह शुभकामना का वह स्वरूप है जो सम्बन्धों में प्रगाढ़ता की आशा करता है। तब यह समझ नहीं आता है कि पूर्णता का निरुपण “सात” सी संख्या से क्यों? कहीं ऐसा तो नहीं कि इसके पीछे कोई और तर्क, भाव या अर्थ छिपे हों जो कालान्तर में शब्द से विलग हो गये हों? यह शास्त्र सम्मत है, वैज्ञानिक है, परिपाटी है या किसी अन्य भाव का अवशेष?


इस बारे में पहले तो उन लोगों से पूछा जो विवाह और सम्बन्धों में सिद्धहस्तता रखते हैं। क्योंकि इस प्रश्न के उत्तर उनके लिये भी उतने महत्वपूर्ण होने चाहिये जितने मुझे लग रहे हैं। एक अच्छा जन्म निकालना तो ठीक है पर शेष छह में भी वही मिलेंगे, इस बात की पुष्टि कर लेनी चाहिये। किसी भी शास्त्र में इसका कोई प्रमाण नहीं मिला है। यद्यपि सात संख्या से सम्बन्धित कई रोचक तथ्य पता चले पर उनमें से कोई भी तार्किक रूप से सम्बद्ध नहीं था। निकटतम संदर्भ सात फेरे और हर फेरे से जुड़े एक वचन का मिलता है पर उससे सात जन्मों की सहयात्रा न तो सिद्ध होती है और न ही अपेक्षित। अग्नि को साक्षी मानकर सात वचन लेना, सात जन्म तक साथ रहने से सम्बद्ध नहीं किया जा सकता है।


एक संभावित कारण समझ में आता है, उसकी चर्चा अगले ब्लाग में।

6 comments:

  1. सात जन्म कौन से होंगे, सोचकर मन में जिज्ञासा उत्पन्न होती है . सात संख्या के पीछे कोई न कोई बात जरूर होगी है, अब यह दूर की कौड़ी आप ही ढूंढ लाये तो जान सकेंगे

    बहुत अच्छी रोचक और मन में जिज्ञासा उत्पन्न करने वाली प्रस्तुति

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    1. जी, प्रयास किया है समझने का। आगे के ब्लागों में व्यक्त होगा। आभार आपका।

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  2. चिंतनपूर्ण संदर्भ उजागर किया आपने, सही तो कहा है,कि सात जनम कौन से होते हैं,आपके अगले आलेख का इंतज़ार रहेगा।बहुत शुभकामनाएँ प्रवीण जी।

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    1. प्रश्न बहुत दिनों से था। उत्तरों की कई दिशायें खंगाली, अनुत्तरित रहा। कुछ आस दिखी है, व्यक्त करता हूँ।
      बहुत आभार आपका।

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  3. रोचक,विचारपारख लेख !!

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