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चीन यात्रा - ११

टेंपल ऑफ हैवेन
यद्यपि कार्यक्रम में टेंपल ऑफ़ हैवेन जाना था पर सायं ७ बजे बन्द हो जाने के कारण हम वहाँ नहीं जा पाये। टाओ संस्कृति शैली से प्रभावित इस परिसर का निर्माण फाॅरबिडेन सिटी के साथ ही ई १४०६-१४२० में कराया गया था। यह तत्कालीन नगर के दक्षिण में स्थित था। इसके अतिरिक्त १६वीं शताब्दी में नगर की तीन अन्य दिशाओं में पृथ्वी, सुर्य और चन्द्रमा के भी मंदिर बनवाये गये। यह मिंग और क्विंग राजाओं की सांस्कृतिक गतिविधियों का केन्द्र था और वर्ष में एक बार अच्छी फ़सल के लिये राजाओं द्वारा यहाँ से ही स्वर्ग की पूजा की जाती थी। १९९८ में इसे यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर स्थान घोषित किया गया। हमारे एक मित्र, जो वहाँ जा चुके थे, उन्होने बताया कि स्थापत्य की दृष्टि से यह बहुत सुन्दर स्थान है औऱ सम्प्रति पार्क के रूप में दिन भर गतिविधियों में व्यस्त रहता है। किसी कोने में संगीत बज रहा है, किसी कोने में नृत्य, कहीं लोग चांग खेलते दिख जाते हैं तो कहीं शतरंज, कहीं पर टाओ की ध्यान प्रक्रिया में लोग बैठे मिलेंगे तो कहीं लोग प्रात और सायं का भ्रमण करते दिखेंगे। ऐसा लगा कि चीनी समाज में व्यक्तिगत और पारिवारिक जीवन के कहीं अधिक सार्वजनिक जीवन की महत्ता है।

टेंपल ऑफ़ हैवेन न जा पाने का दुख तो था पर समय व्यर्थ न करते हुये कुछ मित्रों के साथ यह निश्चय किया गया कि होटल के निकट स्थित हुआहाई झील पर चला जाये। इतिहास में इतना समय बिताने के बाद इच्छा होती है कि वर्तमान को समझा जाये, वर्तमान में जिया जाये। होटल में बैठ कर भी समय व्यर्थ करने से अच्छा था कि बाहर भ्रमण पर चला जाये, नया जानने को मिलेगा, मनोरंजन हो जायेगा और व्यायाम भी। झील नगर के पुराने भाग में थी और उसके एक ओर हुटांग थे। इस प्रकार की घुमक्कड़ी के लिये हममें से कईयों ने एक छोटा सा बैगपैक तैयार कर रखा था। मेरे बैगपैक में खाने का थोड़ा समान, सूखे मेवे, एक पुस्तक, पानी की एक बोतल, कुछ दवाईयाँ, छाता और पासपोर्ट पड़ा रहता था। कहीं भी जाना हो, तुरन्त उठाया और चल दिये। इससे भ्रमण करते समय दोनों हाथ खाली रहते हैं और बिना किसी पर निर्भर रहे लम्बे समय तक भ्रमण किया जा सकता है। आगरा और बनारस के कार्यकाल के समय विदेशी यायावरों को ध्यान से देखा है, पीठ पर लदे मध्यम आकार के बैग में वे सारा भारत घूम आते हैं।

बीजिंग में नगरीय यातायात की व्यवस्था बहुत अच्छी है। हमें वहाँ की भाषा नहीं आती थी और हर स्थान पर अंग्रेजी के सूचनापट्ट भी नहीं थे, फिर भी तकनीक के सहारे हमने नगरीय यातायात का भरपूर उपयोग किया। गूगल मैप नहीं चल रहा था पर मेरे आईफोन में बीजिंग और चेन्दू के मानचित्र यातायात के पूरे विवरण के साथ उपलब्ध थे। बस संख्या, ट्रेन संख्या, उनका मार्ग और वह सब कुछ जो एक यायावर को चाहिये। पहले घूमने वाले स्थान को इंगित करते थे, उसके बाद भिन्न नगरीय साधनों से वहाँ पहुँचने का मार्ग समझते थे। उतरने, चढ़ने और साधन बदलने के सारे स्थान फोन में ही इंगित कर लेते थे और सही स्थान में उतरने के लिये जीपीएस द्वारा इंगित बिन्दु का सहारा लेते थे। यह विधि अद्भुत रूप से सरल और कार्यकारी सिद्ध हुयी। न किसी से कुछ पूछने का झंझट और न ही चीनी समझ सकने की असमर्थता। जाते समय दिल्ली देर से पहुँचने के कारण चीन का स्थानीय सिमकार्ड नहीं ले पाये थे। आईफोन में घर से बात करने के लिये फ़ेसटाइम और बिना थ्रीजी के जीपीएस में अपनी स्थिति जान सकने की सुविधा ने कुछ भी कष्ट नहीं होने दिया। फोटो की गुणवत्ता भी उत्तम थी। कुल मिलाकर बड़े हल्के और छोटे से इस यन्त्र ने यात्रा में पूरा आनन्द और लाभ दिया। 

कल्पना कीजिये कि आज से कुछ वर्ष पहले तक कैमरे, मानचित्र, नगरीय गाइड आदि न जाने क्या क्या साथ ले जाना पड़ता था और घूमते समय न केवल सारा भार शरीर पर रहता था वरन दोनों हाथ भी व्यस्त बने रहते थे। अभी जीन्स की एक जेब में सकुचाया सा आईफोन पडा रहता है। जब जिस बात के लिये आवश्यकता हुयी, निकालकर उपयोग कर लिया। हमारे  कई मित्रों के फोन में पुराने सुरीले भारतीय फिल्मों के गीत भरे हुये थे। एक छोटे व हल्के से ब्लूटूथ स्पीकर के माध्यम से कहीं  पर भी विविध भारती के कार्यक्रम प्रारम्भ हो जाते थे। वहाँ के स्टेशनों, मॉल और अन्य सार्वजनिक स्थानों पर फ्री वाईफाई की सुविधा उपलब्ध थी जिसका भरपूर उपयोग हम लोगों ने अपनी यात्रा को सुविधाजनक बनाने के लिये किया। यद्यपि में साथ में अपना लैपटॉप भी ले गया था पर आने वाले समय में टीवी स्क्रीन का ही उपयोग कर हम सारे कार्य मोबाइल से ही कर सकेंगे। साथ ही साथ आईक्लाउड के माध्यम से सारे दस्तावेज भी अपलोड या डाउनलोड कर सकेंगे। तब यात्रायें न केवल हल्की होंगी वरन बिना अवरोधों के अधिक रुचिकर और विस्तृत भी होंगी।

पर्यटन के समय वाह्य कारकों पर अत्यधिक निर्भरता मन में बद्धता का आभास देती है। सब व्यवस्थायें पहले से हों और हमें जाकर बस उसमें लटक जाना हो रहते हो, यह मानसिकता न केवल पर्यटन का आनन्द चौपट करती है वरन आपकी इसी निर्भरता का लाभ उठाकर व्यवस्थायें बहुत अधिक धन व्यय करा देती हैं। न्यूनतम व्यवस्थायें और शेष पर्यटन अभियान के रूप में लेने से यात्रायें स्मृतियों में बस जाती हैं। धन का अपव्यय तो फिर भी सहा जा सकता है पर निर्भरता में पर्यटन का आनन्द भी चला जाता है। विकल्प हमारे पास था कि टैक्सी लेकर उस झील तक पहुँचा जाये या नगरीय यातायात का उपयोग किया जाये। निश्चय किया गया कि बस से चलेंगे, टैक्सी के २५-३० युआन की तुलना में किराया मात्र दो युआन, समय  थोड़ा अधिक और पैदल यात्रा भी साथ में। जाते समय जिस स्थान पर उतरना था उसके थोड़ा अधिक पहले ही उतर गये। वापस आते समय रात में देर होने के कारण बस थोड़ी दूर से मिली। दोनों ही चरणों में पर्याप्त पैदल यात्रा हुयी। जब तक जीपीएस पास में था, खोने का भय नहीं था। साथ में मित्र थे, व्यस्त सड़कें और हुटांग की पतली गलियाँ थीं। झील के चारों ओर का चक्कर भी पूरा लगाया, कुल मिलाकर झील की यात्रा आनन्दपूर्ण और रोमांचक बन गयी। सबने यह अनुभव किया कि टैक्सी से जाने आने में उसी उपक्रम में नगर से जुड़ाव कहीं कम होता।

हुआहाई झील
झील बहुत ही सुन्दर थी, वातावरण अत्यधिक रमणीक, वहीं बने रहने को जी चाह रहा था। झील के चारों ओर मेला सा लगा था। जिस गली से होते हुये हम झील के सामने पहुँचे वहाँ पर भीड़ नहीं थी और हमें डूबते सूर्य के मद्धिम प्रकाश में झील का स्फुटित सौन्दर्य देखने को मिला। वहाँ पर दिखने वाली चहलपहल में वहाँ के स्थानीय निवासियों का ही योगदान अधिक था क्योंकि बाहर से आने वाले पर्यटकों की प्रथम पाँच की सूची में हुआहाई झील का नाम नहीं था। केवल हम जैसे उत्साही, साहसिक और ऊर्जावान पर्यटक ही वहाँ अधिक आते होंगे। स्थानीय नागरिकों में भी हर वर्ग के लोग थे। सायं टहलने वाले, मित्रों से बतियाने और गपियाने वाले, नये मित्र ढूढ़ने वाले, भीड़ में अपना अपना एकान्त ढूढ़ने वाले, प्रकृति की चेतना साधने वाले और अपनी चेतना खोने वाले, सभी प्रकार के व्यक्तियों से स्थान भरा पूरा लग रहा था। आधुनिक ढाबों की तरह खाने और पीने के स्थान थे, पर्यटकों को लुभाने के लिये युवा युवतियाँ माइक पकड़े गाना गा रहे थे। कई स्थानों पर आकर्षक नृत्य भी हो रहा था, पर्यटकों की सर्वाधिक भीड़ वहीं पर दिखी।  हम भी वहाँ पर घूमे, हर स्थान पर यथोचित समय दिया, थोड़ा एकान्त देख कर वहाँ बैठे, स्वल्पाहार किया, भारतीय गीत गाये, स्थानीय शिल्पकारी की खरीददारी की और प्रसन्नमना वापस होटल की ओर चल दिये। 

रंगीन चित्रपट
वापस आते समय हम अपने आये हुये मार्ग से भटक चुके थे, रात के दस बज चुके थे, हम जीपीएस से रास्ता ढूढ़ते हुये हुटांग की गलियों से होकर निकले। भय तो नहीं लगा पर गलियों एक विचित्र सी स्तब्धता व्याप्त थी, लगा कि पूरा हुटांग ही अपने इतिहास की अफीम खाये पड़ा हो। हमारे आगे दो युवतियाँ जा रही थीं, हम उन्हीं के पीछे सकुशल बाहर निकल आये।  हुटांग में लोग सदियों से रह रहे हैं और पुराने बीजिंग को अब तक जीवित रखे हुये हैं। आश्चर्य की बात थी कि वहाँ पर घरों के अन्दर शौचादि की व्यवस्था नहीं है और गलियों के अन्त में सार्वजनिक प्रसाधन बनाये गये हैं। रात्रि हो जाने के कारण बस के लिये थोड़ी प्रतीक्षा करनी पड़ी, रात्रि ११ बजे हम लोग वापस होटल में थे। 

बीजिंग से वापस चेन्दू की ओर अगले ब्लॉग में।

8 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (04-09-2016) को "आदमी बना रहा है मिसाइल" (चर्चा अंक-2455) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. सर ,आपका यह यात्रा वृतांत बड़ा ही रोचक है ।आपने इसे ऐसे उकेरा है जैसे लग रहा है कि आप के माध्यम से हम लोग ही यात्रा का आनंद ले रहे हैं।

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  3. अति सुंदर यात्रा वृतान्त सर रोचक तथ्य कुछ और लिखिए चीनियों के बारे में कैसे इतना आगे है हमसे।

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  4. अति सुंदर यात्रा वृतान्त सर रोचक तथ्य कुछ और लिखिए चीनियों के बारे में कैसे इतना आगे है हमसे।

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  5. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (06-09-2016) को "आदिदेव कर दीजिए बेड़ा भव से पार"; चर्चा मंच 2457 पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन को नमन।
    शिक्षक दिवस और गणेश चतुर्थी की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  6. समीचीन एवम् सुस्पष्ट घुम्मकड़ी वृतान्त।

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  7. रोचक है यात्रा वृतांत

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