पर्यटकों को थियानमेन चौक से १ किमी पहले ही बस से उतार दिया गया। थियानमेन चौक के चारों ओर बने पथ पर किसी भी वाहन को रुकने की अनुमति नहीं थी। थियानमेन चौक और उसके चारों ओर के क्षेत्र को छावनी सा स्वरूप दिया था, सैकड़ों की संख्या में सैनिक, सबको शंका की दृष्टि से घूरते सीसीटीवी कैमरे, दो दो बार तलाशी, पासपोर्ट की चेकिंग, लगा कि १९८९ की क्रान्ति के दुस्वप्न वहाँ के शासकों को आज भी आते होंगे। यदि इतनी सुरक्षा व्यवस्था न होती तो संभवतः हमें भी वह नरसंहार की घटना इतनी गंभीरता और प्रचुरता से याद न आती। ४ जून १९८९ की यह घटना उस समय हम छात्रों को अन्दर तक झकझोर गयी थी। युवा मन में ऐसी घटनायें गहरे पैठ जाती हैं। मन में गम्भीरता, उत्कण्ठा, उत्सुकता, क्षोभ, न जाने कितना कुछ चल रहा था।
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थियानमेन द्वार |
थियानमेन चौक पर हर १०० मी पर एक नया रंगरूट सावधान की मुद्रा में डटा था, चिलचिलाती दुपहरी में अविचलित। कोई पर्यटक जब उनकी ओर देखकर फोटो खीचना चाहता था तो वह कदम ताल करता हुआ १५-२० मीटर चहल कदमी कर आता। यही दृश्य दूतावासों के बाहर भी दिखा, वहाँ भी एकदम नये रंगरूट। यह समझने में कठिनाई बो रही थी कि यह उनके प्रशिक्षण का अंग था या उन्हें किसी दण्ड स्वरूप वहाँ खड़ा किया गया था। वहाँ पर्यटक बहुत थे, स्थानीय और विदेशी, दोनो ही। हमारी गाइड हरे रंग की झण्डी लिये आगे चल रही थी, समूह से न बिछड़ने में यह छोटी सी झण्डी पूरी यात्रा में बड़ी सहायक रही। बांग्लादेश के एक समूह से बिछड़ी एक लड़की को हमने उनके समूह से मिलाने में सहायता भी की। दुर्भाग्य से उस दिन धूप अधिक थी, इतने तामझाम और पैदल चलने के बाद लम्बे चौड़े थियानमेन चौक देखने में ही हम सब आधे थक चुके थे। उस समय तक हमें इस बात का आभास नहीं था कि सामने स्थित फॉरबिडेन सिटी कितना बड़ा है।
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फॉरबिडेन सिटी का मानचित्र |
फॉरबिडेन सिटी बीजिंग के केन्द्र में है। मंगोलशासित युआन राजवंश के पतन के बाद मिंग राजवंश राजधानी को नानजिंग से बीजिंग ले आये। फॉरबिडेन सिटी का निर्माण सत्ता के नये केन्द्र के रूप में किया गया। मिंग राजवंश के पश्चात यह क्विंग राजवंश का भी केन्द्र रहा। ई १४०६ से १४२० तक निर्मित इस आयाताकार परिसर का आकार ९६१ मी x ७५३ मी है, लगभग १८० एकड़। पूरा परिसर २६ फीट ऊँची दीवार और उसके पश्चात २० फीट गहरी और १७० फीट चौड़ी खाई से सुरक्षित है। चार दिशाओं में द्वार हैं और चारों कोनों में सुरक्षा टॉवर हैं। दक्षिणस्थित थियानमेन द्वार मुख्य द्वार है, पहले वाह्य परिसर और उत्तरोत्तर अन्तः परिसर, राजभवन, राज-उद्यान व उत्तरी द्वार हैं। १९११ में राजवंशों की समाप्ति के बाद से इस परिसर का उपयोग राजवंशीय संग्रहालय के रूप में किया जा रहा है, १९८७ में इसे यूनेस्को ने वैश्विक धरोहर घोषित किया है।
गाइड ने बताया कि इसमें कुल ९९९९ कक्ष हैं। सैनिक क्षेत्र, साहित्य क्षेत्र, पवित्र क्षेत्र, बौद्धिक क्षेत्र और शान्त क्षेत्र में बँटे हुये पूरे परिसर में ९८० भवन हैं। सारे भवनों का स्थापत्य लगभग एक जैसा ही था, आकार, क्षेत्र और छतों के रंग के आधार पर उनके उपयोगकर्ता निर्धारित होते थे। पीला रंग राजा का, हरा रंग राजकुमारों का, काला रंग पुस्तकालय का, सांस्कृतिक मान्यताओं के अनुसार। विभिन्न आकार के आन्तरिक द्वार व सभाकक्ष भव्य औऱ व्यवस्थित योजना से आबद्ध थे। टाओ, कन्फ्यूसियस और बुद्ध शैलियों के रहस्यों से भरे कई भवनों की कथा हमारे गाइड ने सुनायी। वहाँ के दरवाजों में ९x९ के कुल ८१ कुण्डे लगे थे जिनका अभिप्राय हमें समझ नहीं आया। यहाँ पर लकड़ी, पत्थरों, धातुओं आदि से बनी जितनी कलाकृतियाँ रखी हैं उसके ठीक से देखने के लिये ४-५ घंटे का समय चाहिये। हमारे पास २ घंटे ही थे। एक अधिकारी जो वहाँ एक बार आ चुके थे, उनकी सहायता से हमने चुने हुये भवन, कक्ष और कलाकृतियाँ देखीं।
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चीन की दीवार पर एक टॉवर |
अगले दिन चीन की दीवार पर जाना हुआ। उत्तर दिशा से होने वाले मंगोलों और मांचुओं के आक्रमणों से बचने के लिये चीन की दीवार का निर्माण सातवीं शताब्दी ईसा पूर्व से ही प्रारम्भ हो गया था और इसके नवीनतम खण्ड चौदहवीं शताब्दी तक बने। इस प्रकार कई कालखण्डों में बनी यह दीवार रक्षापंक्ति की कई परतों में बनी। निर्माण की दृष्टि से भी इसमें मिट्टी ठोंक कर बनायी गयी दीवार से लेकर पत्थर की विशाल दीवार तक मिलती है। चीन के आधिकारिक आकड़ों के अनुसार इसकी लम्बाई ८८०० किमी है। बीजिंग के उत्तर में जो दीवार देखने हम गये वह इसका नवीनतम खण्ड है और १४वीं शताब्दी में मिंग शासकों द्वारा निर्मित है, प्रचलित चित्रों में इसी दीवार को दिखलाया जाता है। इस दीवार ने २०० वर्षों तक बीजिंग को मंगोलों से बचाये रखा। साथ ही ई १६०० से प्रारम्भ हुये मांचुओं के आक्रमण से भी सतत रक्षा की। १६४४ में जब आन्तरिक विद्रोहियों ने बीजिंग पर अधिकार कर लिया तो मिंग सेनापति ने मांचुओं से समझौता करके इस दीवार का शन्हाई द्वार खोल दिया। मांचुओं ने विद्रोहियों और मिंग सेना को समाप्त कर क्विंग राजवंश की स्थापना की। क्विंग राजवंश ने दीवार के उत्तर में अपने साम्राज्य का विस्तार किया अतः उनके लिये दीवार बनाने और उसे संरक्षित करने का कोई सामरिक औचित्य नहीं रह गया।
यह एक विडम्बना ही है कि जिनसे बचने के लिये चीन की दीवार का निर्माण कराया गया उनके दो राजवंश, मंगोलों के युआन और मांचुओं के क्विंग राजवंशों ने चीन पर ४०० वर्षों से अधिक शासन किया। परिहास में लोग कहते हैं कि जिन्हें रोकने के लिये यह दीवार बनायी गयी थी, उन्हें तो नहीं रोक पायी पर जो नागरिक आक्राताओं के आतंक से बचकर भागना चाहते थे, उनके भागने में यह बाधक बनी रही। इस दीवार ने रेशम मार्ग को भी आक्रमणों से बचाये रखा। मंगोल राजवंशों के समय में इस व्यापारिक मार्ग को सर्वाधिक प्रश्रय मिला।
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चीन की दीवार पर चढ़ाई |
दीवार देखने का आनन्द उस पर ऊपर तक चढ़ना था। चारों ओर पहाड़ों पर विस्तृत फैले दृश्य देखने का आनन्द चढ़कर ही आता है। कई स्थानों पर खड़ी सीढियाँ, कहीं पर सँकरे मोड़, बीच में तनिक विश्राम करने के लिये टॉवर। दीवार के साथ साथ पहाड़ के सबसे ऊपरी भाग में पहुँचने के क्रम में मनोरंजन के साथ पूरा श्रम हो गया। कपड़े स्वेद में नहा गये पर ऊपर बढ़ते रहने का आकर्षण किसी विश्वविजय से कम नहीं लग रहा था। हजारों सीढियाँ और डेढ़ घंटे चढ़ने के बाद जब ऊपर पहुँचे तो पूरा पहाड़ चारों दिशाओं से दिख रहा था। संभवतः ऐसे ही सैनिक दूर से आती सेनाओं को देखते होंगे।
सुरक्षा की भावना कितनी गहरी होती है कि ८००० किमी से भी बड़ी दीवार बना दी जाती है। काश रेशम मार्ग पर स्थित खाइबर दर्रे पर भारत ने कोई ऐसी ही दीवार बनाई होती तो भारत का इतिहास इतना क्रन्दनीय नहीं होता। ५३ किमी लम्बाई के इस दर्रे की चौड़ाई ५०-१०० मी के बीच ही है। सिकन्दर, तैमूरलंग, गजनी, गौरी, चंगेजखान, बाबर, नादिरशाह आदि सारे आक्रमण इसी दर्रे से हुये। चीन की दीवार अब विशुद्ध पर्यटन का कार्य करती है, पाकिस्तान के अधिकार में इस खाइबर दर्रे में अभी भी हथियारों की तस्करी चल रही है। पता नहीं, इतिहास क्या परिहास करता है।
बीजिंग के शेष स्थानों पर अगले ब्लॉग में।
काश रेशम मार्ग पर स्थित खाइबर दर्रे पर भारत ने कोई ऐसी ही दीवार बनाई होती तो भारत का इतिहास इतना क्रन्दनीय नहीं होता।
ReplyDeleteसच कहा आपने .. हम दूरदर्शी होते तो आज विकसित देशों के अग्रिम पंक्ति में नाम होता हमारा ..
बहुत सुन्दर ..रोचक यात्रा संस्मरण ...
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरूवार (01-09-2016) को "अनुशासन के अनुशीलन" (चर्चा अंक-2452) पर भी होगी।
ReplyDelete--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
thank you for enriching us with your experience. look forward to your next post.
ReplyDeleterakesh
सुन्दर यात्रा संस्मरण
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