11.10.14

स्वप्न-सुन्दरी

खड़ी कहीं पर दूर, कल्पना के अनन्त विस्तारों में,
सुख मदिरा में चूर, नियन्त्रित नहीं मनस उद्गारों में,
यौवन से भरपूर , सिमटती नहीं शब्द आकारों में,
स्वप्नकक्ष की अनघ सुन्दरी, जाने कब से बुला रही है ।

पर हूँ मैं असमर्थ मधुरते,
स्वप्नों के सेवक हैं हम सब,
स्वप्नों के महलों में जाकर,
साधिकार नहीं रह सकते ।

हाँ जब वह दिन आयेगा,
स्वप्न रहेंगे शेष नहीं तब,
स्वप्न-भार से मुक्त व्यक्ति,
तब तेरे ही द्वारे आयेगा ।

13 comments:

  1. ---सुन्दर कविता....
    -----स्वप्नों के महलों में ही तो साधिकार रह सकते हैं .....अन्यथा दुनिया में तो प्रत्येक व्यक्ति पराधिकार है ...कभी रिश्ते-मित्र-समाज.-परिवार . , कभी प्रशासन-शासन-अनुशासन-नियमानुशासन , कभी सेवायोजन-कर्म व्यापार .....हेतु..., ..

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  2. पर हूँ मैं असमर्थ मधुरते,
    स्वप्नों के सेवक हैं हम सब,
    स्वप्नों के महलों में जाकर,
    साधिकार नहीं रह सकते ।

    गहरे भाव...

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  3. " ले चल मुझे भुलावा - देकर मेरे नाविक धीरे - धीरे ।
    जिस निर्जन में सागर - लहरी अम्बर के कानों में गहरी
    निश्छल प्रेम - कथा कहती हो तज कोलाहल की अवनि रे।"
    जयशंकर प्रसाद

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  4. Kya baat kya baat...

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  5. अर्थात् करवाचौथ पर ....समुचित व्याख्या।

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  6. हम सपनों के सेवक नहीं सर्जक हैं।

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  7. http://rajubindas.blogspot.in/2014/10/blog-post.html

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