5.2.14

डियर फॉदर

कुछ माह पहले बंगलोर में परेश रावल अभिनीत यह नाटक देखा था, एक टिकट अतिरिक्त था तो प्रशान्त को भी ले गया था। हास्य का पुट लिये और मनोरंजन के थाल में परोसे इस नाटक में संदेश बड़ा ही स्पष्ट था। कभी कभी जो कड़वे सच डाँट कर या उपदेश की भाषा में नहीं समझाये जा सकते हैं, उनके लिये संभवतः यही सर्वाधिक उचित, सार्थक और सशक्त माध्यम है। परेश रावल के अभिनय की कुशलता और भावों के बीच सहज संक्रमण की कलात्मकता ने लम्बे चले इस नाटक में पल भर के लिये अपने स्थान से हिलने नहीं दिया।

समझ आपस की
चार पात्र हैं, पिता, पुत्र, बहू और इंस्पेक्टर। पिता और इंस्पेक्टर का पात्र परेश रावल ने किया है। कहानी बड़ी सीधी है और उसकी आंशिक झलक हर ऐसे परिवार में देखी जा सकती है। पुत्र और बहू दोनों ही नौकरी करते हैं और बहुधा उन्हें सायं घर आते आते देर हो जाती है और थकान भी। पिता वृद्ध हैं, अकेले भी, अपने आप को जितना व्यस्त रख सकते हैं, रखते हैं। घर पर अपना अधिकार समझते हैं और पुत्र और बहू से अपनी आत्मीयता भी। इसी कारण बहुधा वह ऐसी बातें कह देते हैं जो बहू को चुभ सी जाती हैं। उन्हें लगता है कि समाज की मौलिक समझ में पीढ़ियों का अन्तर है, बहू को ससुर की समझ रूढ़िवादी लगती है तो ससुर को बहू की समझ व्यर्थवादी लगती है।

समझ का यही अन्तर हास्य का कारण बनता है। दोनों पक्षों के द्वारा एक दूसरे के तर्कों में से कुतर्क को हटाने से विषय अपने संवादों के माध्यम से स्पष्ट होता जाता है, ससुर और बहू को नहीं वरन दर्शकों को। पति दोनों की इस संवादीय वाणवर्षा में सदा ही बिंधा दिखता है, किसी का पक्ष स्पष्ट रूप से नहीं ले सकता है, किसी बहाने एकान्त ढूँढ लेता है।

इसी बीच पिता बालकनी से गिर कर अस्पताल पहुँच जाते हैं। इस घटना की जाँच करने इंस्पेक्टर आता है और गिरने के सभी पहलुओं का विधिवत अध्ययन करता है, दम्पति का बयान आदि भी लेता है। कहानी गम्भीर होने लगती है। नित्य की बहस तो ठीक थी पर उन्हीं बातों से कोई इंस्पेक्टर कोई आपराधिक निहितार्थ निकालने लगे तो दम्पति का चिन्तित होना स्वाभाविक ही है। यही होता है, पति, पत्नी अपनी बहसों में कटुता के तत्व को न याद रखने की सी बातें करते हैं। इससे यही तर्क कोई पारिवारिक द्वन्द्व न लग विशुद्ध बौद्धिक बहस सी लगने लगते हैं। इंस्पेक्टर इस तथाकथित हृदय परिवर्तन से प्रभावित नहीं होता है और उन दोनों के ऊपर पिता की सुनियोजित हत्या का आरोप लगाता है।

अपने आप को उस आरोप से बचाने के पक्ष में दिये गये तर्क वस्तुतः उनकी आदर्शवादी सोच को दिखाते थे। व्यवहारिकता और आदर्शवादिता का यह नया अन्तर नाटक को एक और स्तर गहरे ले जाता है और संबंधों को समझने में सहायता करता है। दैवयोग से पिताजी को अस्पताल में होश आ जाता है और वह आकर सच बता देते हैं कि कुछ ठीक करने के प्रयास में फिसल जाने से यह दुर्घटना हुयी है। सुखद अन्त की आस थी पर पिता तब अपनी टीस व्यक्त करते हैं।

पिता कहते हैं कि मुझे ज्ञात है कि बहू का पक्ष बहुधा ठीक ही रहता है, पर मेरे अन्दर दिन भर किसी से बात न करने के कारण जो एकान्तजनित अकुलाहट रहती है, वही मुझे उद्धत करती है और मैं जानबूझकर कुछ न होते हुये भी बहस करने योग्य तत्व निकाल लेता हूँ। मुझे इस खटपट में अच्छा लगता है, कुछ व्यस्तता का आभास होता है। पिता तब अपने पुत्र से कहते हैं कि तुम्हें याद है कि पिछली बार तुमने मुझे कब स्पर्श किया था। बचपन से बड़े होने तक स्नेह और आशीर्वाद का संचरण स्पर्श से ही तो होता रहा है। इस स्पर्श की अनुपस्थिति यदि अकुलाहट न भरे तो अस्वाभाविक ही है। संभवतः अभी तुम्हें इस तथ्य की आवश्यकता सहज न लगे पर जीवन की साँझ में यह होने लगता है।

नाटक के अंतिम पड़ाव पर पूरा सभागार गहरी स्तब्धता में था, निश्चय ही बहुत लोग यह सोच रहे होंगे कि पिछली बार कब उन्होंने अपने बूढ़े माता पिता को स्पर्श किया होगा? दर्शकों की प्रतिक्रिया देख उत्तर पाना कठिन नहीं था। कई और सोच रहे होंगे कि स्पर्श के स्नेह में पल्लवित हुये वे कब स्वतन्त्र हो गये और स्पर्श की संवेदना को भुला बैठे। आँखें मेरी भी नम थीं, मैं उस समय अपने बूढ़े माता पिता से दो हज़ार किलोमीटर दूर था।

कभी कभी अधिक बुद्धि के कुप्रभाव में हम तर्क से सुख के बड़े बड़े मानक गढ़ देते हैं, जब कि वास्तविक सुख कहीं अधिक सहज और सरल होता है। लोग कहते हैं कि बच्चे और वृद्धों के स्वभाव में कोई अन्तर नहीं होता है। जहाँ तक स्नेह की बात होती है, कोई अन्तर नहीं होता है। अन्तर यदि होता है तो हठ का। बच्चे पर यदि ध्यान न दिया जाये तो वह धरती आसमान एक कर देता है। वृद्ध अपनी बात कहना तो चाहते हैं पर मर्यादाओं को मन में रख बहुधा मौन होकर अपनी पीड़ा पीना सीख लेते हैं, स्पर्श के स्नेह को अकुलाते रहते हैं।

एक बार अपने बूढ़े माता पिता को सस्नेह स्पर्श तो कीजिये, उनकी त्वचा में स्नेहिल कंपन आने लगेगा, उनकी आँखें नम हो चलेंगी, वर्षों का संचित स्नेह प्लावित हो बहने लगेगा, संबंधों के व्याजाल सुलझने लगेंगे, पीढ़ियों के अन्तर मिटने लगेगा। यही नहीं, आप भी अधिक व्यापक अनुभव करने लगेंगे, संभवतः वैसा ही कुछ, जैसा मैं डियर फ़ादर देखने के बाद अनुभव कर रहा था।

42 comments:

  1. जीवन के यही पक्ष ,इस प्रकार व्यक्त हो कर हमसे कुछ कह जाते हैं - धन्यवाद प्रवीण जी !

    ReplyDelete
  2. वस्तुतः माता - पिता अपने बेटे को तो कुछ नहीं कहते नहीं, कुछ कह नहीं सकते इसलिए बहू को ही सुनाते हैं । बेटा चाहे तो अपने माता - पिता को भरपूर प्यार दे सकता है , उनका ध्यान रख सकता है पर वह भी यही अपेक्षा करता है कि उसकी पत्नी उसके माता-पिता की सेवा करे । पुरुष घर का कोई काम नहीं करता । बेचारी स्त्री की हालत उस गाय के समान हो गई है जो दूध भी देती है और हल में भी जुती हुई है ।

    ReplyDelete
    Replies
    1. सच कहा....कमाने वाली तथाकथित एडवांस स्त्री की यही हालत है....

      Delete
  3. It,s very touch but realistic in our family. Thanks for sharing this.

    ReplyDelete
  4. बचपन से बड़े होने तक स्नेह और आशीर्वाद का संचरण स्पर्श से ही होता है ।।। पर क्या आज की भौतिकतावादी पीढ़ी यह समझ पा रही है यदि कड़े शब्दों में कहा जाए तो शायद माँ बाप भी ड्राइंग रुम में सजावट बन रहे हैं ।

    ReplyDelete
    Replies
    1. क्या बात है....क्या नाटक द्वारा सन्देश देने वाले निर्देशक व कलाकार ...स्वयं यह कर पाते हैं ....

      Delete
  5. संदेश देती नाटक और उतनी ही प्रभावपूर्ण आपकी प्रस्तुति.

    ReplyDelete
  6. ek kaam jo mai roz sabse pahle karta hoon vah hai apne pita ke subah subah charan sparsh

    ReplyDelete
    Replies
    1. जुग जुग जीयो लाल...

      Delete
  7. नाटक , कहानी , सिनेमा कई बार वह समझाता है , जो शब्दों में समझाया नहीं जा सकता !

    ReplyDelete
  8. सहजता और सरलता हमें जीवन की कई ...कठिनाइयों से दूर रखती है ...!!सार्थक सकारात्मक आलेख ...!!

    ReplyDelete
  9. तदानुभूति होना ही नाटक की कामयाबी है। सुरेश रावल मूलतया एक कलाकार है। बांधे रहते हैं कथानक को सजीवता बनाये रहते है।

    ReplyDelete
  10. सबके लिए विचारणीय बात ......

    ReplyDelete
  11. आपका आलेख सबके लिए अनुकरणीय
    हार्दिक शुभकामनायें

    ReplyDelete
  12. मुझे लगता है कि आपके दिल के तारो को अंदर तक झनझना गया ये नाटक ? सही भी है इस आपाधापी में जीवन कहां है

    ReplyDelete
  13. सार्थक नाटक की प्रस्‍तुति को देखने के बाद उपजी यह रचना कई पाठकों को इसके मूल उद्देश्‍य हेतु अवश्‍य संस्‍पर्शित कर चुकी होगी।

    ReplyDelete
    Replies
    1. भावनाओं को स्‍थान दिया जाना चाहिए।

      Delete
  14. आज अपनी बिटिया से जुडी एक घटना पोस्ट की और यहाँ शीर्षक दिखा Dear Father.
    परेश रावल की अदाकारी अब प्रशंसा की सारी सीमाएं लांघ चुकी है। इनके नाटक हमेशा प्रेरणात्मक होते हैं।

    ReplyDelete
  15. प्रेरक सार्थक सन्देश देती सुंदर प्रस्तुति...! आभार प्रवीण जी ...
    RECENT POST-: बसंत ने अभी रूप संवारा नहीं है

    ReplyDelete

  16. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन किस रूप मे याद रखा जाएगा जंतर मंतर को मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

    ReplyDelete
  17. मन को छू गई ...नि‍:संदेह बहुत अच्‍छा नाटक है और सार्थक संदेश भी देता है..

    ReplyDelete
  18. very soft expression ! In fact, earlier I found it difficult to have easy access to your blog. But today I have found the way, so my visits will be frequent.

    ReplyDelete
  19. आपकी समीक्षा पढ़कर लगा की मैं हाल में बैठा नाटक देख रहा हूँ |बहुत ही उम्दा विश्लेषण |आभार सर !

    ReplyDelete
  20. वाह जबरदस्त कथानक, वैसे इस तरह के नाटक के संवादों में संजीदगी रखने के लिये भावनात्मक पक्ष को बहुत ज्यादा प्रधानता दी जाती है ।

    ReplyDelete
  21. सार्थक सकारात्मक आलेख ...!!

    ReplyDelete
  22. वर्तमान यथार्थ .....नाटक आलेख के साथ चलायमान .....सुन्दर

    ReplyDelete
  23. माँ पापा को और क्या चाहिए .......... !! बहुत सुंदर !!

    ReplyDelete
  24. देखकर ऐसा बहुत कुछ समझ में आ जाता है जो सुनकर नहीं आता.

    ReplyDelete
  25. इस दौड़ती -भागती ज़िन्दगी से दो पल निकाल प्यार से उनका हाल-चाल पूछ लें.... इस से ज्यादा उन्हें क्या चाहिए.

    ReplyDelete
  26. @ एक बार बूढ़े माता पिता को सस्नेह स्पर्श तो कीजिये . . . . . .
    आपका आभार , यह संवेदनशीलता जीवन का आधार है, बेहतरीन आलेख ! बधाई !!

    ReplyDelete
  27. Wonderful! Sharing at my facebook @abadhya

    ReplyDelete
  28. man ko bhigo gaya aapka sansmaran.....

    ReplyDelete
  29. बहुत अच्‍छा नाटक प्रतीत हो रहा है। सच है स्‍पर्श में बहुत ताकत है। अच्‍छे अच्‍छे पर्वतों को पिघला सकता है।

    ReplyDelete
  30. दिल को छूता बहुत मर्मस्पर्शी और प्रभावी आलेख...

    ReplyDelete
  31. सार्थक सन्देश देती पोस्ट...

    ReplyDelete

  32. "समझ का यही अन्तर हास्य का कारण बनता है। दोनों पक्षों के द्वारा एक दूसरे के तर्कों में से कुतर्क को हटाने से विषय अपने संवादों के माध्यम से स्पष्ट होता जाता है, ससुर और बहू को नहीं वरन दर्शकों को। पति दोनों की इस संवादीय वाणवर्षा में सदा ही बिंधा दिखता है, किसी का पक्ष स्पष्ट रूप से नहीं ले सकता है, किसी बहाने एकान्त ढूँढ लेता है।

    पिता कहते हैं कि मुझे ज्ञात है कि बहू का पक्ष बहुधा ठीक ही रहता है, पर मेरे अन्दर दिन भर किसी से बात न करने के कारण जो एकान्तजनित अकुलाहट रहती है, वही मुझे उद्धत करती है और मैं जानबूझकर कुछ न होते हुये भी बहस करने योग्य तत्व निकाल लेता हूँ। मुझे इस खटपट में अच्छा लगता है, कुछ व्यस्तता का आभास होता है।

    एक बार अपने बूढ़े माता पिता को सस्नेह स्पर्श तो कीजिये, उनकी त्वचा में स्नेहिल कंपन आने लगेगा, उनकी आँखें नम हो चलेंगी, वर्षों का संचित स्नेह प्लावित हो बहने लगेगा, संबंधों के व्याजाल सुलझने लगेंगे, पीढ़ियों के अन्तर मिटने लगेगा। यही नहीं, आप भी अधिक व्यापक अनुभव करने लगेंगे, संभवतः वैसा ही कुछ, जैसा मैं डियर फ़ादर देखने के बाद अनुभव कर रहा था।"
    सशक्त तदानुभूति कराती अनुभूति भोगा देखा आपने सहभागी हैम भी बने।

    ReplyDelete
  33. aapki is post se hamne bhi naatak dekh liya :)

    ReplyDelete
  34. माँ ,पिता के बारे में ऐसे वृतांत / नाटक / कहानी से ही क्यों लोगों को एहसास हो पता है उनके स्नेह और स्थान का । ऐसा तो कोई पल नहीं होना चाहिए जब आप उन्हें स्मरण न करें ।

    ReplyDelete
    Replies
    1. सच कहा अमित जी ........नाटक कहानी पढ़ देख कर कुछ याद आना और घर आकर फिर वही ढर्रा .... आज के युग की मज़बूरी है जो वास्तव में ओढी हुई मज़बूरी है... अत्यधिक कमाने की चाह की व्यस्तता ....
      ---- परन्तु साहित्य व कला का यही तो उद्देश्य है कि भूले हुओं को राह दिखाएँ ...यदि देख कर ही अपना कर्तव्य याद आये तो भी अच्छा ही है ...देर आयाद दुरुस्त आयद ....

      Delete

  35. पिता कहते हैं कि मुझे ज्ञात है कि बहू का पक्ष बहुधा ठीक ही रहता है, पर मेरे अन्दर दिन भर किसी से बात न करने के कारण जो एकान्तजनित अकुलाहट रहती है, वही मुझे उद्धत करती है और मैं जानबूझकर कुछ न होते हुये भी बहस करने योग्य तत्व निकाल लेता हूँ। मुझे इस खटपट में अच्छा लगता है, कुछ व्यस्तता का आभास होता है।-----
    ----- यह असामान्य व काल्पनिक तथ्य है ..... इतनी उम्र के अनुभवी व्यक्ति से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती.....

    ReplyDelete