जल और भोजन, दो ऐसे तत्व हैं, जो हम ग्रहण करते हैं और इनको आयुर्वेद के सैद्धान्तिक परिप्रेक्ष्य में समझना आवश्यक है। बहुधा जल पीने में हम प्यास को ही प्रेरक मानते हैं, जब प्यास लगी, पानी पी लिया। कब पीना, कितना पीना, कैसे पीना, इस पर कई प्रचलित मान्यतायें हैं जिन्हें सार्वभौमिक मान लिया जाता है, पर गुण और प्रकृति के अनुसार जल के प्रभाव का सम्यक ज्ञान लाभकारी है।
जलं जीवनम् |
जल सभी रसों का उत्पादक है, पाचन प्रक्रिया में भोजन से जो पोषक तत्व सोखे जाते हैं, उन्हें रस कहते हैं, रसों से ही रक्त आदि का निर्माण होता है। जल वैसे तो जिसमें मिलाकर पिया जाता है, उसी के गुण ले लेता है, पर इसके अपने ६ गुण भी हैं, शीत, शुचि, शिव, मृष्ट, विमल, लघु। धरती पर आया जल वर्षा का ही होता है, समुद्र से वाष्पित जल अन्य जल स्रोतों से वाष्पित जल की तुलना में अधिक क्षारीय होता है। वर्षाकाल का प्रथम जल और अन्य ऋतु में बरसा जल नहीं पीना चाहिये। बहता जल पीने योग्य होता है, पहाड़ों और पत्थरों से गिरने से जल की अशुद्धियाँ बहुत कम हो जाती हैं। स्थिर जल के स्रोतों में वही जल श्रेष्ठ होता है जिसे सूर्य का प्रकाश और पवन का स्पर्श मिलता रहे। यदि जल मधुर है तो त्रिदोषशामक, लघु और पथ्य होता है। क्षारीय है तो कफवात शामक, पर पित्त को बढ़ाता है। कषाय हो तो कफपित्त शामक, पर वात को बढ़ाता है।
हर स्थान से निकलने वाली नदियों के जल में कोई न कोई स्थानीय दोष होता है, उसका भी वर्णन वागभट्ट ने ५वें अध्याय में किया है। गौड़, मालवा और कोंकण क्षेत्र से निकलने वाली नदियों में अर्शरोग(बवासीर), महेन्द्र पर्वत ले निकलने वाली नदियों में उदररोग व श्लीपदरोग(हाथीपाँव), सह्याद्रि और विन्ध्य से निकलने वाली नदियों में पाण्डुरोग(एनीमिया) और शिरोरोग, पारियात्र(हिन्दुकुश) पर्वत से निकलने वाला जल त्रिदोष शामक, बल, पौरुष, शक्ति को उत्पन्न करने वाला होता है। इन स्थानों पर रहने वालों लोगों में इस जल से सात्म्य हो जाता है, पर बाहर से आये लोगों में रोग होने की संभावना बनी रहती है।
मन्दाग्नि, गुल्म, पाण्डु, उदररोग, अतिसार, अर्श और ग्रहणी रोग के लोगों को जल कम पीना चाहिये। स्वस्थ मनुष्य को भी अधिक जल नहीं पीना चाहिये, किन्तु ग्रीष्म और शरद में अधिक जल पिया जा सकता है। सामान्यतः शीतल जल का निषेध है, पर मदात्यय(मदिरा से होने वाले विकार), शरीर की ग्लानि, मूर्छा, वमन, परिश्रमजन्य थकावट, भ्रम, प्यास की वृद्धि, शरीर की ऊष्णता, आहार विहार जन्य दाह, रक्तपित्त और विषभक्षण जन्य विकार, इन सबके लिये शीतल जल पीना चाहिये। उष्ण जल, अग्निदीपक, पाचक, कण्ठशोधक, पचने में लघु, उष्ण, वस्ति का शोधक होता है। दक्षिण भारत के कई स्थानों पर भोजन के साथ गुनगुना पानी देते हैं, संभवतः उनकी परम्पराओं में यही गुण और सूत्र रहे होंगे। शीतल जल ६ घंटे में, गर्म कर ठंडा किया ३ घंटे में और गुनगुना जल १ घंटे में पच जाता है। गर्म कर ठंडे किय जल कफकारक नहीं होता है।
९० प्रतिशत रोगों का कारण हमारा पेट है। पेट में भोजन और जल ही जाते हैं। कितना भोजन किया, यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना कि कितने प्रतिशत भोजन पचा। समुचित पाचन ही स्वास्थ्य का साधन है। कोई भी अन्न पहले सूर्य के प्रकाश में पकता है, उसके बाद रसोई में अग्नि की आँच में पकता है और अन्त में आमाशय में भी जठराग्नि में पचता है। पेट में भोजन जाते ही जठराग्नि प्रदीप्त हो जाती है और तब तक रहती है, जब तक भोजन पच नहीं जाता है। श्रमशील व्यक्ति में एक घंटा, सामान्य व्यक्ति में डेढ़ घंटा और ठंडे स्थानों में रहने वालों के पेट में दो घंटे तक यह जठराग्नि प्रदीप्त रहती है। इस समय यदि पेट में जल गया तो वह जठराग्नि को मन्द या ठण्डा कर देगा और भोजन अपच रह जायेगा। यही अपचा भोजन सारे रोगों की जड़ है, डकार से लेकर, एसिडिटी, मोटापा, रक्त अम्लता, जोड़ों का दर्द, हृदयाघात और कैंसर जैसे भीषण रोग इसके कारण होते हैं। यदि भोजन ठीक से पच गया तो कभी कोई रोग हो ही नहीं सकते हैं। भोजन के बाद वात बढ़ना संकेत है, उसे उपेक्षित न करें, वात सूक्ष्म होती है और हर अंग प्रभावित करने में सक्षम भी।
यही कारण है कि भोजन के तुरन्त बाद पिये जल को विष माना गया है। भोजन के एक घंटे पहले और डेढ़ घंटे बाद तक जल नहीं पीना चाहिये। भोजन के पहले पिया जल शरीर को कृशकाय बनाता है और बाद में पिया जल शरीर में स्थूलता लाता है। भोजन करते समय, भोजन अटकने पर एक दो घूँट जल लिया जा सकता है। दो अन्नों के सन्धिस्थान(रोटी और चावल के बीच में) पर भी एक दो घूँट जल लाभदायक होता है क्योंकि दोनों अन्नों के लिये भिन्न एन्जाइमों का स्राव होता है। यदि भोजन के साथ कुछ तरल लेना हो तो सुबह फलों का रस, दोपहर में छाछ और रात में दूध लिया जा सकता है। यद्यपि इनमें भी पर्याप्त जल होता है पर जल जिसमें मिलता है, उसके गुण ले लेता है।
पानी कैसे पियें? पानी को घूँट भर भर कर पानी पियें, जैसे गरम दूध पीते हैं। मुँह में क्षार बनता है, लगभग एक लाख ग्रन्थियाँ हैं और एक दिन में कई लीटर तक लार बनती है। पेट में अम्ल बनता है, जो पाचन में ही सहायक होता है। कहते हैं कि यदि पेट सामान्य रहे तो १०० वर्ष तक निरोग जिया जा सकता है। घूँट घूँट पिये पानी से अधिक लार अन्दर जायेगी जो पेट की अम्लता को शमित करेगी। तेज गति से पीने से भी अम्लता कम होगी पर उतनी मात्रा में नहीं। पशुओं को देखें कि वे भी ऐसे ही पीते हैं, चिड़िया बूँद बूँद पीती है, कुत्ता चाट चाट कर पीता है। लार विश्व की सबसे अच्छी औषधि है, इसको अन्दर जाते रहना आवश्यक है। पशुओं को देखिये, वे तो चाट कर अपने घाव तक ठीक लेते हैं। त्वचा के कई रोगों के लिये सुबह की लार अमृतसम है। जो लोग पान मसाला, गुटका, तम्बाकू आदि खाकर थूकते रहते हैं, उनसे बढ़ा अभागा कोई नहीं। एक ही स्थिति में थूक सकते हैं, जब कफ अधिक बढ़ा हो। तो पान खाने वाले क्या करें? पान बिना कत्था और सुपारी के साथ खायें और अन्दर ले लें। पान पित्त और कफ का नाशक है, चूना वात नाशक है, तो यह संयोग तीनों दोषों का निवारण करता है, पर पान देशी हो, तनिक कसैले स्वाद वाला।
पानी कैसा पियें? शीतल जल तो कभी न पियें, सामान्य तापमान का ही पियें, गुनगुना पानी पियें। पेट में ठंडा पानी जाने से शरीर का तापमान कम होता है और पेट में ऊष्मा पहुँचाने के लिये सारा रक्त पेट की ओर बहता है तो शरीर अपनी पूरी क्षमता से कार्य नहीं करता है। अधिक ठंडा पीने वालों को कब्ज की भी समस्या रहती है, क्योंकि ठंडे पानी का पृष्ठतनाव(सर्फेस टेंशन) अधिक रहता है, उससे आँतें संकुचित हो जाती है और मल का प्रवाह रोकती है।
सुबह उठते ही पानी पियें, बिना कुल्ला किये हुये, इसे ऊषापान कहते हैं। यदि ताँबे के बर्तन में रात भर का रखा जल हो तो अच्छा, नहीं तो जल गुनगुना कर लें। मात्रा लगभग एक लीटर, घँूट घूँट कर और धीरे धीरे। रात भर सोते समय सारी क्रियायें शिथिल हो जाती हैं, पर लार बनने की प्रक्रिया चलती रहती है, ब्रह्ममुहूर्त में बनी लार सर्वोत्तम होती है। इस लार का उपयोग चिकित्सा के लिये भी होता है। डायबिटीज के रोगियों के घाव ठीक करने में यह लार बड़ी उपयोगी होती है। चश्मे उतारने के लिये सुबह की लार आँखों में लगाने से अद्भुत लाभ हैं। लार में वह सब कुछ है जो माटी में है, जो शरीर में है, यही कारण है कि त्वचा में लगे दाग आदि भी इस लार से चले जाते हैं।
पानी खड़े होकर कभी न पियें, सदा ही बैठकर पियें, कहते हैं कि खड़े होकर जल पीने से गठिया आदि रोग हो जाते हैं। भार के अनुसार पानी पीना चाहिये। अपने वजन को दस से भाग देकर उसमें दो घटा दें, उतना लीटर पानी एक दिन में पिये, ७० किलो के व्यक्ति के लिये ५ लीटर। प्यास एक वेग भी है, कभी न रोकें, शरीर में जल की कमी होते ही वह रक्त से वह कमी पूरी करने लगता है।
जल जीवन है और जीवन का यह रूप जानना आवश्यक है। अगली पोस्ट में भोजन और आयुर्वेद।
चित्र साभार - www.h2o2.com
भोजनान्ते जलम् विषम् ।
ReplyDelete'जल' जीवन पद्धति का एक आदर्श भी है । मनुष्य को जल की भांति व्यवहार करना चाहिए । इतना महत्वपूर्ण होते हुए भी सभी में घुल जाता है और सभी को अपने में घोल भी लेता है । "जैसा पात्र वैसा ही आकार" ।
ReplyDeleteलाभप्रद आलेख | आपके पाठको को हमेशा ऐसी आलेखो की इंतजार रहती है| आपको कोटी-कोटी नमन् |
ReplyDeleteजल चिकित्सा कि जानकारी थी लेकिन आपने कुछ और जानकारी दे दिया ,आभार।
ReplyDeleteबराबर पढ़ रही हूँ -सब समझ में आ रहा है .
ReplyDeleteदूध, दही, घृत आदि का सेवन ना भी किया जाये तो जीवन चल सकता है, किन्तु यदि जल का सेवन नहीं किया तो जीवन कुछ ही क्षण में समाप्त हो जाता है ।
ReplyDeleteबहुत ही रोचक एवं लाभप्रद आलेख.
ReplyDeleteएक सहज और सुग्राह्य शृंखला!!
ReplyDeleteविस्तृत और लाभप्रद जानकारी, धन्यबाद
ReplyDeleteइस रोचक व् ज्ञानवर्धक उपयोगी आलेख के लिए आभार.....बहुत कुछ जानने को मिला जो हमारे लिए नया था ....
ReplyDeleteधन्यवाद.....
सामान्यतः चिकित्सक ढेर सारा पानी पीने के सलाह देते है , मगर यह सब पर माफिक नही है! एक रिश्तेदार को समझा कर थक गयी!
ReplyDeleteहृदय रोगियों को अधिक पानी नहीं पीना चाहिए !
उपयोगी जानकारी !
उपयोगी जानकारी देता ....
ReplyDeleteएक बेहतरीन आलेख
बहुत सुंदर व प्रभावाी । मैं बहुत शांत व मनोृोयोग से आपके पिछले संबंधित पोस्ट पढ़ रहा हूँ और इतना ही कह सकता हूँ कि इतने ज्ञानमयी लेख के लिये आपका आभारी हूँ ।
ReplyDeleteजल के सेवन के संबंध में जो जानकारी दी है वो बेहद उपयोगी है..मैं तो इस पोस्ट को फोटोकॉपी कराके अपने कुछ शुभचिंतकों को भेंट करने की सोच रहा हूं..उत्तम विश्लेषण।
ReplyDeleteबहुत ही ग्यानवर्धक लेख.
ReplyDeleteइतनी जानकारियां एक साथ मिलीं,सभी आयामों के माध्यम से,
धन्यवाद.
इन जानकारियों को दैनिकचर्या में शामिल करनी चाहिये.
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन देश-सेवा ही ईश्वर-सेवा है - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
बहुत ही उम्दा ज्ञानवर्धक जानकारी देता आलेख...! आभार
ReplyDeleteRECENT POST - फागुन की शाम.
अत्यंत ज्ञानवर्धक । दुर्भाग्य यह कि हम आज भी जल को जीवन नहीं मान पा रहें है
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 27-02-2014 को चर्चा मंच पर दिया गया है
ReplyDeleteआभार |
अच्छी जानकारी दी है जी
ReplyDeleteअत्यंत ज्ञानवर्धक जानकारी दी है ! आभार |
ReplyDeleteअति सुंदर, सरल और उपयोगी लेख
ReplyDeleteबहुत उपयोगी लेख..आभार !
ReplyDeletebahut hi umda jankari , hum to deewane ho gaye aapke
ReplyDeleteउपयोगी जानकारी ,बेहतरीन आलेख
ReplyDeleteबहुत लोगो को लाभ पहुंचा होगा ,गलतफहमी दूर हुई होगी
ReplyDeleteकल 28/02/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
ReplyDeleteधन्यवाद !
अच्छा आलेख है परन्तु बहुत सी भ्रांतियां हैं....यथा...
ReplyDelete१.धरती पर आया जल वर्षा का ही होता है, समुद्र से वाष्पित जल अन्य जल स्रोतों से वाष्पित जल की तुलना में अधिक क्षारीय होता है। वर्षाकाल का प्रथम जल और अन्य ऋतु में बरसा जल नहीं पीना चाहिये।
---वाष्पित जल न क्षारीय होता है न अम्लीय ..यह वैज्ञानिक तथ्य है ...वर्षा का प्रथम जल इसलिए नहीं पीना चाहिए कि उसमें वायुमंडल में उपस्थित अशुद्धियाँ आदि घुल जाती हैं ...यूं तो वह शुद्ध वाष्पित जल होता है |
२.इन स्थानों पर रहने वालों लोगों में इस जल से सात्म्य हो जाता है, पर बाहर से आये लोगों में रोग होने की संभावना बनी रहती है।
----- ये रोग जल में उत्पन्न विभिन्न कीड़ों या घुल जाने वाले रसायनों के कारण होते हैं..स्वयं जल के कारण नहीं ...अतः स्थानीय या बाहरी सभी पर समान प्रभाव होता है ....स्थानीय लोगों में ही रोगों की सतत उत्पत्ति होती है ....
३.शीतल जल ६ घंटे में, गर्म कर ठंडा किया ३ घंटे में और गुनगुना जल १ घंटे में पच जाता है।
---जल का पाचन कहाँ होता ..वह तो स्वयं शारीरिक आवश्यकता या भोजन के पाचन में सहायक होता है ...
४.भोजन के एक घंटे पहले और डेढ़ घंटे बाद तक जल नहीं पीना चाहिये।
--- प्राकृतिक कहावत है.....पहले पीये जोगी,बीच में पीये भोगी, पीछे पीये रोगी ...
५.घूँट घूँट पिये पानी से अधिक लार अन्दर जायेगी जो पेट की अम्लता को शमित करेगी। तेज गति से पीने से भी अम्लता कम होगी पर उतनी मात्रा में नहीं। पशुओं को देखें कि वे भी ऐसे ही पीते हैं, चिड़िया बूँद बूँद पीती है, कुत्ता चाट चाट कर पीता है।
---- पेट की अम्लता भोजन के पाचन हेतु होती है उसे शमित थोड़े ही करना होता है ...अधिक पानी पीने से अम्लता कम होजाने से पाचन में गडबडी होती है...चिड़िया बूँद-बूँद इसलिए पीती है कि वह उतना ही पी सकती है, कुत्ता भी चाट चाट कर इसलिए पीता है कि वह उसी प्रकार पी सकता है घूँट भरकर नहीं ...
आपके भ्रम भी दूर हो जायेंगे, अष्टांगहृदयम पढ़ना प्रारम्भ करें। आप तो डॉक्टर हैं, अधिक वैज्ञानिक तरह से समझेंगे। फिर भी..
Delete१. कौन सा जल गांगेय है और कौन सामुद्रिक, पता करने के लिये प्रयोग लिखा है।
२. सहमत, तथ्य बताये गये हैं। वनस्पतियाँ भी कारण हो सकती है।
३. पीकर देखें, गरम जल स्वयं भी शीघ्र पचता है और पाचन में सहयोग भी करता है।
४. प्राकृतिक कहावत का कोई स्रोत तो होगा, संभवतः ३००० वर्ष पुराना।
५. मुँह में हजारों की संख्या में ग्रन्थियाँ निष्प्रयोजनीय तो नहीं ही होंगी। लार अन्दर जाने के लिये यही संभवतः सर्वोत्तम उपाय है।
--पढ़ कर देखते हैं मुझे नहीं लगता कि ऐसी मूल भ्रांतियां उसमें होंगी...
Delete----लार स्वयं एक पाचक रस है जो मुंह में ही पाचन क्रिया प्रारम्भ कर देती है ....आमाशय में वह सक्रिय नहीं रहती ..
.--- आयुर्वेद स्वयं इतना पुराना है यह अर्वाचीन कहावत भी वैद्यक- विधा की है...एक कहावत और है ...एक बार जोगी, दो बार भोगी , तीन बार रोगी ..
.---नहीं भाई जल स्वयं पचता नहीं अवशोषित होता है ...
bahut he ache post hai :)
ReplyDeletehum sab ko bht faida hoga iise
अच्छा आलाेख लेकिन कुछ बाते जो डॉ श्यामजी उठाये हैं उनमे पहला ...वाष्प न तो क्षारीय होता है न अम्लीय, यह सही है ,वाष्प जब पानी का रूप लेता है तब हवा में उपस्थित कॉर्बन डाई ऑक्साइड और ददुसरे गैस उनमे मिल जाते है और इसे अम्लीय या क्षारीय बनादेता है, वर्षात के पहली वर्षा अत्यधिक अम्लीय/प्रदूषित होता है क्योकि हवा में अधिक मात्र में गैस और धूलकण होता है !
ReplyDelete@ गरम पानी घुलनशीलता को बढ़ाता है ,इसीलिए यह हाजमा को मदत करता है एक उत्प्रेरक के रूप में | भोजन सरावराह में मददगार है|
@कुछ बातों पर आधुनिक तरीके से अनुसन्धान की आवश्यकता है ,उस से भ्रांतियां दूर हो जाएंगी |
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स्वाभाविक है, परिवेश का प्रभाव पड़ता है। सामुद्रिक जल समुद्र से वाष्पित होता है, वहाँ के वातावरण के तत्व उसमें घुलते होंगे। गांगजल अन्य भाग से वाष्पित होता है, उसका परिवेश भिन्न होगा। अष्टांगहृदयम् के पंचम अध्याय में दोनों में भेद करने का सरल सा प्रयोग दिया गया है। बरसे जल को भात में डाल दें, यदि ५-६ घंटे में विकृति आती है तो वह सामुद्रिक जल है। गांगजल से कोई विकृति नहीं आती है और वह श्रेष्ठ होता है। शेष तथ्य भी हजारों साल पुराने हैं, सत्य हैं, आधुनिक विज्ञान उन्हें अपनी तरह से समझ सकता है। आयुर्वेद सदियों से लाभ देता रहा है, आज भी दे रहा है।
Deleteभाई वाष्पित होने पर जल में कुछ भी नहीं घुलता ...वह शुद्ध H2O होता है...
Delete---वाष्पित होने के पश्चात कोइ भी जल न गांगेय रहता है न सामुद्रिक ..वह अपने घुलनशील तत्वों की गुणशीलता खोदेता है...शुद्ध, आसवित, न्यूट्रल जल H2O होजाता है.. ...किसी भी बरसे जल को भात में डालने पर ५-६ घंटे में तो उसमें विकृति आ ही जायेगी ...
----यह तो सत्य ही है कि गांगजल में कोई विकृति नहीं आती है और वह श्रेष्ठ होता है.परन्तु गंगा से प्राप्त किया हुआ मूल गंगाजल ।...
सही कहा कालीपद जी ..दर्शन, धर्म आदि मूल ज्ञान की बात और है ..परन्तु .प्राचीन तकनीकी व प्राविधिक ज्ञान को समय समय पर नवीनीकरण व अनुसंधान आवश्यक है ....
Deleteइस श्रृंखला को पुस्तकाकार रूप दे दीजिये
ReplyDeleteबेहतरीन आलेख , ज्ञान वर्धक और सहज एवं सरल .. उम्दा लेखन
ReplyDeleteजल पर ज्ञानवर्धक लेख....थोड़े दिन पहले ही गुनगुने पानी का महत्व समझा है और अब बहुधा पीते हैं.बहुत लाभकारी है यह .
ReplyDeleteबहुत अच्छा। सर्वोत्तम कार्य कर रहे हैं आप। जिहवा की लार आंखों के अन्दर लगानी है या बाहर?
ReplyDeleteआँखों के काले सर्कल के लिये तो उस जगह पर लगाने हैं। आँखों की ज्योति बढ़ाने के लिये कहाँ लगाना है, जानकार से पता कर के बताते हैं।
Deleteशकुन्तला नोनी के टिप्पणी से सहमत और आपके उपयोगी लेख हेतु प्रणाम स्वीकारें
ReplyDeleteआयुर्वेद का छोटा-छोटा सूत्र हमारे संस्कार में रचा-बसा है .इसके संवाहक को ह्रदय से नमन और पुष्टि करने हेतु आपका आभार .
ReplyDeleteसादर प्रणाम |
ReplyDeleteबहुत कुछ सिखने को निरंतर मिल रहा हैं ,आभार |
बढ़िया लेख है. प्रयोग करके देखता हूँ. :)
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