21.11.12

शिक्षा - अर्थ व समाज

औपचारिक व अनौपचारिक शिक्षा का स्वरूप तथा शिक्षा के उद्देश्यों की समझ ही पर्याप्त न होगी यदि हम उसे आधुनिक अर्थतन्त्र और समाज की गतिमयता से न जोड़ें। जो भी संपर्कसूत्र हैं और जिन सिद्धांतों पर शिक्षा, अर्थ और समाज संवाद स्थापित किये हुये हैं, उन पर गहनता से विचार की आवश्यकता है। यदि इन बिन्दुओं का समुचित विश्लेषण किया जा सके तो उन परस्पर प्रभावों को उभारा जा सकता है जो वांछित हैं और उन पर नियन्त्रण गाँठा जा सकता है जो सबके लिये हानिप्रद हैं। विश्लेषण हेतु विषय केवल औपचारिक शिक्षा तक ही सीमित रखा जायेगा।

शिक्षा के तीन उद्देश्य मात्र बौद्धिक कल्पनाशीलता में नहीं जी सकते हैं। उन्हें भौतिक धरातल में लाने के लिये एक तन्त्र स्थापित करना होता है, साधन आवश्यक हैं, समाज को प्रतिभागिता भी आवश्यक है, जिनको लाभ मिल रहा है और जो लाभ पहुँचा रहे हैं, दोनों के लिये। शिक्षा से समाज की अपनी अपेक्षायें हैं, विद्यार्थियों के अपने सपने हैं, शिक्षातन्त्र कहाँ तक इन दोनों को साथ साथ निभा पा रहा है, अर्थतन्त्र का स्वरूप किस तरह इस पूरी रचना को अस्थिर कर रहा है, ये सब बड़े ही रोचक बिन्दु हैं, इन सबको पृथकता से और भलीभाँति समझ कर ही शिक्षा पर कुछ साधिकार कहा जा सकता है।

भले ही विश्व के समस्त तन्त्रों को रचने और चलाने में शिक्षा का सहयोग रहता है, पर शिक्षा के लिये स्थापित तन्त्र में भी तीन प्रमुख विमायें हैं। शिक्षार्थी, शिक्षक और शिक्षा-सामग्री। शिक्षक के लिये शिक्षण एक व्यवसाय है, उसे अपना घर चलाना है, साथ ही साथ उनके ऊपर बच्चों के भविष्य का महत उत्तरदायित्व है। यदि गुणवत्ता न साधी जायेगी तो पूरी की पूरी पीढी हाथ से निकल जाने का भय है। गुणवत्ता साधने के लिये योग्य और कुशल शिक्षकों को लाना होगा, एक विषय जो सीधे सीधे समाज के आर्थिक पक्ष से जुड़ा है।

बच्चे के लिये भविष्य में धन कमाने के अतिरिक्त स्वयं को स्थापित करने की चाह अधिक महत्वपूर्ण है, उसके स्वप्न और अभिरुचि के अनुसार चल सकने की चाह, समाज को सार्थक योगदान दे सकने की चाह। शिक्षा सामग्री जहाँ एक ओर समाज की दिशा निर्धारित करती है वहीं दूसरी ओर शेष विश्व तन्त्रों को भी पोषित करने में सहायक है।

अब अर्थतन्त्र के दृष्टिकोण से देखा जाये तो पूरा विश्व माँग और आपूर्ति के चक्र पर चलता है। जिसकी माँग अधिक उसका मूल्य अधिक, जिसका मूल्य अधिक उस ओर सबका झुकाव अधिक, अधिक झुकाव अधिक आपूर्ति लाता है, अधिक आपूर्ति मूल्य कम कर देती है, तब झुकाव भी कम हो जाता है, तब आपूर्ति कम हो जाती है और माँग बढ़ जाती है। यही चक्र चलता रहता है, अर्थतन्त्र घूमता रहता है। किसी भी व्यवसाय के दो पक्ष शिक्षा से पोषित होते हैं, एक है तकनीक, दूसरे हैं प्रशिक्षित कर्मचारी। जिसकी माँग अधिक होती है, उससे सम्बन्धित तकनीक में अनुसंधान और उसमें शिक्षित युवा, दोनों ही उफान पर पहुँच जाते हैं। उस क्षेत्र में अधिक अवसर और धन, और उसके प्रति समाज का रुझान।जिन क्षेत्रों से माँग नहीं आती है पर संभावनाओं से भरे हुये है, उन क्षेत्रों का कोई नामलेवा भी नहीं है।

शिक्षक क्या गुणवत्ता दे पा रहे हैं, बच्चों की क्या आकाक्षायें हैं, समाज क्या चाहता है और अर्थतन्त्र के वाहक हमें कहाँ लिये जा रहे हैं, इन चारों पाटों में हमारी शिक्षा व्यवस्था पिसी हुयी है। इन चारों की खिचड़ी हमारी शिक्षा सामग्री में दिखायी पड़ती है, कम या अधिक। जब भी बाजार की अर्थव्यवस्था अपना आधिपत्य जमाने लगती है, शिक्षाव्यवस्था धन उत्पन्न करने वाली मशीन का बड़ा अंग बन कर रह जाती है, उसमें पिसते शिक्षार्थी और हताश होते अभिभावक भी उसकी धुरी में घूमने लगते हैं। जब वह क्षेत्र सहसा झटक जाता है, जब उसमें अवसर सिकुड़ जाते है, संसाधन अतिरिक्त हो जाते हैं, तब सब के सब नैराश्य में डुबकी लगाने लगते हैं।

शिक्षातन्त्र की अर्थतन्त्र पर इतनी निर्भरता उचित नहीं है। इसके तीन पक्ष बहुत ही घातक हैं। पहला तो अर्थतन्त्र केवल तकनीकी शिक्षा को सहारा देगा क्योंकि तकनीक अर्थतन्त्र को सहारा देती है। थोड़ी बहुत दिशा प्रबन्धन व वित्तीय शिक्षा को भी मिल जायेगी, पर ये तो उच्च शिक्षा के क्षेत्र हैं, प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा को कौन सहारा देगा तब? दूसरा घातक पक्ष यह होगा कि जब धन लगेगा तो वह फीस के रुप में वसूला भी जायेगा, सक्षम शिक्षा प्राप्त कर लेंगे और निर्धन अक्षम अशिक्षित रह जायेंगे। धन केवल धन को पोषित करेगा, जन को नहीं। तीसरा घातक पक्ष होगा, उन विषयों को लुप्त होना जिनमें किसी भी व्यवसाय में लाभ देने की क्षमता नहीं है, इतिहास, साहित्य आदि जैसे कितने ही विषय अपना अस्तित्व खो बैठेंगे तब।

शिक्षातन्त्र की अर्थतन्त्र पर निर्भरता शून्य भी नहीं की जा सकती है, यदि यह हुआ तो सब कल्पनाशीलता में खो जायेंगे, कर्मशीलता अपवाद हो जायेगी समाज में तब। सम्पर्कसूत्र बनाये रखना आवश्यक है जिससे शिक्षा न केवल अपने उद्देश्यों में सफल होती रहे, वरन शिक्षकों और शिक्षार्थियों के पास पर्याप्त आर्थिक कारण रहें किसी विषय को चुनने के लिये। बाजार आधारित अर्थव्यवस्था का कुप्रभाव कम हो जाता है जब अर्थव्यवस्था का विस्तार बढ़ता है। तब एक क्षेत्र में आयी उठापटक अर्थव्यवस्था, समाज और शिक्षा को अधिक प्रभावित नहीं करती है। शिक्षा का कोई क्षेत्र, कोई भी अभिरुचि ऐसी न रह जाये जिसमें जीवन यापन की संभावना कम हो।

एक बात तो तय है कि सब कुछ बाजार की अर्थव्यवस्था के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है। शिक्षाव्यवस्था के त्यक्त पक्षों में शक्ति लाने का कार्य सरकार का है। सुदृढ़ और सार्वभौमिक आधारभूत शैक्षणिक सुविधायें, सबको शिक्षा, निशुल्क शिक्षा, योग्य और कर्मठ शिक्षकों का चयन, शिक्षकों को यथानुरूप अच्छा वेतन, अर्थव्यवस्था का शिक्षा के अन्य अंगों में विस्तार, ये सब कार्य ऐसे हैं जो शिक्षा को सशक्त करने में सक्षम हैं। ऊर्जा व्यर्थ न हो, व्यक्ति समर्थ हों, यही तो अर्थ है अच्छे शिक्षातन्त्र का। क्या छूट गया तब और कौन सा आकाश रिक्त रह गया, यह मननीय बिन्दु अगली पोस्ट में।

28 comments:

  1. आज भी जो लोग अर्थतन्त्र में विश्वास रखते है उनके लिए साहित्य, इतिहास, संस्कार आदि बेकार बातें है|

    बहुत बढ़िया चिंतन, काश ऐसा चिंतन हमारे राजनैतिक नेतृत्व के मन में हो और वह उसे भौतिक धरातल पर लाने का प्रयास करे|

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  2. आज शिक्षा को दो अलग तरह से देखने की ज़रूरत है,ये है सरकारी और पब्लिक स्कूली शिक्षा ।दोनों के वातावरण और उद्देश्य बिलकुल ज़ुदा हैं ।

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  3. उम्दा विश्लेषण |शिक्षा को समय के अनुरूप ,गतिशील और उपयोगी होना चाहिए |

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  4. आज अच्छी शिक्षा के लिए पैसा आवश्यक है,,,

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  5. अर्थपूर्ण विश्लेषण |

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  6. छात्र ,शिक्षक औ शिक्षण सामिग्री

    तीनों की धुरी खुद शिक्षक है .टीचर है .आप जानते हैं टीचर होना बड़ी बात है .टीचर होना अपडेट रहना है, चौतरफा ज्ञान विज्ञान से सिर्फ अपने विषय या पाठ्य क्रम से बाहर निकलके आउट आफ

    बोक्स

    सोचने कुछ नया करने ,नए के प्रति रूचि पैदा कर सके वही सच्चे अर्थों में शिक्षक है .हमने भी शिक्षण कार्य किया बरसों बरस थोड़ा हटके कुछ करने की कोशिश की भौतिकी से हटके सेहत पर ,बात

    करने

    का ढंग सामिग्री खोजने की तरकीबें ,रोज़ मर्रा के चर्चित विषयों नूतन अन्वेषणों को भी क्लास रूम में जगह दी .टीचर में अगर दम है तो छात्र आयेंगे ही आयेंगे उसे बाज़ीगर ,अभिनेता बनना होगा

    ,हमने भाषा के अलंकरण को पूरी तरजीह दी वही तो सही गहना है आपके व्यक्तित्व का .आप बोलतें कैसे हैं कैसे केरी करते हैं अपने आप को यह सिखलाना शिक्षक का पहला दायित्व है .

    शिक्षण सामिग्री में आज औडियोविज्युअल एड्स की बहुत ज़रुरत है .क्लास में ब्लेक बोर्ड से हटके एक्शन भी होना चाहिए ब्लेक बोर्ड शिक्षा की सीमाएं मुखरित हो चुकीं हैं .

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  7. सटीक प्रस्तुति ।
    शुभकामनायें ।।

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  8. शिक्षा के विषय में गहन विश्लेषण ....

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  9. व्‍यक्ति को अर्थतन्‍त्र का पूरक बनाया जा रहा है, इसलिए सभी को घुडदौड का घोड़ा बनाकर दौड़ाया जा रहा है। जो जितनी दूर तक जाए वह ही उत्तम है।

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  10. विचारपूर्ण अभिव्यक्ति .....

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  11. गहन भाव लिये सशक्‍त आलेख.. .आभार

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  12. अर्थ तंत्र भारी पड रहा है शिक्षा पर !

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  13. पहले निर्धारित करना होगा कि अपनी शिक्षा व्यवस्था से हम आखिर चाहते क्या हैं.बहुत सारगर्भित आलेख.

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  14. The prevelence of taking tutions at every level is fast disintegrating the learning process and probing aswell as self study.Something should be done to arrest this .

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  15. अच्छा विश्लेषण। इस संदर्भ में कुछ महत्वपूर्ण तथ्य , जो मेरे दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, मैं यहाँ कहना चाहूँगा-
    1.शिक्षा निश्चय ही आर्थिक आधार के अतिरिक्त अन्य आधारसतंभों जैसे सामाजिक राजनयिक व्यवस्था, देश की सुरक्षा, सामरिक व्यवस्था इत्यादि इसतरह संकलित उद्देश्य की सहज आधारशिला होती है, किंतु यह भी यथार्थ है कि व्यक्तिगत उन्नति में आर्थिक कारकों का सर्वोपरि महत्व होने के कारण अततः आर्थिक कारक शिक्षा की दिशा के मुख्य कारक स्वाभविक रूप से सिद्ध होते हैं।
    2.शिक्षा का न सिर्फ लघुगामी बल्कि दूरगामी लक्ष्यों की आपूर्ति में भी प्रधानता है। अतः सतत व सर्वांगीण उन्नति के लिये आवस्यक है कि शिक्षा की दिशा दूरगामी लक्ष्यों की पूर्ति को ध्यान में रखकर ही निर्धारित करनी चाहिये ।

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  16. .
    .
    .
    यह बात तय है कि सब कुछ बाजार की अर्थव्यवस्था के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है।


    ...

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  17. बहुत अच्छा विश्लेषण किया है नई पीढ़ी के सर्वांगीण विकास के लिए तथा शिक्षा हर एक वर्ग तक पंहुचने के लिए पद्दति में सुधार की आवश्यकता है पर इसके विपरीत आजकल निर्धनों को सही और अच्छी शिक्षा मिल ही नहीं सकती है शिक्षण संस्थान मनमाना धन वसूलने में लगे हैं सरकारी स्कूलों में इतना ध्यान नहीं दिया जाता किसी भी देश की विकासशीलता में वहां की शिक्षा प्रणाली को सुद्रढ़ बनाना पहला कदम होना चाहिए बहुत बहुत बधाई इस उत्कृष्ट आलेख के लिए

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  18. शिक्षा को लेकर तमाम उहोपोह इसलिए है कि इसकी नींव अर्थतंत्र वाले लोग रख रहे हैं......दूसरे सारा जोर मजदूर, मैनेजर कामगार तैयार करने पर है....पर समाजिक सरोकार से जुड़ी शिक्षा पर अब तक जोर नहीं है..जहां सामूहिकता की भावना का विकास नहीं होगा वहां समाज की उन्नति के बारे में सोचा नहीं जाएगा..जाहिर है कि आमूलचलू परिवर्तन करने से बेहतर है कि शिक्षा के क्षेत्र में लगातार परिवर्तन किया जाए।

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  19. शिक्षा को तो एक मज़ाक बना कर रख दिया गया है -कोई एक कांसेप्ट भी तो हो!

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  20. उर्जा व्यर्थ न हो , व्यक्ति समर्थ हो . शिक्षा की उपयोगिता और उद्देश्य पर सटीक विश्लेषण !

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  21. क्यों नहीं जुड़ सकी है अर्थ तंत्र की नव्ज़ शिक्षा से ,औपचारिक शिक्षा ,शुद्ध बुनियादी शोध अलग थलग पड़ी है प्रोद्योगिकी

    को सब गले लगाएं हैं .

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  22. सार्थक आलेख ...शिक्षा व्यवस्था में एक साम्य लाना ज़रूरी है ......

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  23. प्रवीण जी आपकी सक्रियता ईर्ष्या का सबब हो सकती है किसी के लिए भी .बहर सूरत सलामत रहे यह हाज़िर ज़वाबी और फोकस चौतरफा आपका .शिक्षा हमारे यहाँ अन -उत्पादक खर्ची ज्यादा बनी

    हुई है इनपुट के बरक्स आउट पुट बहुत कम है गुंजाइश है शिक्षा से सेहत दोनों सेक्टरों में .

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  24. अर्थतन्त्र और शिक्षातन्त्र दोनो सहगामी हैं ।

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  25. फ़िलहाल तो सब कुछ बाज़ार की अर्थव्यस्था का ही ग्रास बन रहा है।

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  26. Beautiful analytical post.

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  27. शिक्षा प्राप्ति के लिए अर्थ बहुत जरुरी है|

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  28. आपने उलझन में डाल दिया। शिक्षा को जीवन से जोडा जाना चाहिए या जीवन यापन से?

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