18.5.11

वह बरसात और हमारे कर्म

दोपहर है और जोर का पानी बरस रहा है, सड़कों पर अनवरत पानी बह रहा है। वैसे तो सायं होते ही बंगलोर का मौसम ऐसे ही सड़कों की सफाई करने उतर आता है, आज अधिक कार्य निपटाना है अतः सवेग आया है और वह भी समय से पहले। सहसा सड़कें अधिक चौड़ी लगने लगती हैं। पैदल चलने वाले दुकानों के अन्दर खड़े मुलकते हैं, कोई चाय पी रहा है, कोई सिगरेट। दुपहिया वाहन भी सरक लेते हैं किसी आश्रय को ढूढ़ने जहाँ झमाझम बरसती बूँदों के प्रकोप से बचा जा सके। अब सड़क पर चौपहिया वाहन सीना चौड़ाकर बढ़े जा रहे हैं, निरीक्षण के लिये जाना है, लगता है आज शीघ्र पहुँच जायेंगे।

यह सब होने पर भी एक जगह ट्रैफिक की गति लगभग शून्य सी हो जाती है, कारण समझ नहीं आता है। धीरे धीरे गाड़ी आगे बढ़ती है तो पता लगता है सड़क पर दो फुट गहरा पानी भरा हुआ है, पानी का स्तर थोड़ा कम होता तो ट्रैफिक थोड़ा आगे सरकता। पैदलों और दुपहिया वाहनों के न चलने से उपजी गतिमयी आशा क्षुब्ध निराशा में बदल गयी थी।

देखा जाये तो भौगोलिक दृष्टि से बंगलोर समतल शहर नहीं है, जलभराव की समस्या होनी ही नहीं चाहिये, शहर को साफ कर वर्षा के जल को सहज ही बह जाना चाहिये। पुराने निवासियों से पता लगा कि पहले यह समस्या कभी नहीं रहती थी, सड़के सदा ही स्वच्छ और धूल रहित रहती थीं। सारा का सारा वर्षाजल सौ से अधिक जलाशयों में ससम्मान पहुँच जाता था, कहीं निकट आश्रय मिल ही जाता था। आजकल कुछ बड़ी झीलों को छोड़ दें तो शेष जलाशय विकास की भेंट चढ़ गये हैं, अब वर्षाजल सड़कों पर मारा मारा फिर रहा है।

मनुष्य ने विकासीय-बुखार में जंगल से पशुओं व वृक्षों को बाहर लखेद दिया, अब शहर के जलाशयों से जल को लखेदने का प्रयास चल रहे हैं। पशु निरीह थे, वृक्ष स्थूल थे, उन्होने हार मान ली और पुनः लौटकर नहीं आये और न ही विरोध व्यक्त किया। इन्द्र का संस्पर्श लिये जल न तो हार मानता है और न ही अपने सिद्धान्त बदलता है। कैसे भी हो अपने लिये समुचित आश्रय ढूढ़ ही लेता है। यदि आप जलाशय पाट देंगे तो वह आकर सड़क पर फैला रहेगा, आप कितना भी खीझ लें अपनी भव्य गाड़ियों में बैठकर, विकास का प्रतिमान बनी सड़कों को जलभराव से छुटकारा मिलने वाला नहीं है। जल इसी प्रकार अपना विरोध व्यक्त करता रहेगा।

मुझे लगा जल अपना क्रोध व्यक्त कर बह जायेगा पर अपना पुराना कर्म तो निभायेगा, शहर को स्वच्छ करने का। निरीक्षण कर के लगभग तीन घंटे बाद जब उसी रास्ते से वापस जाता हूँ तो सड़क के किनारे कीचड़ सा पड़ा मिला, लगभग हर जगह। हम अपने गर्व में जल का सम्मान भूल गये तो जल भी न केवल अपना कर्म भूला वरन उल्टा एक संदेश छोड़ गया। जो जल पहले शहर की सड़कों को स्वच्छ कर जाता था, आज अपने विरोध स्वरूप उन्ही सड़कों को गन्दा करके चला गया है, हमारी विकास की नासमझी और अन्ध-लोलुपता पर करारा तमाचा मारकर।

कहाँ एक ओर मंच तैयार था, झमाझम वर्षा का समुचित आनन्द उठाने का, मदमाती बूँदों की धुंधभरी फुहारों पर छंद लिखने का, एक गहरी साँस भरकर प्राकृतिक पवित्रता को अपने अन्दर भर लेने का, पर आज पहली बार वर्षा रुला गयी, हमारे कर्म हमें ढंग से समझा गयी।

61 comments:

  1. आपदा को कर्म और कर्मफल से आदि काल से जोड़ा जाता रहा है। पहले मानव शुचिता, न्याय, परोपकार आदि का पालन नहीं करता था तो वरुण या इन्द्र कुपित होते थे।
    अब यह शब्द बदल कर ग्लोबल वार्मिंग, डिंन्यूडेशन ऑफ जंगल जैसे तकनीकी-देवता वाले हो गये हैं!
    शायद सिद्धांत मूलत वही है - गीता में द्वितीय अध्याय में भी है यह।

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  2. हम अपने गर्व में जल का सम्मान भूल गये तो जल भी न केवल अपना कर्म भूला वरन उल्टा एक संदेश छोड़ गया। जो जल पहले शहर की सड़कों को स्वच्छ कर जाता था, आज अपने विरोध स्वरूप उन्ही सड़कों को गन्दा करके चला गया है, हमारी विकास की नासमझी और अन्ध-लोलुपता पर करारा तमाचा मारकर।
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    यह गुस्सा बहुत बड़ी सच्चाई से रूबरू करवा रहा है..... अभी तो आगे आगे देखिये हमारे कर्म और क्या क्या दिन दिखलाते हैं..... ? आभार इस विचारणीय पोस्ट के लिए

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  3. बात सही है, बैंगलोर में जलभराव की बात सुनकर अजीब सा लगता है।

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  4. तथाकथित विकासीय यात्रा का शायद यही या इससे भीषण पड़ाव है.

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  5. बाक़ी बाद में....
    पहले कुछ पानी दिल्ली भेज दो, 43 डिग्री पर उबला जा रहा है ये शहर.

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  6. बाक़ी बाद में...
    पहले कुछ पानी दिल्ली भेज दो, 43 डिग्री पर उबला जा रहा ये शहर...

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  7. हम बस अपने कर्मों के अलावा बेमौसम से ले कर वार्ड पार्षद तक की दुहाई गा लेते हैं.

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  8. मुझे लगा जल अपना क्रोध व्यक्त कर बह जायेगा पर अपना पुराना कर्म तो निभायेगा, शहर को स्वच्छ करने का। निरीक्षण कर के लगभग तीन घंटे बाद जब उसी रास्ते से वापस जाता हूँ तो सड़क के किनारे कीचड़ सा पड़ा मिला, लगभग हर जगह। हम अपने गर्व में जल का सम्मान भूल गये तो जल भी न केवल अपना कर्म भूला वरन उल्टा एक संदेश छोड़ गया। जो जल पहले शहर की सड़कों को स्वच्छ कर जाता था, आज अपने विरोध स्वरूप उन्ही सड़कों को गन्दा करके चला गया है, हमारी विकास की नासमझी और अन्ध-लोलुपता पर करारा तमाचा मारकर।
    sabkuch badal daala manav ne to uska krodh bhi sahi hai n

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  9. सब आधुनिक नगरों की यही स्थिति है। कोटा के आस पास और कोटा में कुल 16 तालाब थे और किनारे बहती चम्बल। लेकिन अब तालाब उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। नगर की सड़कों मोहल्लों में पानी भरने लगा है। आज इंसान अपनी सोचता है। पहले लोगों को अपने तरीके से बसने दिया जाता है। नगर नियोजन वाले बाद में जन्म लेते हैं।

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  10. Adhunikta ki daud mein Prakarti ke saath ham swayam hi khilwaad karte hain... Aur fir swayam hi rotey hain...

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  11. कर्म का फल नजर आ जाता है इस तरह भी ...

    विकास की भेंट चढ़े जलाशयों की बात तो फिर भी तार्किक हो सकती है , हमारे शहर में तो नाले भी बिल्डर्स की भेंट चढ़ गए हैं !

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  12. कहाँ एक ओर मंच तैयार था, झमाझम वर्षा का समुचित आनन्द उठाने का, मदमाती बूँदों की धुंधभरी फुहारों पर छंद लिखने का, एक गहरी साँस भरकर प्राकृतिक पवित्रता को अपने अन्दर भर लेने का, पर आज पहली बार वर्षा रुला गयी, हमारे कर्म हमें ढंग से समझा गयी।
    बहुत सुंदर आलेख ....!!
    हर स्तर पर चाहे भौगोलिक हो ,सामाजिक हो या किसी भी और परिपेक्ष में ही ले लें ...बंगलोरे जैसे शहर में पानी का जम जाना अब कोई आश्चर्य जनक बात नहीं लग रही है ...पर आपको धन्यवाद इतने सुंदर आलेख को पढ़ कर अब लग रहा है कि हमारे कर्म हमें क्या क्या दिखाते हैं ....कैसे ठहरा हुआ पानी बह जाने के बाद भी कीचड़ ही देता है .....!!!!!
    बहुत खूबसूरती से आपका लेख सकारात्मक सोच कि ओर बढ़ा रहा है ...!!

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  13. आधुनिक नगरो मे ये सच में हमारे कर्मो का फल है। आज सिर्फ छोटे गावोमें वर्षा का आनद उसी तरह मिलता है।
    हम अपने पर्यावरण को सच में आधुनिकता के नाम पर बरर्बाद कर रहे है।

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  14. हद है..बैंगलोर में यह हालत!! सोचा तो न था

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  15. समुचित वर्षा जल निकास की नगरीय व्यवस्था चौपट हो गयी है जलाशयों और नालो के रिहायशी समतल जमीन में बदल जाने से . यथा स्थिति बनी रही तो असमतल जमीन पर बसे शहर भी जल प्लवन की समस्या से रूबरू होंगे .

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  16. हमने सुना था, जल जमाव के कारण वहां एक बार सत्ता ही चली गई थी शासक दल की।
    यह तो आज हर शहर की प्रगति का लक्षण हो गया है।

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  17. प्रकृति के साथ खिलवाड़ करते हम सोंचते ही नहीं कि हम कर क्या रहे हैं ...
    शुभकामनायें !

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  18. जलाशय हो या किसान की ज़मीन, मनमोहनी इकोनॉमिक्स को बस उनकी इतनी ही ज़रूरत है कि सियासत की खेती की जा सके...वरना कंक्रीट के जंगल खड़े करने पर ही सारा फोकस टिका है...क्या आश्चर्य कि देश में जितने भी नए अरबपति सामने आ रहे हैं वो सब रियल्टी एस्टेट से ही जुड़े हैं...

    जय हिंद...

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  19. प्रकृति को विकृत करने का सरवाधिक अपराध हमारी पीढ़ी का है .
    हवा ,मिट्टी पानी सब प्रदूषित ,पशु -पक्षी वन्यजीव सब ख़तरे में हैं ,और सबसे अधिक भोगना होगा हमारी ही आगत संतानों को .कैसी दुनिया छोड़ कर जा रहे हैं उनके लिए हम लोग -हमें जैसी मिली थी उससे कहीं अधिक दूषित ,विकृत ,कृत्रिम .

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  20. जी हा सच है हमने विकास करने की तेजी में सारे परिप्रेक्ष का ध्यान रखना भूल गए हैं. अब हम आगे पीछे कुछ नहीं सोचते.

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  21. विकास के नवीन फार्मूले के कारण वर्षा जल जमीन में ना जाकर सड़कों को रौंदता रहता है।

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  22. बिल्‍कुल सही कहा है आपने ... विचारात्‍मक प्रस्‍तुति ।

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  23. पानी के माध्यम से कर्मो का हिसाब किताब अच्छा लगा |

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  24. सबको कर्मों का फल मिलना तो तय है .. प्रकृति इतनी कमजोर नहीं !!

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  25. जल का स्वभाव के प्रति विवेचना के हेतु आपका स्वभाव भी तरल है

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  26. हम अपने गर्व में जल का सम्मान भूल गये तो जल भी न केवल अपना कर्म भूला वरन उल्टा एक संदेश छोड़ गया। जो जल पहले शहर की सड़कों को स्वच्छ कर जाता था, आज अपने विरोध स्वरूप उन्ही सड़कों को गन्दा करके चला गया है, हमारी विकास की नासमझी और अन्ध-लोलुपता पर करारा तमाचा मारकर।

    isee thour se guzar rahe hai jee.......

    naleeyo ko saaf karke kinare rakhe dher barsaat me bah kar fir naleeyo me mil jate hai.......
    hum aur aap khush ho na ho macchar bahut khush hai....
    sarthak lekhan.

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  27. गंभीर विषय पर आपने जिस तरह से लेखनी चलाई है, बडे शहर की तस्वीर सामने आ गई। ऐसे में अगर लेख में चित्र ना भी होता तो आपने शब्दों में सबकुछ रोचक तरीके से बयां कर दिया। बधाई

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  28. सच कहा आपने ! अभी तो जल हमसे घर के बाहर बदला ले रहा है,जल्द ही घर के अंदर भी यही हाल होना है अर्थात पीने के पानी के भी लाले पड़ने वाले हैं !
    समय रहते हमें और सरकार सभी को चेतना होगा !

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  29. ज्ञानी कह गए हैं...जैसा बोओगे वैसा काटोगे. मगर सुनता कौन है...?

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  30. अब जब पानी बहने के रास्ते रोक कर बडी इमारतें बनने लगें, तो प्रकृति को कैसे दोश दें। हर शहर का यही हाल है.... वैसे भी, २०१२ अधिक दूर नहीं है:)

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  31. Anonymous18/5/11 13:13

    bahut khoob sir!
    .
    .
    .
    shilpa

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  32. प्रवीण भाई जलाशयों का विकास की भेंट चढ़ना एक गंभीर समस्या थी कल भी, और आज भी है|
    आप ने सही विषय को चर्चा में लिया है| इस का एक और पहलू भी है:-

    अपनी बपौती जान कर काटो न तुम जंगल
    इन जंगलों में जंतुओं की बस्तियाँ भी हैं

    जल जो साफ करता था रास्तों को, अब कीचड़ छोड़ के जाता है ..........जस को तस..........सही विवेचना

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  33. हमारी ये हटधर्मिता और नासमझी. विनाश तक ले जायेगी.

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  34. अब जैसा हम बोयेंगे वैसा ही तो काटेंगे………फिर भी कोई समझता नही है क्या करें।

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  35. मुंबई वालों को तो इसकी आदत हो गई है कितनी भी गन्दगी हो पानी भरा हो सभी उसी में काम पर लगे रहते है अपनी नियति मान कर कोई भी इस और ध्यान देने को तैयार नहीं है की ये सब किस कारण है उस का निवारण कैसे किया जाये | विकास की ये दौड़ सभी को नुकसान पहुंचा रही है |

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  36. अनियोजित विकास और विनाश की यही दुरभिसंधि है -यही नियति है !

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  37. गंभीर विषय पर सबकुछ रोचक तरीके से बयां कर दिया। बधाई

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  38. आदमी जो कर रहा है, आने वाली पीढ़ियां तक भुगतेंगी।

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  39. तथाकथित विकासीय यात्रा का शायद यही या इससे भीषण पड़ाव है|धन्यवाद|

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  40. सर वश कुछ नहीं ,विकास रूपी दीप तले अन्धेरा

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  41. Anonymous18/5/11 20:32

    स्वच्छ निर्झरिणी की तरह कल कल करती काम्य चिंतन धारा .. उपदेश और वह भी आनंद पूर्ण ...

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  42. अब जब सब अपना करतब दिखा रहें हैं तो प्रकृति भी पीछे क्यु रहे वो तो हमें सिर्फ आगाह करने आती है की प्रकृति से ज्यादा छेड़छाड़ ठीक नहीं | वो तो अपना कर्तव्य निभाती है अब सरकार अपना काम ठीक से न करे तो उसमे इसका क्या दोष अगर निकास का सही तरीका बनाया होता तो ऐसा कभी न होता |
    बहुत खूबसूरती से बारिश के आगमन को दर्शाया आपने |

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  43. हम प्रकर्ति को नहीं छोड़ते तो प्रकर्ति हमें कहाँ छोड़ेगी

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  44. हर शहर का यही हाल है

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  45. आपको तो बेंगलोर विकास प्राधिकरण का मुखिया होना चाहिए था...कभी कभी इस बात की टीस बहुत होती है की जो लोग कुछ कर सकने की चाह रखते हैं और निरंतर एक क्षण बर्बाद किये कुछ सार्थक करने को सोचते रहते हैं उनको वो स्थान क्यों नहीं देते भगवान जिससे देश और समाज का कुछ भला हो सके...मेरा जीवन भी ऐसे क्षोभ से भरा रहा है.....

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  46. अब तो "आंखों" में छोड़ कर, सब जगह बस पानी ही पानी है ।

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  47. Anonymous19/5/11 15:35

    hamari hi galtiya hain jinake karan
    aaj climate main drastic changes aaye hain
    hamne nature ko cheda hain ped kate,pollution badhaya
    ab nature uska badla to lega ji

    mere blog par bhi aaiyega...
    http://iamhereonlyforu.blogspot.com/

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  48. vikas ke saath saath .......

    jai baba banaras......

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  49. हम अपने गर्व में जल का सम्मान भूल गये तो जल भी न केवल अपना कर्म भूला वरन उल्टा एक संदेश छोड़ गया।

    इस संदेश को भी अगर लोग...अब भी समझें....

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  50. केवल जल ही नहीं , विकास-पीड़ित सभी पंच महाभूत अपना रौद्र रूप यदा-कदा प्रदर्शित करते रहे हैं।

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  51. मनुष्य ने विकासीय-बुखार में जंगल से पशुओं व वृक्षों को बाहर लखेद दिया, अब शहर के जलाशयों से जल को लखेदने का प्रयास चल रहे हैं। पशु निरीह थे, वृक्ष स्थूल थे, उन्होने हार मान ली और पुनः लौटकर नहीं आये और न ही विरोध व्यक्त किया। इन्द्र का संस्पर्श लिये जल न तो हार मानता है और न ही अपने सिद्धान्त बदलता है।



    बहुत बहुत बहुत ही सही कहा आपने....

    प्रकृति के पर क़तर जो मनुष्य तरक्की का दंभ भर रहा है...बस हंसा जा सकता है इसपर...

    बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण...


    कोटि कोटि आभार इस सार्थक पोस्ट के लिए...

    ईश्वर से प्रार्थना है की यह बात लोगों के दिलों तक पहुंचे...और अब भी लोग चेत जाएँ...

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  52. कम से कम अब भी सचेत हो जायं तो कुछ उम्मीद की जा सकती है .....

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  53. कर्मों का सही आकलन करता लेख ...एक समय था जब बैंगलौर सबसे खूबसूरत शहर हुआ करता था ..

    आज भी है पर अब भीड़ बहुत है

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  54. अपने चरमराते इन्फ्रास्त्रक्चर से जूझते शहर अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे है.

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  55. विकासीय-बुखार.क्या शब्द दिए हैं आपने अंधाधुंध शहरीकरण का यही परिणाम है. शानदार रिपोर्ट.

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  56. आप ने सही विषय को चर्चा में लिया है.........

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  57. manav samaj ko prerna deta hua sunder aalekh

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  58. very nice article you write this article in the meaningful way thanks for sharing this.
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