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10.4.13

गोवा, दक्षिण से

जितने लोग भी गोवा आते हैं, अधिकांशतः उत्तर दिशा से अवतरित होते हैं और वहीं से ही घूम कर चले जाते हैं। हम भी कोई अपवाद नहीं, ६ बार जा चुके हैं, या तो उत्तर दिशा से गये या पश्चिम दिशा से। पूर्व से जा नहीं सकते, रह जाता है दक्षिण। जब इतनी तरह से गोवा देख लिया तो इस बार सोचा कि दक्षिण से गोवा देख लिया जाये।

अब तीन प्रश्न स्वाभाविक हैं। पहला कि गोवा में ६ बार देखने के लिये क्या है, दूसरा कि अप्रैल का प्रथम सप्ताह क्या थोड़ा गरम नहीं रहता है और तीसरा कि गोवा तो गोवा है, उत्तर से उतरें या आसमान से, उसमें क्या विशेष है? तीनों प्रश्न ऐसे हैं जिनका उत्तर मुझे एक दिन में नहीं मिला है, पहले प्रश्न के उत्तर में २२ वर्षों का कालखण्ड छिपा है, दूसरे प्रश्न के उत्तर में ३ वर्षों का और तीसरे प्रश्न के उत्तर में ३ दिन का।

पहली बार गोवा गया था तो १८ वर्ष का था, मित्रों के साथ था और उस समय वहाँ की उन्मुक्त संस्कृति देखने की उत्सुकता ही प्रबल थी। मित्रों के वर्णनों ने उसे स्वर्ग से टपका हुआ टुकड़ा सिद्ध कर दिया था। उस बार की यात्रा में तो हम सब बस उसी टुकड़े को ढूढ़ने में हर बीच पर भटके। अतिश्योक्ति को सिद्ध करने में कई दिन लगे पर भटकन के बाद जो थकान हुयी, उसे मिटाने के लिये सागर के अन्दर एक बार जाना ही पर्याप्त था। लहरों पर उतराने में जो आनन्द आया वह बीचों पर ललचायी दृष्टियों के सुख से कहीं अधिक ठोस था। पहले पहल लहरों के थपेड़े ये बताने में प्रयासरत रहे कि मूढ़ कहाँ छिछले में खड़ा है, छिछले में लहरें भी टूटती हैं और आशायें भी। टूटी लहरें भी आपको चोट पहुँचाती हैं और टूटी आशायें भी। लहरों के थपेड़ों ने और अन्दर आने के लिये उकसाया, जहाँ लहरें टूटती नहीं थीं वरन डुलाती थी, ऊपर नीचे, आनन्द में। एक मित्र के साथ अन्दर तक गया, लहरों पर आँख बन्द कर लेटा रहा, कान पानी के अन्दर और कानों में मानों लहरों के स्वर गूँज रहे हों, ऊँची आवृत्ति में सागर के शब्द, स्पष्ट और अद्भुत। आँखों के सामने दिखता सूर्यास्त, लाल आकाश, बादलों पर छिटके लालिमा के छींटे, ध्यानस्थ, जलधिमग्न, निर्विकार, अप्रतिम अनुभव था वह।

मित्रों का स्वर्ग ढूढ़ने आया था और अपना स्वर्ग पा लिया। उसके बाद जब भी कोई आग्रह आया, ठुकरा नहीं पाया, कुछ वर्षों बाद जब भी कुछ समय बिताने का अवसर मिला, गोवा याद आया। अब बीच पर सीमायें तोड़ती संस्कृतियाँ आकृष्ट नहीं करती, अब तो आकृष्ट करती हैं वे सीमायें, जहाँ पर सागर और आकाश आपस में एक दूसरे में विलीन हो जाना चाहते हैं, अनन्त की खोज में। कितना अजब संयोग है, सागरीय और आकाशीय अनंत के एक और मूर्धन्य उपासक को इस बार ही जान पाया, गोवा से मात्र ६० किमी दूर, कारवार में, गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर को। यहीं पर ही उन्हें प्रकृति में कल्पना का अनन्त मिल गया, डूब जाने के लिये, समा जाने के लिये।

धीरे धीरे गोवा-भ्रमण की संख्या बढ़ने लगी। साथ में ही बढ़ने लगा सागर के किनारों पर अन्तहीन और ध्येयहीन भ्रमणों का क्रम। अब किसी से कहेंगे कि अनन्त ढूढ़ने जाते हैं गोवा हर बार, तो कौन आपको गम्भीर समझेगा। धीरे धीरे हमारा कारण गौड़ हो चला है क्योंकि हमारे बच्चों को पानी की लहरों से खेलना भाने लगा है। लहरों का आना, हर बार नये रूप से, हर बार नयी शक्ति से, हर बार नयी ऊँचाई लेकर, यही विविधता बच्चों को भाती है, न केवल भाती है वरन थका भी देती है, पर न बच्चे हारते हैं और न ही लहरें, दोनों के अन्दर अनन्त की शक्ति, दोनों के अन्दर अनन्त का उत्साह। खेल बस अगली बार के लिये टल जाता है, अनिर्णीत। खेलते रहने के लिये और अगली बार आने के लिये एक और गोवा यात्रा।

बच्चों को ही नहीं, लहरों से हमारा भी जुड़ाव विशेष है। लहरों का बनना, सर्प से फँुफकारते बढ़ना, फेन उगलना, किनारों पर नत होकर वापस चले जाना और फिर आना। न जाने पृथ्वी से भावों की क्या तीक्ष्णता है कि जिसका फल किनारों को चूर चूर होकर देना पड़ता है। लगता है पृथ्वी का रूप धर लेना, न सागर को भाया और न ही आकाश को, उसका दण्ड भुगतते हैं किनारे, रेत रेत, चूर चूर। लहरों की जीवटता भाती है, लगातार तब तक आती हैं जब तक आप थक कर चूर न हो जायें। ऊर्जा लेकर वापस आयें तो पुनः उपस्थित, आपको थकाने के लिये। जीभर खेलिये, थकिये, सो जाईये, पुनः आईये, पर निराश मत होईये। आप चाहें न चाहें, जीवन में भी सुख दुख ऐसे ही अनवरत आते रहेंगे, उन्हें स्वीकार कर लीजिये, हर बार और तैयार हो जाईये अगली बार के लिये। दर्शन के ऐसे ही न जाने कितने ही अध्याय दिखते हैं सागर की लहरों में।

सागर के प्रति प्रेम और गोवा के साथ बढ़े परिचय में ही छिपा है दूसरे प्रश्न का उत्तर। भीड़ में अनन्त की उपासना बाधित होने लगती है, सागर का अनन्त मानव-समुद्र के अनन्त से बाधित हो जाता है। कई बार दिसम्बर में गया हूँ, मानवों का आनन्द देखा है वहाँ, सागर का अनन्त भूलने सा लगता है उस कार्निवाल में। दर्शनीय स्थल तो पहली बार में ही देख डाले थे, उनके लिये दिन का वातावरण सुहावना होना अच्छा था। अब तो सागर से साक्षात्कार का समय है, अनन्त की उपासना के लिये सुबह और सायं का वातावरण सागर स्वयं ही सुहावना बना देता है। सुबह और सायं सागर की लहरों पर उच्श्रंखल विनोद, दोपहर और रात को निद्रा निमग्न थकी काया। अब रहा मानसून का समय, उस समय तो सागर अपने ही संवाद में रत रहता है, बूदों की टप टप, टिप टिप और अथाह जलराशि का मिलन। वही समय होता है जब मछलियाँ अपनी जनसंख्या बढ़ाती हैं। उस समय सबकी मनाही होती है, हम भी उस समय कभी नहीं गये। पिछले तीन वर्षों में ही जाना कि मानसून के अतिरिक्त कभी भी गोवा जाया जा सकता है।

इस बार विचार किया कि गोवा को दक्षिण दिशा से देखा जाये, कारण कुछ सहकर्मियों के अनुभव थे, जिन्होने इस यात्रा को बहुत मनोरम बताया था। कार्यक्रम बना कि बंगलोर से मंगलोर होते हुये उडुपी पहुँचा जाये, वहाँ पर श्रीमाधवाचार्य स्थापित श्रीकृष्ण मंदिर में दर्शन, वहाँ से मरवन्थे बीच, मुरुडेश्वर, गोकर्णा और कारवार होते हुये गोवा। सबका अपना समर्थ इतिहास है और जितना पुरातन है उतना रोचक भी है। उन सबके बारे में विस्तृत वर्णन धीरे धीरे शब्द पाता रहेगा, पर एक ओर से सड़क मार्ग और दूसरी ओर से रेलमार्ग में कोंकण की जो झलक मिली है, उससे मन आनन्दित हो गया। कोंकण क्षेत्र मुम्बई के पश्चात थाने से प्रारम्भ होकर मंगलोर तक फैला है, दक्षिण कोंकण देख कर उत्तर कोंकण के सौन्दर्य की कल्पना करना कठिन नहीं है।

तीन दिनों की यात्रा ने इस प्रश्न का उत्तर भी दे दिया कि गोवा के दक्षिण में भी बहुत कुछ देखने को है। अनन्त और असीम का जो आनन्द गोवा के सागर में है, वैसा ही आनन्द गोवा के दक्षिण में स्थित बीचों में भी है, यदि वहाँ नहीं मिलेगी तो चहल पहल और भीड़। निश्चय ही जिन लोगों का सुख भीड़ के साथ परिभाषित होता है, उन्हें वहाँ उतना आनन्द नहीं आयेगा, पर जो एकान्त, अनन्त, प्रकृति के उपासक है, उन्हें ये सारे स्थान बहुत भायेंगे। मुझे आशा है कि आप अगली बार जब भी गोवा आयेंगे, एक पग दक्षिण की ओर भी बढ़ायेंगे।

31.12.11

ध्यान कहाँ है पापाजी ?

ब्लॉगजगत के ताऊजी से सदा प्रभावित रहे अतः पहली बार स्वयं ताऊ बनने पर अपने भतीजे से भेंट का मन बनाया गया। उत्तर भारत की धुंधकारी ठंड अपने सौन्दर्य की शीतलहरी बिखेरने में मगन थी, दिल्ली के दो सदनों की राजनैतिक गरमाहट भी संवादों और विवादों की बर्फ पिघलाने में निष्फल रही, कई ब्लॉगरों के चाय, कम्बल, अलाव आदि के चित्र भी मानसिक ऊर्जा देने में अक्षम रहे। गृहतन्त्र की स्वस्थ परम्पराओं का अनुसरण करते हुये हमने भी उत्तर भारत की संभावित यात्रा का प्रस्ताव भोजन की मेज पर रखा, उपरिलिखित तथ्यों के प्रकाश में हमारा प्रस्ताव औंधे मुँह गिर गया, वह भी ध्वनिमत से। संस्कारी परम्पराओं का निर्वाह करते हुये, उठ खड़े हुये अवरोध के बारे में जब हमने अपने पिताजी को बताया तो उन्होने भी अपने पौत्र और पौत्री की बौद्धिक आयु हमसे अधिक घोषित कर दी, कहा कि इतनी ठंड में आने की कोई आवश्यकता नहीं है। श्रीमतीजी सदा ही बहुमत के साथ मिलकर मन्त्री बनी रहती हैं, तो हम भी निरुपाय और निष्प्रभावी हो ब्लॉग का सहारा लेकर परमहंसीय अभिनय में लग गये।

बच्चों की छुट्टियाँ श्रीमतीजी के हाथ में तुरुप का इक्का होती हैं, आपका हारना निश्चय है। लहरों की तरह उछाले जाते, उसके पहले ही हमने गोवा चलने का प्रस्ताव जड़ दिया। सब हक्के बक्के, संभवतः विवाह के १४वें वर्ष में सब पतियों के ज्ञानचक्षु खुल जाते हों। लहरों के साथ खेलने के लिये भला कौन सहमत न होगा, गोवा-गमन को हमारा निस्वार्थ उपहार मान हमें स्नेहिल दृष्टि में नहला दिया गया, यह बात अलग थी कि हमने भी वहाँ पर अपने एक बालसखा से मिलने की योजना बना ली थी, वह भी बिछड़ने के २५ वर्ष के बाद।

सागर के साथ संस्कृति को जोड़ते हुये, हम लोग हम्पी होते हुये गोवा पहुँचे। हम्पी संस्कृति के ढेरों अध्याय समेटे है और विवरण के पृथक प्रयास का अधिकारी है। गोवा में लहरों का उन्माद उछाह हमारी प्रतीक्षा में था, लहरों के साथ खेलते रहने की थकान, उसके बाद महीन रेत पर निढाल होकर घंटों लेटे रहना, नीचे से मन्द मन्द सेंकते हुये रेतकण और ऊपर से सूरज की किरणों से आपकी त्वचा पर सूख जाते नमककण, प्रकृति अपने गुनगुने स्पर्श से आपको अभिभूत कर जाती है। बच्चे कभी शरीर पर तो कभी पास में रेत के महल और डायनासौर बनाते रहे, जब कभी आँख खुलती तो बस यही लगता कि कैसे यह गरमाहट और निश्चिन्तता उत्तरभारत और विशेषकर दिल्ली पहुँचा दी जाये।

पिछली यात्राओं में चर्च आदि देखे होने के कारण हमने गोवा और उसके बीचों पर निरुद्देश्य घूमने का निश्चय किया। हमें तो लग रहा था कि हम आदर्श पर्यटक के गुण सीख चुके हैं अतः हमारे द्वारा उठाये आनन्द का अनुभव अधिकतम होगा, पर इस यात्रा में भी कुछ सीखना शेष था, वह भी अपने पुत्र पृथु से।

यद्यपि हम छुट्टी पर थे पर फिर भी कार्य का मानसिक भार कहीं न कहीं लद कर साथ में आ गया था। बच्चों को छुट्टी में पढ़ने के लिये कहना एक खुला विद्रोह आमन्त्रित करने जैसा है, पर हम लोगों के लिये छुट्टी में भी अपने कार्यस्थल से जुड़ाव स्वाभाविक सा लगता है। लगता है कि हम सब किसी न किसी जनम में एटलस रहे होंगे और पृथ्वी के अपने ऊपर टिके होने की याद हमें रह रहकर आती है। या ऐसा हो कि हम पतंगनुमा मानवों को कोई डोर आसमान पर टाँगे रहती है और उस डोर के नहीं रहने पर हमारी अवस्था एक कटी पतंग जैसी हो जाती है, समझ में नहीं आता हो कि हम गिरेंगे कहाँ पर।

जिन दिनों हम गोवा में थे एयरटेल की सेवायें पश्चिम भारत में ध्वस्त थीं। नेटवर्क की अनुपस्थिति हमें हमारे नियन्त्रण कक्ष से बहुत दूर रखे थी। अपने आईफोन पर ही हम अपने मंडल के स्वास्थ्य की जानकारी लेते रहते हैं और समय पड़ने पर समुचित निर्देश दे देते हैं। यदि और समय मिलता है तो उसी से ही ब्लॉग पर टिप्पणियाँ करने का कार्य भी करते रहते हैं। न कार्य, न ब्लॉग, बार बार हमारा ध्यान मोबाइल पर, हमारी स्थिति कटी पतंग सी, मन के भाव चेहरे पर पूर्णरूप से व्यक्त थे।

पृथु को वे भाव सहज समझ में आ गये। वह बोल उठे “नेटवर्क तो आ नहीं आ रहा है तो आपका ध्यान कहाँ है पापाजी।“ वह एक वाक्य ही पर्याप्त था, मोबाइल जेब में गया और पूरा ध्यान छुट्टी पर, बच्चों पर, गोवा पर और सबके सम्मिलित आनन्द पर।

15.12.10

गो गोवा

पर्यटन एक विशुद्ध मानसिक अनुभव है। मन में धारणा बन जाती है कि हमारे सुख की कोई न कोई कुंजी उस स्थान पर छिपी होगी जो वहाँ जाने से मिल जायेगी। अब तो घूमने जाना ही है, सब जाते हैं। अब अकेले जाकर क्या करेंगे, सपत्नीक जाना चाहिये। अभी बच्चे छोटे हैं, नैपकिन बदलने में ही पूरा समय चला जायेगा। अब बच्चों का विद्यालय छूट जायेगा, पढ़ाई कैसे छोड़ सकते हैं। अब छुट्टी के समय वहाँ बड़ी भीड़ हो जाती है, वह स्थान उतना आनन्ददायक नहीं रहता है। कुछ नहीं तो कार्यालय में कार्य निकल आता है। 

एक सहयोगी अधिकारी की विदेश यात्रा के कारण अतिरिक्त भार से लादे गये हम छुट्टी की माँग न कर पाये । बच्चों की छुट्टियाँ भी समाप्तप्राय थीं। "आपकी कैसी नौकरी है", यह सुनने का मन बना चुके थे, तभी ईश्वर कृपादृष्टि बरसा देते हैं और हम बच्चों का विद्यालय खुलने के मात्र चार दिन पहले स्वयं को गोवा जाने वाली ट्रेन में बैठा पाते हैं।

सीधी ट्रेन पहले निकल जाने के कारण हम पहले हुबली पहुँचे। वहाँ से गोवा के लिये जिस ट्रेन में बैठे, वह दिन में थी। पश्चिमी घाट को चीर कर निकलती ट्रेन, दोनों ओर बड़ी बड़ी पहाड़ियाँ, 37 किमी की दूरी में ही 1200 मीटर की ऊँचाई खोती पटरियाँ, बीच में दूधसागर का जलप्रपात, कई माह तक बादलों से आच्छादित रहने वाला कैसल रॉक का स्टेशन और हरी परत से लपेटा गया हमारी खिड़की का दृश्यपटल, सभी हमारी यात्रा को सफल बनाने के लिये ईश्वर के ही आदेशों का पालन कर रहे थे।

मानसून पूर्ण कर्तव्य निभा कर विदा ले चुका है। छुटपुट बादल अब अपना कार्य समेट कर पर्यटकों को आने का निमन्त्रण दे रहे हैं, सागर की शीतलता को छील कर उतार लाती पवन हल्की सिरहन ले आती है। पर्यटन की योजनायें बनने लगी हैं। मैं जितना अधिक घूमता हूँ, उतनी अधिक मेरी धारणा बल पा रही है कि हमारे बांग्लाभाषी मानुष ही सबसे उत्साही पर्यटक हैं। वैष्णोदेवी से लेकर कन्याकुमारी तक, जहाँ कहीं भी गया, सदैव ही उनको सपरिवार और सामूहिक घूमने में व्यस्त देखा।

सभी स्थानों को छूकर दौड़ने भागने से घूमने का आनन्द जाता रहता है अतः समय और रुचि लेकर ही स्थानों को देखा। पुराने चर्चों व संग्रहालयों में जाकर अपने पर्यटक धर्म का निर्वाह करने के बाद चार और कार्य किये। ये थे पैरासेलिंग, स्पीड बोटिंग, क्रूज़ और बिग फुट के दर्शन। पैरासेलिंग में बोट में लगी रस्सी के सहारे पैराशूट ऊपर उठता है, बहुत ही सधे हुये ढंग से, बिना झटके के। एक ऊँचाई पर पहुँच कर नीचे के दृश्य सम्मोहनकारी लगते हैं। सबको ही यह अनुभव लेने की सलाह है। स्पीड बोटिंग में लहरों के ऊपर से हवा में उठकर जब बोट पानी में सपाट गिरती है, मन धक्क से रह जाता है। समुद्र की सतह पर टकराने की ध्वनि इतनी कठोर होगी, यह नहीं सोचा था। क्रूज़ में गोवा की उत्श्रंखलता का चित्रण नृत्य व संगीत के माध्यम से हुआ। सूत्रधार ने चेताया कि बिना नाचे आपको क्रूज़ का आनन्द नहीं मिलेगा। हम सबने भी सूत्रधार को निराश नहीं किया। बिग फुट गोवा की संस्कृति, इतिहास व रहन सहन का सुन्दर प्रस्तुतीकरण है।

पाँच नगरीय आबादियों के अतिरिक्त पूरा गोवा प्रकृति की विस्तृत गोद में बच्चे जैसा खेलता हुआ लगता है । भगवान करे इस बच्चे को आधुनिकता की नज़र न लगे।

सुबह सुबह जल्दी उठकर 50 मीटर की दूरी पर स्थित कोल्वा बीच पर निकल जाते थे। विस्तार व एकान्त में लहरों की अठखेलियाँ हमें खेलने को आमन्त्रित करती थीं। हम लहरों से खेलने लगते, पर समय बीतते यह लगने लगता कि लहरें अभी भी उतनी ही उत्साहित हैं जितनी 2 घंटे पहले। गम्भीर सागर किनारों पर आकर पृथ्वी को छूने के लिये मगन हो नाचने लगता है। 26 बीचों में फैला गोवा का सौन्दर्य आपको आमन्त्रित कर रहा है।


अब सोचना कैसागो गोवा।