26.8.21

वनगमन, पर दोष किसका?


मेरे लिये राम का वनगमन विश्व इतिहास में सर्वाधिक उद्वेलित कर देने वाली घटना है, सर्वाधिक हृदयविदारक क्षण है, सर्वाधिक अन्यायपूर्ण निर्णय है।


पता नहीं मैं कहाँ स्थित हूँ? आराध्य राम के निर्णय पर प्रश्न उठाने की धृष्टता कर रहा हूँ। क्या मैं आँख बन्द कर स्वीकार कर लूँ कि राम ने जो निर्णय लिया वह उचित था, वह भी मात्र इसलिये कि राम मेरे पूजनीय हैं, मेरे आराध्य हैं। क्या औरों की भाँति मैं उन्हें भगवान मान लूँ और यह स्वीकार कर लूँ कि उन्होंने जो भी किया वह उनकी लीला थी। यह लीलावादी तर्क बड़ा ही निर्दयी है, अपने राम के कष्ट पर दुख व्यक्त करने का भी अधिकार आपसे छीन लेता है। तब सर्वसमर्थ राम पर दुख व्यक्त करने से राम के सामर्थ्य का अपमान जो होता है। लीलावादी कह सकते हैं कि राम तो ईश्वर थे, उन्हें कौन सा कष्ट? क्या करूँ मैं? सुनता हूँ पर इस तर्क को स्वीकार नहीं कर पाता।


राम का वन जाना मुझे असाध्य कष्ट देता है, जितनी बार प्रसंग पढ़ता हूँ, उतनी बार देता है। क्योंकि मन में राम के प्रति अगाध प्रेम और श्रद्धा है। बचपन से अभी तक हृदय यह स्वीकार नहीं कर सका कि भला मेरे राम कष्ट क्यों सहें? राम के प्रति प्रेम और श्रद्धा इसलिये और भी है कि राम पिता का मान रखने के लिये वन चले गये। विचित्र सा द्वन्द्व है यह, जिस कारण कष्ट हो रहा है उसी कारण श्रद्धा भी हो रही है, प्रेम भी उमड़ रहा है। राम ने कभी भी पिता को न तो दोषी ठहराया और न कभी दोषमुक्त ही किया। उन्होंने पिता की प्रतिज्ञाजनित आज्ञा का पालन भर किया। किस कारण छोटे भाई भरत को राज्य दिया गया और किस कारण राम को बिना अपराध के वनगमन का दण्ड मिला, इस अन्याय पर राम ने कभी कोई प्रश्न ही नहीं उठाया। हाँ, वन में एक बार राम के दुखी क्षणों में यह बात उठी अवश्य थी। उस समय राम लक्ष्मण को दशरथ के हित वापस अयोध्या लौट जाने को प्रेरित कर रहे थे। दशरथ की क्षीण मनःस्थिति और उनकी संभावित परवशता, ये प्रेरक कारण थे जो राम द्वारा लक्ष्मण को समझाये गये थे।


नियतिवादी कह सकते हैं कि यदि राम वन नहीं जाते तो रावण को कौन मारता? उनके अनुसार सब कारण श्रृंखलाबद्ध हैं, क्रमवत हैं, दैवयोग से प्रेरित हैं, देवों ने ही मन्थरा की मति पलटी। नियतिवादियों का यह सरलीकरण मुझे स्वीकार नहीं है। सीता अपहरण से रावण वध, कारण से कार्य तक का घटनाक्रम अन्तिम दो वर्ष से भी कम समय में हो गया था। तब शेष १२ वर्ष के वनभ्रमण के कष्टों का क्या कारण कहेंगे नियतिवादी? यदि राम वन नहीं जाते तो क्या समय आने पर रावण के विरुद्ध नहीं खड़े होते। यद्यपि रावण ने अयोध्या आदि से सीधी शत्रुता नहीं ली थी पर कालान्तर में उसकी महात्वाकांक्षा बढ़ती और तब राम से टकराव स्वाभाविक होता। या यह भी संभव था कि ऋषि मुनि आकर एक सक्षम राजा से सुरक्षा का आश्रय माँगते, तब भी रावणवध तो होना ही था। उनको अपने सिद्ध शस्त्र तो विश्वामित्र ने दे ही दिये थे, कालान्तर में अगस्त्य भी उन्हें अस्त्र दे ही देते। राम वनगमन के पहले ही इस युद्ध में खींचे जा चुके थे, शेष निष्कर्ष बस काल को प्रकट करने थे। सब नियत मान लेने से या राम के वनगमन को दैवयोग कह देने से क्या हमें उस निर्णय की विवेचना करना बन्द कर देना चाहिये?


वह भले ही त्रेतायुग था पर अन्याय का यह प्रकरण कलियुग का निर्लज्ज प्राकट्य था। वाल्मीकि ने दशरथ की रानियों के बीच प्रतिस्पर्धा और मानसिक वैमनस्य को बड़े ही स्पष्टरूप से व्यक्त किया है। कौशल्या ने राम को वन न जाने के लिये यह भी कारण दिया था कि राजा कैकेयी को अधिक मान देते रहे हैं और राम के राजा बनने से उनका भी मान वापस आयेगा। राम के वन जाने की स्थिति में कैकेयी और भी मदित, क्रूर और निष्कंटक हो सकती है। राजा की सर्वाधिक प्रिय रानी की दासियों में यह अभिमान आना सहज ही तो है। दासियों की राजपरिसर में महत्ता उनकी रानी के मान पर निर्भर थी। कोई भी ऐसी घटना जिससे उनकी रानी का प्रभावक्षेत्र सिकुड़े, उस पर दासियों का सतर्क होना स्वाभाविक था। मन्थरा का व्यवहार और षड्यन्त्रशीलता परिस्थितियों और व्याप्त मानसिकता का एक स्वाभाविक कर्म था, उस प्रतिस्पर्धात्मक वातावरण का सहज सा निष्कर्ष।


राम के वनगमन का पूरा दोष मन्थरा पर मढ़कर निकल जाना उस अन्यायपूर्ण घटना के साथ भी अन्याय होगा। क्या कैकेयी की भी मति पलट गयी थी, क्या दशरथ को भी न्याय के बारे में विभ्रम हो गया था? क्या दशरथ अपनी सामान्य प्रजा पर यह अन्याय कर पाते जो उन्होंने अपने पुत्र राम पर हो जाने दिया और मौन बैठे रहे। राजकीय उत्तरदायित्वों में भला व्यक्तिगत वरों का क्या मोल? कोई प्रजाजन यदि दशरथ से यह प्रश्न भर पूछ देता तो दशरथ क्या उत्तर देते? जो न्याय दशरथ के लिये अपनी प्रजा के प्रति करना असंभव था वह निर्दयी अन्यायपूर्ण निर्णय राम जैसे गुणी, सौम्य, सर्वप्रिय और आज्ञाकारी पुत्र पर किया गया।


राम के वनगमन में मन्थरा से अधिक कैकेयी का दोष था और सर्वाधिक दोष दशरथ का था। मन्थरा की जिह्वा में सरस्वती बैठ गयी थी? कैकेयी की बु्द्धि पलट गयी थी? यह मतिभ्रम नहीं वरन रानियों की परस्पर प्रतिस्पर्धा में श्रेष्ठ बनने का भाव बुद्धि में बसा बैठा था। सब एक दूसरे से भय भी खातीं थी, सशंकित थीं। कैकेयी युवा थी और दशरथ की प्रिय भी, दशरथ उन पर कामानुरक्त थे। इस पर मन्थरा को खलनायक बनाने का क्या अर्थ? यदि किसी का निर्णय इसमें प्रबलता रखता था, वह दशरथ का था। दशरथ ने राम को न जाने के लिये कहा और न ही रुकने के लिये, बस मौन बने बैठे रहे। मौनं स्वीकृति लक्षणम्।


यद्यपि कैकेयी से दशरथ ने यथासंभव अनुनय विनय और याचना की, पर वह राजा का स्वरूप नहीं दिखा पाये और न ही पिता बन अपने पुत्र की रक्षा कर पाये। क्या वचन न मानने का सामाजिक अपयश राम को अन्यायपूर्ण वन भेजने से अधिक होता? यहाँ तो सर्वथा विपरीत ही हुआ। राम ने पिता की प्रतिज्ञा की रक्षा की, उनके अपयश में बाधा बन कर खड़े हो गये। बिना युवराज बने, रघुकुल और राजा के गुरुतर दायित्वों के निर्वहन का मान रखते हुये स्वयं ही वनगमन का निर्णय ले लिया।


यद्यपि घटनाक्रम अन्यायपूर्ण था, राम ने सबका ध्यान रखते हुये, माँ, पिता और कुल का सम्मान रखते हुये स्वयं ही वनगमन चुना।


राम के निर्णय के आधार क्या थे, विस्तृत विवेचना अगले ब्लाग में।

26 comments:

  1. रामायण पढ़ते समय कई प्रश्न सामने आते है। अगर उन पर चर्चा करो तो अधार्मिक का ठप्पा लगने का डर रहता है।
    बाल्मीकि रामायण में राम की बड़ी बहिन का विवाह ऋषि पुत्र से इसलिये कर दिया गया कि वह हवन कराएंगे तो दशरथ को पुत्र प्राप्त होंगे। ऐसे कई प्रसंग है जो मन को उद्देलित करते है।

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    1. चर्चा निश्चय ही आवश्यक है, बिना उसके सत्य सामने नहीं आयेगा। वाल्मीकि रामायण में पुत्र प्राप्ति के लिये यज्ञ करने का इतिहास है(बालकाण्ड, ९-११ सर्ग)। अंगदेश के राजा रोमपाद की पुत्री शान्ता अपने देश में अनावृष्टि होने से पड़े अकाल के निवारण के लिये विभांडकपुत्र ऋष्यश्रृंग को गृहस्थ में आकर्षित कर लाती है। वही ऋष्यश्रृंग कालान्तर दशरथ के निवेदन पर पुत्र प्राप्ति के लिये यज्ञ करवाते हैं। राम की बड़ी बहन का तो कोई प्रसंग नहीं है, वाल्मीकि रामायण में।

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  2. बेहतरीन विषय लिया आपने। आपकी लेखन शैली का तो मुरीद हूँ ही। अगले अंक की प्रतीक्षा है। 🙏

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  3. वनागमन के कारण राम को कष्ट सहना पड़ा,इस पर विचार करना होगा।कष्ट विषयनिष्ठ है अर्थात एक व्यक्ति को किसी चीज से कष्ट हो सकता है वहीं दूसरे व्यक्ति को उससे सुख मिल सकता है।जैसे कोई शहर में सुखी है तो कोई गांव में,कोई भौतिकतावाद में सुखी है तो कोई आध्यात्मिकतावाद में।धनाढ्य व्यक्ति या राजा भी कष्ट में रह सकता है या कष्ट सहना पड़ सकता है।
    यह भी संभव है की राम यदि वन न जाकर उसी समय राजा बनते तो उन्हे किसी अन्य प्रकार का कष्ट सहना पड़ता।
    वनवास से लौटने पर राजा बनने के बाद भी आखिर पत्नी से दूर होने का कष्ट सहना ही पड़ा।

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    1. जी आपसे सहमत है। कष्टजनित सुखदुख तो मन की अनुकुलता पर निर्भर करता है। मन अनुकूल कर लिया तो कोई कष्ट नहीं। राम ने वनगमन को ही अपना अभ्युदय मान लिया था। पिता की आज्ञा का मान और संतों का सानिध्य। तुलना से सुख दुख होता है। राजा बनकर जनमानस का कल्याण या वन में रह मन की शांति, निर्भर करता है कि क्या श्रेयस्कर है। राम का वनगमन मुझे दुख देता है, संभवतः मेरा ही मन उस कष्ट और अन्याय के अनुकूल नहीं हो पाया है।

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  4. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार २७ अगस्त २०२१ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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    1. आपका अतिशय आभार श्वेताजी।

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  5. फिर रावण को मोक्ष कैसे होती..
    अकारण कुछ नहीं होता न...
    'राम की उपस्थिति में रावण बैकुंठ गया'

    मार्मिक लेखन

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    1. अकारण कुछ नहीं होता पर कार्य कारण का कारण कैसे हो सकता है? आभार आपके अवलोकन का।

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  6. नियति कोई भी कार्य
    अकारण नहीं करती..
    आज अफगानिस्तान में तालिबान काबिज है
    तालिबान और अफगानी भूख-प्यास से व्याकुल हैं
    वे नजदीकी देश पाकिस्तान की ओर प्रस्थान कर रहे हैं
    पाकिस्तान स्वयं अभावग्रस्त है..
    क्या होगा ये भी नियति को ज्ञात है..
    कुल मिलाकर नियति ही कारक है
    सादर..

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    1. काल की दिशा एकल होती है, जो हुआ उसको नियत ही मान लेना कहाँ तक ठीक होगा। मनुष्य के मानसिक स्वातन्त्र्य के लिये तनिक स्थान तो छोड़ना पड़ जायेगा ही। आभार आपके अवलोकन का।

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  7. अति सुन्दर विश्लेषण किया है। रामायण से बहुत कुछ सीखने समझने को मिलता है और ज्ञान चक्षु भी खुलते हैं!!

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    1. राम की कथा शिक्षाओं का अथाह भण्डार है, जितना सीख सके हम। आभार आपका अनुपमाजी।

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  8. अब तो कई जगह पढ़ने को मिलता की कैकई से राम का ही आग्रह था कि वो इस तरह का वचन ले कर राम के वन गमन के मार्ग प्रशस्त करें ।
    सुंदर विश्लेषण ।

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    1. जी, संभवतः यह किसी की अथक कल्पना ही कही जायेगी। राम ने इस प्रकार का कोई आग्रह नहीं किया था। एक कार्य के लिये कारण जुटा लेना इतिहास की नयी विधा है। आभार आपका संगीता जी।

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  9. मुझे अगली कड़ी की प्रतीक्षा रहेगी क्योंकि इस विषय पर मेरे मन में भी कई प्रश्न उठते हैं।
    क्या महापराक्रमी राम, राजा राम के रूप में रावण का वध करने में सक्षम नहीं हो पाते ?
    क्या उसके लिए तपस्वी राम का होना ही जरूरी था ?
    क्या रावण वध के लिए सीताहरण होना आवश्यक था?
    वैसे तो बहुत सारे प्रवचनकारों द्वारा भी ऐसे प्रश्नों का समाधान किया गया है परंतु मन को पूर्ण संतोष नहीं हुआ।
    यह अवश्य है कि राम के वनगमन के प्रसंग से जिन परिस्थितियों का निर्माण हुआ, उनसे आदर्श भाई, आदर्श पत्नी, आदर्श पुत्र, आदर्श मित्र आदि की संकल्पनाएँ उभरकर सामने आईं।

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    1. राम और रावण का युद्ध तो होना ही था। राम को विश्वामित्र ने अपने अस्त्र इसीलिये दिये थे। अगस्त्य के अस्त्र से रावण वध हुआ, वह भी कालान्तर में मिलने ही थे। यह सच में एक रोचक प्रश्न होता।

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  10. विश्लेषणात्मक विचार , चिंतन परक लेख।

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  11. रामायण की घटनाओं से मन उद्वेलित तो होता है
    श्रीरामवन गमन पर विश्लेषण में यह भी कहा जाता है कि श्रीराम को उन सभी वनवासियों को दर्शन देकर उन तपस्या का फल देना भी कारण बना उनके वनगमन का...
    बहुत सुन्दर एवं चिन्तनपरक लेख।

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    1. चौदह वर्ष में लगभग १२ वर्ष चित्रकूट में रहे राम। इतना तो आवश्यक नहीं था किसी कार्य विशेष के लिये।

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  12. बहुत बढ़िया लेख

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    1. बहुत आभार आपका सुमनजी।

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  13. राम के वन गमन पर आपके इस आलेख ने कई प्रश्न खड़े किए,कई उत्तर भी मिले टिप्पणियों के द्वारा परंतु राम के जीवन संदर्भ के प्रश्नोत्तरों की लंबी श्रृंखला है सब अपनी तरह से अवलोकन करते है, राम के जीवन चरित से हमें इसी तरह के आलेख से परिचय कराने के लिए आपका असंख्य आभार और वंदन । बहुत शुभकामनाएं प्रवीण जी ।

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    1. प्रश्न अनुत्तरित है कि मेरे राम कष्ट क्यों सहे? राम के उत्तर अभिभूत करते हैं, उनके अन्दर सबको समेट लेने की अद्भुत क्षमता थी। अपने एक उत्तर में उन्होंने दशरथ, भरत और कैकेयी, तीनों का मान पुनर्स्थापित किया था। अगले ब्लाग में उसका विश्लेषण किया है। आभार आपका।

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