14.8.21

मन मेरा फिर डोल रहा है

  

शान्ति धरो स्थान, व्यक्त जीवन में तेरा मोल रहा है ।

देखो अभी कहीं मत जाना, मन मेरा फिर डोल रहा है ।।

 

शान्ति, सुधा का रस बरसाती,

जीवन के मनभावों में ।

नयन ज्योत्सना, धैर्य दिलाती,

अति से अधिक विषादों में ।।

शान्ति, क्रिया का अन्त शब्द, 

पर मन कर्कशता बोल रहा है ।

मन मेरा फिर डोल रहा है ।।१।।

 

क्यों अशान्ति अपनायी मैंने,

सुख-निकेत से किया प्रयाण ।

कालचक्र के दूतों से,

मिल गया मुझे साक्षात प्रमाण ।।

क्यों अशान्ति का शब्द हृदय में, 

गरल भयंकर घोल रहा है ।

मन मेरा फिर डोल रहा है ।।२।।


कर्म विरत हो नहीं सहज,

मन घोर मचाये हाहाकार,

कैसे जीवन तब तटस्थ,

मन चाह रहा उद्धत व्यापार,

त्यक्त रहूँ या व्यक्त करूँ,

मन असमंजस नित खोल रहा है,

मन मेरा फिर डोल रहा है ।।३।।


बढ़ता जीवन का कर्मचक्र,

बढ़ता जाता है नवल नाद,

है नहीं अपेक्षित, आवश्यक, 

बिन चाहे बढ़ जाता विषाद,

क्या प्राप्त रहे, क्या छोड़ सकूँ,

सब लाभहानि में तोल रहा है,

मन मेरा फिर डोल रहा है ।।४।।


नहीं कभी भी मुुड़ पाता मन,

एक विशिष्ट आकर्ष भरा,

रागयुक्त यह कोलाहल है,

जो जीवन बनकर पसरा।

कितना चाहूँ, उसी परिधि पर,

घूम रहा मन, गोल रहा है,

मन मेरा फिर डोल रहा है ।।५।।

4 comments:

  1. वह प्रदीप्त जो दीख रहा है
    झिलमिल दूर नहीं है
    थक कर बैठ गए क्या भाई
    मंज़िल दूर नहीं है
    कभी मन का डोलना भी ज़रूरी है राह पाने हेतु !!

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    1. जी सच कहा आपने। इस तरह के विभ्रम आते रहते हैं। तनिक सुस्ता कर आगे बढ़ जाना चाहिये।

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  2. जी सर,आपकी लिखी सुंदर पंक्तियाँ पढ़कर-
    जग जीवन का औचित्य है क्या?
    मनु जन्म, मोक्ष,सुकृत्य है क्या?
    आना-जाना फेरा क्यूँ है?
    मन मूढ़ मति मेरा क्यूँ है?
    राग-विराग मय पी-पीकर
    मन उलझन में पड़ जाता है।

    प्रणाम
    सादर।

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    1. अद्भुत पंक्तियाँ लिखी है आपने, सच है, बस यही प्रश्न तो उठता है।
      राग विराग में मन मूढ़ा क्यों?

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